श्री पीताम्बरा पीठ दतिया - दैवीसम्पदा सम्पन्न पूज्यपाद श्री स्वामीजी महाराज

श्री पीताम्बरा पीठ दतिया - दैवीसम्पदा सम्पन्न पूज्यपाद श्री स्वामीजी महाराज
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लेखिका- डॉ सुमन चौरे
गुरु पूर्णिमा पर विशेष

दतिया, मध्यप्रदेश के श्रीपीताम्बरा पीठ के द्वार पर कदम रखते ही मन का संताप और सारी शंकाऐं जाने कहाँ विलीन हो जाती है। विद्युत-सी एक धारा का प्रवाह मन को छूकर आनन्द और संतोष से परिपूर्ण कर देता है। यहाँ अकूत दैवीसम्पदा के दर्शन होते हैं। जहाँ रोम-रोम में परमानन्द की असीम अनुभूति हो, वही तो दैवी सम्पदा है। जगज्जननी भगवती के भक्तों के कल्याण के लिए दैवीसम्पदा को अर्जित किया है, श्रीपीताम्बरा पीठाधीश्वर राष्ट्रगुरु पूज्यपाद श्री स्वामीजी महाराज ने।

पूज्यपाद श्री स्वामीजी महाराज ने जनकल्याण और राष्ट्ररक्षा के लिए एक ही परिसर में तीन महाविद्याओं की पीठों की स्थापना कर दी – श्रीपीताम्बरा पीठ में माँ बगलामुखी देवी का अनुपम विग्रह, दूसरा श्रीललितात्रिपुरसुन्दरी का श्रीयंत्र और तीसरी पीठ में देवी धूमावती माई का मूर्त रूप। वस्तुत: देखा जाय तो यह विशुद्ध गुरु स्थान है। स्वामीजी महाराज ने अपने नाम को लोक कल्याण की गंगा में प्रवाहित कर दीन-दुखियों के उद्धार के लिए अपनी साधना समर्पित कर दी।

1929 तक श्मशान खण्ड था वनखण्ड

सन्यास ग्रहण करने के बाद भी कई सन्यासी अपने पूर्व के नाम, व्यवहार और परिवार को विस्मृत नहीं कर पाते हैं। किन्तु स्वामीजी महाराज ऐसे परमहंस सन्त थे, जिन्होंने अपने जन्म नाम, जन्म स्थान, परिवार के साथ ही सन्यास दीक्षा का गुरुनाम भी त्याग दिया और संबोधन के लिए ‘स्वामी’ नाम को ही स्वीकार किया। स्वामीजी महाराज ने जिस परिसर में तीन पीठों की स्थापना की थी, उनके सन् 1929 में दतिया आगमन के समय वह स्थान एक ‘वनखण्ड’ था और वहाँ श्मशान घाट था। जिस स्थान पर दिन में अकेले जाने में लोग भय खाते थे। ऐसे निर्जन स्थान पर स्वामीजी महाराज ने भूख-प्यास को त्यागकर निरन्तर तप किया। दैवी कृपा से स्वामीजी महाराज अपने तपोबल, समभाव और आचरण के द्वारा नर से नारायण बने और उनकी तपस्थली चैतन्य शक्तिपीठ बन गई। उन्होंने अपने मंत्रजप द्वारा स्वयं मंत्रों और इष्ट देवी-देवताओं का साक्षात्कार किया। वे सिद्धियों के द्वारा लोक कल्याण का कार्य किया करते थे। वे कहते थे, कि साधना के मुख्य लक्ष्य के सामने सिद्धियाँ बहुत छोटी होती हैं और सिद्धियाँ स्वयं के लिए उपयोग करने पर साधना में बाधक होती हैं। स्वामीजी महाराज की सरलता और सर्व सुलभता के भीतर बड़ी असाधारणता, गंभीरता और महार्धता का आवास था। निराडम्बरता उनके सब उपाधियों से परिमुक्त होने की परिचायक थी और सहस्र प्रवाहित समवेदना उनके ‘सर्वभूतहिते रता:’ होने का प्रमाण। वे धर्म-आध्यात्म, दर्शन, तन्त्र, योग, भक्ति आदि के शास्त्रों के विलक्षण मनीषी थे और उन्होंने निष्णातता को कभी भी चौराहों और मंचों पर प्रदर्शित नहीं किया और न वैदिक संहिताओं, कल्पसूत्रों तथा समस्त आंगिक साहित्य और उपनिषदों के मर्मवेदी विद्वान होकर उन्होंने अपनी बैदुषी या गंभीर स्वाध्याय से किसी को चमत्कृत करने की ही चेष्टा की।

