सर्वशास्त्रमयी गीता सर्वदेवमयो हरि:
'गीता तो अपनी ही थाती है।Ó ऐसा मानने वाले भारत के कवि और लेखकों को भी श्री मद्भगवदगीता जी से सतत्, सदैव प्रेरणा लेते रहना, सबके लिए कल्याणकारी होगा। काश! ऐसा हो कि हमारे अपने देश - महान् भारत में भी गीता जी का तेज दैदीप्यमान होता रहे। वर्तमान में भारतीय साहित्यिक जगत में जिस प्रकार से श्री मद्भगवदगीता जी, श्री रामायण जी से इतर दूसरे प्रतिमानों को आधार बनाया जा रहा है वह उचित नहीं है।
दूसरी ओर अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजी काव्य की रोमाण्टिक काव्य धारा भी भारतीय प्रभाव से ओतप्रोत थी।Ó ग्लासगो विश्वविद्यालय में अतिथि प्राध्यापक 'डाक्टर कृष्णगोपाल श्रीवास्तवÓ ने इस विषय पर बीस वर्ष तक अनुसंधान करके उक्त निष्कर्ष दिया है । उन्होंने अपने अनुसंधान में यह भी प्रमाणित किया है कि - मद्भगवदगीता के प्रभाव से रोमाण्टिक युग के वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली, कीट्स, बॉयरन, और वाल्टर स्कॉट - जैसे प्रमुख कवि गहरे रूप में प्रभावित थे। उनकी कविता पर इस महान् ग्रन्थ का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।
(श्री श्रीवास्तव जी के गीता जी के सम्बन्ध में लिखे गए लेख सौन्दर्य - शास्त्र की ब्रिटिश पत्रिका 'एक्सप्लिकेटÓ में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं। ब्रिटेन और अमेरिका की अन्य पत्र - पत्रिकाओं में भी वे लिखते रहते हैं। हाल ही में _मैकमिलन इण्डिया_ से प्रकाशित उनका ग्रन्थ 'भगवद्गीता एण्ड दि इंग्लिश रोमाण्टिक मूवमेण्टÓ इन दिनों सबके लिए आकर्षण का केन्द्र है )
श्री श्रीवास्तव के अनुसार, मद्भगवदगीता के अनुशीलन से इन कवियों ने जीवन और आत्मा - सम्बन्धी जिन मूल्यों को अपनाया था, वे हैं पुनर्जन्म, कर्म का सिद्धांत, जगत् की सत्ता, आत्म तत्त्व की अमरता, अवतारवाद आदि। इन मूल्यों ने ही रोमाण्टिक कवियों को विशेष रूप से मोहित किया था। उनकी कविताओं में बहुत से अंश अत्यंत दुर्बोध, और मन बुद्धि की समझ से परे हैं । यदि उन पर श्री गीता जी के प्रकाश में विचार किया जाय, तो वे एकदम स्पष्ट रूप से उद्भासित हो उठते हैं।
मद्भगवदगीता जी को संदर्भित करते हुए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ, जिसका उल्लेख डाक्टर कृष्णगोपाल श्रीवास्तव ने अपने अनुसंधान में किया है । इससे भी यह जाहिर होता है कि श्री गीता जी के प्रभाव और महत्व को हमारे पुरातन भारतीय मनीषियों ने अपनी आध्यात्मिक साधना के साथ जीवन जीने की कला सिखाने वाले, सामाजिक संरचना और भारतीय साहित्य की आधारभूत संरचना के रूप में जान लिया था । विदेशी विद्वानों ने भी श्री गीता जी ही नहीं भारत - विद्या की खोज और नवजागरण को रेखांकित किया था। श्री श्रीवास्तव जी_ के अनुसार, अठारहवीं शताब्दी में प्राच्यविद् चार्ल्स विलकिन्स जोन्स आदि ने भारत - विद्या की जो खोज की थी, उसी के परिणाम स्वरूप प्राच्य देश में नवजागरण का सूत्रपात हुआ था । यह नवजागरण वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पुरातत्व आदि की खोज के क्षेत्र में था।
विल्किन्स ने श्री गीता जी का अंग्रेजी पद्यों में अनुवाद किया था और वह अनुवाद लन्दन में सन् 1785 में प्रकाशित हुआ था। और इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि अंग्रेजी के रोमाण्टिक कवियों ने विल्किन्स कृत गीता जी के अनुवाद को मात्र पढ़ा ही नहीं था, गीता जी के उपदेशों ने उनके मर्म को भी छू लिया और उसी की ज्योति से उनकी कविता में और चमक आ गई थी ।
यह भी महत्वपूर्ण है कि _भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के पहले गवर्नर जनरल रहे 'वारेन हेस्टिंग्सÓ ने चाल्र्स विलिकिन्स को श्री गीता जी के अनुवाद के लिए आर्थिक सहयोग दिया था और उसके कार्य की प्रशंसा करते हुए उसके द्वारा अनुदित श्री गीता जी की एक प्रति ईस्ट इंडिया कंपनी के चेयरमैन को भी भेंट की थी।
बांगला के शीर्ष कथाकार शीषेन्दु मुखोपाध्याय ने अपनी टिप्पणी में डाक्टर कृष्ण गोपाल श्रीवास्तव के उपरोक्त अनुसंधान की सराहना करते हुए सही ठहराया है। 'डाक्टर कृष्णगोपाल श्रीवास्तव के इस अनुसंधान ने स्वयं अंग्रेजों के देश ब्रिटेन में हलचल मचा दी है। इस सम्बन्ध में बी बी सी लन्दन ने डाक्टर श्रीवास्तव जी का एक साक्षात्कार भी प्रसारित किया था।Ó
गीता जी की महिमा का वर्णन 'महाभारत के भीष्म पर्वÓ में स्वयं वेदव्यास जी ने भी किया है --
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै:शास्त्रसंग्रहै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद् विनि:सृता ।।
( भीष्म पर्व 43/1 )
गीता जी का ही अच्छी प्रकार से श्रवण, कीर्त्तन , पठन - पाठन - मनन और धारण करना चाहिये; अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान् के साक्षात् मुखकमल से निकली हुई है ।
सर्वशास्त्रमयी गीता सर्वदेवमयो हरि।
र्वतीर्थमयी गंगा सर्वदेवमयो मनु:।।
( भीष्म पर्व 43/2 )
जैसे मनु सर्वदेवमय हैं, गंगा सकलतीर्थमयी है और श्री हरि सर्वदेवमय हैं, इसी प्रकार गीता जी सर्वशास्त्रमयी हैं।
भारतामृतसर्वस्वगीताया मथितस्य च।
सारमुद्धृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम् ।।
( भीष्मपर्व 43/5 )
महाभारत रूपी अमृत के सर्वस्व गीता जी को मथकर और उसमें से सार निकाल कर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मुख में उसका हवन किया है।
प्रस्तुति : अकिंचन - नवल गर्ग