भाग-7/ पितृ-पक्ष विशेष : यांत्रिकी के अद्भुत ज्ञाता थे भरद्वाज ऋषि
महर्षि भरद्वाज और महर्षि विश्वामित्र का जितना विस्तार से वर्णन रामायण में है उतना किसी अन्य ऋषि का नहीं है। राम को वनवास हो गया है। राम लक्ष्मण और सीता गंगा पार कर प्रयाग में सबसे पहले जिन ऋषि के आश्रम में जाते हैं वह हैं भरद्वाज ऋषि। यहीं से राम भरद्वाज की सलाह पर चित्रकूट जाने की योजना बनाते हैं।
अयोध्या कांड में राम-भरद्वाज संवाद मिलता है।
आज सुफल तप तीरथ त्यागू।
आजु सुफल जप जोग बिरागू।।
भरद्वाज कहते हैं कि आज मेरा तप, तीर्थ, त्याग सब सफल हो गए हैं। आज मेरा जप, योग और वैराग्य सफल हो गया है जो मैंने राम के दर्शन किए। इधर इसी तारतम्य में भरत का राजतिलक होने के बाद वह तीनों माताओं को लेकर राम को पुन: अयोध्या लौटा लाने के लिए चित्रकूट जाते हैं और रास्ते में भरद्वाज ऋषि के आग्रह पर उनके आश्रम में जाते हैं। यहीं पर तुलसीदास जी ने प्रसिद्ध चौपाई कही है जो अक्सर हम विशिष्ट मेहमान के आने पर कहते हैं।
भरद्वाज कहते हैं-
मुनहि सोच पाहुन बड़ नेता। तासि पूजा चाहिए जस देवता।।
बहुत बड़े मेहमान को न्योता है अब जैसा देवता हो वैसी ही पूजा होनी चाहिए। भरत जी सहित सभी माताओं के स्वागत की व्यवस्था के लिए ऋषि रिद्धि, सिद्धि और अणिमाओं को आदेशित करते हैं। यहां पर तुलसीदास जी ने भरद्वाज ऋषिकेश तप को दर्शाते हुए लिखा है कि
मुनि प्रभाव जब भरत विलोका, सब लघु लगे लोकपति लोका। सुख समाजु नहिं जाइ बखानी, देखत बिरती बिसरहिं ग्यानी।।
जब भरत जी ने मुनि के प्रभाव को देखा तो उसके सामने उन्हें इंद्र, वरुण, यम, कुबेर सभी लोक पालों के लोक भी तुच्छ जान पड़ते हैं। सुख की सामग्री का वर्णन नहीं हो सकता जिसे देखकर ज्ञानी लोग भी वैराग्य भूल जाते हैं। सुख सामग्री के पहाड़ ऋषि ने खड़े कर दिए। इसे बाल्मीकि रामायण में भरत का दिव्य सत्कार कहा है। एक ऋषि वन में एक राजा का उसकी सेना सहित भव्य सत्कार करने में समर्थ है, इससे दो बातें ध्यान में आती हैं। ऋषि स्वयं सीमित साधनों में अपना जीवन संयम एवं तप से व्यतीत करते हैं, पर उनके सामथ्र्य से समाज अपना सर्वस्व देने के लिए भी उद्यत रहता है।
भरद्वाज ऋषि का जो सबसे बड़ा योगदान है वह विमान शास्त्र, आकाश शास्त्र, यंत्र सर्वस्व। इसमें सभी प्रकार के यंत्र बनाने और उनके संचालन का विस्तृत वर्णन किया गया है। अंतरराष्ट्रीय शोध मंडल ने प्राचीन पांडुलिपियों की खोज से भरद्वाज का विमान शास्त्र प्रकाश में आया। इस ग्रंथ का बारीकी से अध्ययन करने पर आठ प्रकार के विमानों का पता चलता है, जिसमें बिजली, अग्नि, जल, वायु, तेल सूर्य की रोशनी और चुंबक और सूर्यकांत मणियों से चलने वाले विमानों का वर्णन किया गया है।
चरक संहिता के अनुसार भरद्वाज ऋषि में इंद्र से आयुर्वेद का ज्ञान पाया था। ब्रह्म, बृहस्पति और इंद्र के बाद चौथे व्याकरण प्रवक्ता थे। इन्होंने व्याकरण ज्ञान इंद्र से प्राप्त किया था। इन्हें सर्वाधिक आयु वाले ऋषि के रूप में जाना जाता है। यह बात अलग है कि इनकी आयु का कहीं वर्णन नहीं मिलता है। भरद्वाज को प्रयाग का प्रथम निवासी माना जाता है। प्रयाग में ही उन्होंने सबसे बड़े गुरुकुल की स्थापना की थी। प्रयाग के आश्रम में ही एक शिवलिंग भी हैं जिसकी स्थापना उन्होंने की थी जिसे भरद्वाजेश्वर शिव मंदिर कहा जाता है।
महान धनुर्धर द्रोणाचार्य, ऋषि भरद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र थे। भरद्वाज गोत्र में द्विवेदी, पांडे, चतुर्वेदी, मिश्र, उपाध्याय वंश के ब्रह्मण आते हैं। भरद्वाज गोत्र के जातकों का वेद यजुर्वेद है। तमसा तट पर क्रौंच-वध के समय महर्षि बाल्मीकि के साथ महर्षि भरद्वाज थे। भरद्वाज महर्षि बाल्मीकि के शिष्य भी थे।
क्या आज यह आवश्यक नहीं कि हम मात्र इन ऋषियों की अर्चना ही न करें बल्कि जो दिव्य एवं समाज उपयोगी ज्ञान विज्ञान इनके माध्यम से मिला है उसे संस्कृत के आचार्य एवं अभियांत्रिकी,अंतरिक्ष क्षेत्र के विद्वान उसे शोध के रूप में अध्ययन करें और समाज हित में उसका प्रयोग करें तो हम भारत को सही अर्थों में विश्व गुरु के रूप में स्थापित कर सकते हैं। नमन।