धन की अत्यधिक आसक्ति पाप का कारक

धन की अत्यधिक आसक्ति पाप का कारक
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देश के स्वतंत्र होने के समय की बात है, जब सरदार वल्लभ भाई पटेल गृहमंत्री के पद पर थे और उनकी बेटी मणिबेन थीं, जो पैबंद लगी हुई धोती पहनती थीं। उनको इस तरह की धोती को पहने हुए देखकर एक बार महावीर त्यागी जी ने उनसे कहा - 'तू चक्रवर्ती राजा की बेटी होते हुए भी पैबंद लगी हुई धोती पहनती है। उस समय सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 200 से अधिक रियासतों को एक कर दिया था। उनके दृढ़ निश्चय व सही निर्णयों को देखकर लोग उन्हें लौहपुरुष कहते थे। उनके कार्य देश के प्रति समर्पित थे, इतनी सारी रियासतों का अधिकारी होने के बावजूद भी वे बहुत सामान्य जीवन जीते थे। उनकी बेटी अपने हाथों से सूत कातकर धोती बनातीं। घर के कार्यों में अत्यधिक व्यस्तता के कारण वे अधिक सूत नहीं कात पाती थीं, इसलिए जो भी धोती बनातीं, उसे अपने पिता को पहनने के लिए दे देती, क्योंकि उन्हें बड़े-बड़े कार्यों व समारोहों में सबके बीच जाना पड़ता था। स्वयं मणिबेन उनकी पुरानी धोती साड़ी के रूप में पहनतीं और कुर्ते का ब्लाउज बना लेतीं। महावीर त्यागी के इस व्यंग्य को जब सरदार पटेल ने सुना तो उन्होंने कहा - 'मणिबेन चक्रवर्ती सम्राट की बेटी नहीं, गरीब किसान की बेटी है। और ऐसा कहने में उन्हें फक्र महसूस हुआ। उस समय राजनेताओं को अधिक धन नहीं दिया जाता था और न ही वे धन के लिए देश की अस्मिता को दांव पर लगाने के लिए तैयार होते थे। वे भी स्वयं को देश का सामान्य नागरिक समझते थे। आजादी की कीमत उन्हें पता थी और वे अपने कर्तव्यों का भली प्रकार से पालन करते थे। जब से धन, भ्रष्टाचार और राष्ट्रद्रोह ने राजनीति में प्रवेश किया है, तब से देश की सूरत ही बदल गई है।

धन जिस प्रकार से अर्जित किया जाता है, उसका व्यय भी उसी रूप में होता है। ईमानदारी व परिश्रम से अर्जित धन का उपयोग लोगों को ईमानदार व परिश्रमी बनाता है और संस्कारवान बनाता है। इसी तरह बेईमानी व मुफ्तखोरी से अर्जित धन लोगों को बेईमान व भ्रष्ट बनाता है, उनमें कुसंस्कार पैदा करता है। इसलिए धन के अर्जित व उसके उपयोग दोनों में सावधानी बरतने की जरूरत है। शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि धन के तीन ही उपयोग हैं, दान करना, उपभोग करना और नष्ट होना। जो व्यक्ति धन का न तो दान करता है और न उपभोग, उसका धन नष्ट हो जाता है। इसलिए हमें धन के संदर्भ में यह बातें ध्यान रखनी चाहिए कि धन ईमानदारी व परिश्रम से कमाया गया हो, भविष्य के लिए भी उसका संग्रह हो, लेकिन बहुत अधिक मात्रा में नहीं। वर्तमान समय में उसका सदुपयोग हो, जहां इसकी जरूरत हो, वहां खर्च हो, लेकिन फिजूलखर्ची में नहीं और धन के प्रति अत्यधिक आसक्ति न हो। यदि ऐसी सोच मनुष्य के भीतर विकसित हो सकेगी तो उसके परिणाम वैयक्तिक स्तर पर ही नहीं, वरन सामाजिक एवं राष्ट्रीय उन्नति व प्रगति के रूप में भी दृष्टिगोचर होंगे। (प्रस्तुति : अ.ज्यो.)

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