संस्कारों के अभाव में फैलती अराजकता

संस्कारों के अभाव में फैलती अराजकता
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ग्वालियर/रूकमणी पाल। भारत देश विश्व के लिए एक आदर्श है। सारे विश्व में भारत का अपना अलग स्थान है। सबसे हटकर इस देश का अस्तित्व है, क्यों? क्योंकि यहाँ संस्कार और त्याग को महत्व दिया जाता है। लेकिन कहीं न कहीं समाज से संस्कार विलुप्त होते जा रहे हैं जिसका सटीक उदाहरण हम समाज में फैल रही अराजकता के रूप में देख रहे हैं। इसका कारण भले ही अलग-अलग स्तर पर लोग निकालें, लेकिन जो मूल कारण है वह संस्कारों का अभाव है। आधुनिकता के दौर में न तो आज व्यक्ति स्वयं के लिए उचित अनुचित की पहचान कर पाता है और न समाज के लिए। क्यों? क्योंकि उसके जीवन में संस्कारों का अभाव है। यदि व्यक्ति के जीवन में जन्म से संस्कार के बीज बो दिए जाएं तो निश्चित रूप से हम भविष्य में एक ऐसे समाज के दर्शन कर सकेंगे जिसकी हम कल्पना करते हैं। अब बात आती है कि कहां से आएंगे ऐसे संस्कार जो व्यक्ति के जीवन को एक सही दिशा प्रदान कर सकें । निश्चित ही अपने घर से।

हम इस बात से भली प्रकार से अवगत है। संस्कारों की क्रिया जन्म से शुरू हो जाती है। पहले के समय में जब कोई स्त्री गर्भवती हुआ करती थी तो घर के बड़े बजुर्ग उसे धार्मिक किताबें जैसे गीता, रामायण आदि पढ़ने को कहा करते थे ताकि होने वाली संतान पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ सके, वह जन्म से ही संस्कार और संस्कृति से अवगत हो सके। उस गर्भस्थ शिशु को संस्कारित करने का माध्यम उसकी जननी बनती थी और शायद इसीलिए मां को प्रथम गुरू की उपाधि प्राप्त है। लेकिन आधुनिकता के दौर में इन बातों को भले ही नकारा जाता हो लेकिन यह कहीं न कहीं सत्य ही है और इसका असर हम समाज में देख रहे हैं। यहां हम मां को संस्कारों का माध्यम कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक मां ही है जो अपने बच्चों को उचित संस्कार देकर उसका जीवन संवार सकती है। उसे सही गलत के मध्य के भेद को समझाकर सही दिशा प्रदान कर सकती है। आज भले ही कितने भी आधुनिक हो जाएं, कितने भी पढ़-लिख जाएं पर जीवन को सही दिशा संस्कार से ही प्राप्त हो सकती है।

जैसे फसल को बोने का एक उचित समय होता है। उस फसल के अनुरूप सभी प्रकार से अनुकूलित वातावरण भी आवश्यक होता है। ठीक इसी प्रकार संस्कारों को भी मान सकते हैं। संस्कार जन्मजात ही होते हैं और इसका संचरण यदि कोई कर सकता है तो वह नारी है। आज समाज में किसी की सबसे ज्यादा आवश्यकता है तो वह संस्कार हंै। प्रत्येक स्त्री को यह बात समझनी होगी कि वही एक मात्र माध्यम है जो अपने बच्चों को जन्म से संस्कारित करके स्वयं के परिवार के साथ-साथ समाज का कल्याण कर सकती है।

अपनी माता से अच्छे संस्कार पाकर एक बच्चा संस्कारित जीवन व्यतीत करेगा। संस्कार उसी प्रकार उसके जीवन पर प्रभाव डालेंगे जिस प्रकार चंदन से तिलक करने पर दूसरे व्यक्ति के ललाट की शोभा और अधिक बढ़ जाती है साथ ही लगाने वाले के हाथ से भी चंदन की महक आने लगती है।

संस्कारवान मनुष्य आदर पाता है, सम्मानित होता है। स्वयं का कल्याण करता है साथ ही समाज का भी कल्याण करता है। वहीं संस्कार विहीन मनुष्य न तो स्वयं का ही कल्याण कर पाता है और न ही समाज के हित की परवाह करता है। मनुष्य शोभनीय तभी होता है जब वह संस्कारित होता है।

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