जब अछूत के घर ब्राह्मणों को भेजा…

स्वामीजी महाराज जैसे विरल सच्चे साधक तन्त्र का कोरा उपदेश नहीं देते। वे तन्त्र को सहज शुद्ध रूप में जीते थे। स्वामीजी महाराज पर माँ पीताम्बरा की असीम कृपा थी, नहीं तो ऐसी शक्ति, ऐसी तितिक्षा और ऐसी करुणा उनमें नहीं आती। माँ की ममता और वात्सल्य स्वामीजी के स्वभाव में रंज गया था। हरेक आगंतुक निरांतक, निर्भय होकर आश्वस्त भाव से उनके पास बैठ जाता था। स्वामीजी महाराज करुणा के सागर थे। वे माँ के भाव से दीन दु:खी के कष्ट दूर करते थे। स्वामीजी महाराज कभी भी यह नहीं कहते थे कि ‘जाओ, तुम्हारा काम हो जायगा, अपितु वे कहते थे, जाओ, माई (माँ पीताम्बरा) से कह दो।’ उचित पात्र होता तो मंत्र देकर जप की आज्ञा देते थे, किन्तु कभी भी कार्य पूर्ण होने का श्रेय अपने पर नहीं लेते थे। महाराज के स्थान पर आने वाला हर भक्त-दर्शनार्थी उनकी दृष्टि में एक-सा ही था, न कोई राजा न कोई रंक। वे सेवक-साधकों की प्रतिष्ठा का बहुत ध्यान रखते थे। यहाँ जात-पात को कोई भेद नहीं थे। मन की पवित्रता स्वामीजी को बहुत प्रिय थी। वो अन्तर्यामी थे। सेवकों और साधकों को वे बहुत सरलता से शिक्षा दे देते थे। आश्रम में एक सेवक नित्य सेवा कर सभी अलग दूर बैठ जाता था। एक दिन सभी के सामने स्वामीजी ने पूछा, “तुम दूर क्यों बैठते हो, सब आसपास बैठे हैं, तुम भी यहीं बैठो।” उस सेवक ने उत्तर दिया, “स्वामीजी, मैं अछूत जो हूँ”। स्वामीजी ने कहा, “कहीं लिखा है क्या तुम्हारे ऊपर”। स्वामीजी ने उसे भी मंत्र दिया और जब उस सेवक के घर बेटी का विवाह तय हुआ तो स्वामीजी ने सभी साधकों और पण्डितों को उनके घर विवाहोत्सव में जाने को कहा, “भाई! ये सेवक तुम्हारा गुरु भाई है, तुम उसके घर जाओगे तो उसकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी।” आश्रम के सभी गुरुभाई गए, मेरे पतिदेव भी साथ में थे। इस प्रकार स्वामीजी ने अपने सेवक का मान बढ़ाया। स्वामीजी महाराज के पास बैठने से ऐसा नहीं लगता था, कि किसी अलौकिक विभूति के पास बैठे हैं, ऐसी अनुभूति होती थी जैसे कि माँ की गोद में बैठे हों।

चीन युद्ध में माँ धूमावती ने की राष्ट्र रक्षा…

स्वामीजी की संपूर्ण चेतना मानव हित में में थी, वे राष्ट्रहित का भी बहुत ध्यान रखते थे। सन् 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया, तो स्वामीजी उससे बहुत चिन्तित हुए। उन्होंने अपने एक शिष्य वैद्य रामनारायण शर्मा (बैद्यनाथ आयुर्वेद वाले) से कहा, “बड़े बलिदानों के बाद हमारा देश स्वतंत्र हुआ है, पर ये दस्यु आक्रमण करके देश को फिर से गुलाम बनाना चाहते हैं। ये दस्युगण हमारे आर्यधर्म को समूल नष्ट कर देंगे।” वैद्यजी ने महाराज से प्रार्थना कर पूछा, “ महाराज इसका कोई उपाय किया जा सकता है?” स्वामीजी ने कहा, हम शस्त्र लेकर लड़ तो नहीं सकते, पर जगदम्बा से प्रार्थनारुप अनुष्ठान अवश्य कर सकते हैं। इसके लिए 100 ऐसे पण्डितों की आवश्यकता होग जो नित्य श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करते हों, किन्तु अपने भजन का विक्रय न करते हों और वे शक्तिमंत्र से दीक्षित हों। पूरे देश में खोज करने के बाद मानकों पर खरे उतरने वाले 85 पण्डित जुड़ सके। अनुष्ठान के समय स्वामीजी ने अपने शक्ति का उपयोग किया, वे रात-रात भर खड़े रहते थे।

