भाग-3/ पितृ-पक्ष विशेष : तपोनिष्ठ ऋषि अत्रि
आज हम अपने जिन पितृ पुरुष को याद करने वाले हैं। वह हैं अत्रि ऋषि। अत्रि ऋषि सप्तर्षियों में तीसरे प्रमुख ऋषि हैं। अत्रि ऋषि से हमारा पहला प्रामाणिक परिचय अरण्यकांड में होता है। जब राम, सीता और लक्ष्मण अत्रि ऋषि के आश्रम में वनवास काल में जाते हैं। तुलसीदास जी के शब्दों में-
पुलकित गात्र अत्रि उठि धाए। देखि राम आतुर चलि आए।।
राम को देखते ही अत्रि ऋषि दौड़ पड़ते हैं। राम जब यह देखते हैं तो वह भी तेज कदमों से चलने लगते हैं। जैसे ही अत्रि ऋषि राम को दंडवत करने के लिए झुकते हैं, राम उन्हें गले से लगा लेते हैं।
अत्रि ऋषि के आध्यात्मिक धरातल की थाह हम जैसे विद्यार्थी समझ ही नहीं सकते और उनसे भी अधिक साधना थी महासती अनुसुइया की, जो अत्रि ऋषि की पत्नी थीं। जो जगत जननी जगदंबा सीता को पतिव्रत धर्म का उपदेश देती हैं। साथ ही वनवास के लिए ऐसे वस्त्र आभूषण देती हैं, जो कभी मैले नहीं होते। तुलसीदास जी के शब्दों में
अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥
दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥
बाल्मीकि रामायण में भी बाल्मीकि जी ने भी राम, सीता और लक्ष्मण का रात्रि के समय अत्रि आश्रम में रुकने का विस्तृत वर्णन किया है।
ऋग्वेद का पंचम मंडल 'आत्रे मंडल', कल्याण सूक्त, स्वास्ति सुक्त अत्रि द्वारा रचित है। यह सूक्त मांगलिक कार्य, शुभ संस्कारों तथा पूजा अनुष्ठान में पाठ किया जाता है। उन्होंने प्रहलाद को शिक्षा दी थी। महर्षि अत्रि को त्याग तपस्या और संतोष से युक्त ऋ षि कहा जाता है। जिनमें त्रिगुण सत, रज और तमो गुण समता में है।
साथ ही धरती पर कृषि की उन्नति के लिए अत्रि ऋ षि को जाना जाता है। आज भी चित्रकूट की धरती को उपजाऊ बनाने में उनके प्रयासों को देखा जा सकता है। पुत्र प्राप्ति के लिए अत्रि ऋषि ने अपनी पत्नी के साथ ऋक्ष पर्वत पर घोर तपस्या की जिसके कारण इन्हें त्रिमूर्ति के अंश के रूप में दत्त (विष्णु), दुर्वासा (शिव) और सोम (ब्रह्म) पुत्र रूप में प्राप्त हुए।
संदर्भ ग्रंथों में ऐसा आता है कि अत्रि ऋषि की तपोभूमि आज के ईरान में भी रही थी। वह भी देवबंद पर्वत के आसपास। जिसे ईरानी लोग पैराडाइज या स्वर्ग कहते हैं। यहां के निवासियों की जाति और गोत्र आज भी अत्रियस है। यहीं पर सोम उत्पन्न होता था और कल्पतरु यथेष्ट फल देता था। यहां से अत्रि ऋषि भारत कब आए, इन सब पर शोध की आवश्यकता है।
भृगु के पौत्र और शुक्र के पुत्र अत्रि थे। अत्रि पुत्र चन्द्र, चन्द्र पुत्र बुध ने ही चंद्र वंश की स्थापना की। यह वही प्रतापी चंद्र वंश है जिसमें पुरुरवा, नहुष, ययाति, पुरु, दुष्यंत, भरत और परीक्षित हुए।
ऐसे तपोनिष्ठ अत्रि जिनके लिए माता अनुसुइया ने गंगा को मंदाकिनी के रूप में प्रगट किया, सादर नमन।