माँ पीताम्बरा की पूजा में सम्मिलित पुजारी गोपालदासजी को महाराजजी ने आदेश दिया कि दीपक के सामने स्थित धूमावती माई के चित्र से जो अनुभव अथवा मूक भाषण सुनाई दे, वह तुरंत ही आकर मुझे बताना। भगवती धूमावती से कई निर्देश मिलते रहे। स्वामीजी उन संकेतों को समझकर जप संख्या निश्चित करते थे। गोपालदास जी को जप के इक्कीसवें दिन अनुभव हुआ कि भगवती जगदम्बा उनका हाथ पकड़कर कह रही हैं, कि मेरे साथ मोटर पर बैठकर चीन चलो। तब गोपालदासजी ने कहा मैं तो जप अनुष्ठान पर बैठा हूँ, उसे छोड़कर कैसे चल सकता हूँ? आप अकेली चलीं जायँ। यह अनुभव गोपालदासजी ने स्वामीजी को तुरंत जाकर बताया। महाराजजी ने कहा, तुमने गलती कर दी, तुम्हें माँ के साथ चले जाना था। खैर! अब हमको जाना पड़ेगा। तभी जप करते हुए स्वामीजी को अनुभव हुआ कि कि जगज्जननी जगदम्बा कार के बोनट पर खड़ी होकर हाथ में हन्टर लेकर चीनी सेना पर प्रहार कर रही हैं। चीनी सेना में भगदड़ मच गई, कुछ सैनिक यमपुरवासी हो रहे हैं और कुछ प्राणरक्षा हेतु भाग रहे हैं। अनुष्ठान की पूर्णाहुति होते ही चीन ने हथियार डाल दिए। भगवती पीताम्बरा माई और माँ धूमावती की महती कृपा से यह अनुष्ठान सफल हुआ। अनुष्ठान काल में न कोई साधक आश्रम से बाहर गया, न कोई व्यक्ति आश्रम में प्रवेश कर सका और न ही किसी से अनुष्ठान के लिए सहयोग राशि ली गई। इतना गुप्त अनुष्ठान होने पर भी बम्बई के इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में सचित्र पूरे पृष्ठ पर अनुष्ठान का समाचार 6 अक्टूबर 1963 को प्रकाशित कर दिया गया। अनुष्ठान में धूमावती माई का आव्हान किया था, जिन्हें उज्जैन में भूखी माई कहते हैं। अनुष्ठान के बाद स्वामीजी माई के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए उज्जैन गये थे।

मंत्रो को जागृत कर लिया था…

भारत माता मन्दिर के संस्थापक निवर्तमान शंकराचार्य पूज्य स्वामी सत्यमित्रानन्दजी गिरी अपने प्रवचनों में स्वामीजी महाराज का उल्लेख करते थे। वे कहा करते थे, दतिया से स्वामीजी महाराज ने मंत्रों को जागृत कर लिया था। मंत्र उनकी आज्ञा मानते थे। भारत पर जब चीन ने आक्रमण किया था जब स्वामीजी ने राष्ट्ररक्षा के लिए अनुष्ठान किया था। इधर इस अनुष्ठान की पूर्णाहुति हुई और उधर चीन ने सीमाएँ छोड़कर हथियार डाल दिए। यह दैवी सम्पदा का अनुपम उदाहरण है। मंत्र आज भी उतने ही जागृत हैं, लेकिन कोई स्वामीजी जैसा दृष्टा नहीं है।

जब करपात्री जी महाराज को दिया मंत्र….

धर्म सम्राट पूज्य करपात्रीजी महाराज भी स्वामीजी से विचार-विमर्श के लिए श्रीपीताम्बरा पीठ आश्रम पर आते रहते थे। करपात्रीजी महाराज का एक मंत्र खुल नहीं रहा था, तब स्वामीजी महाराज ने उनका मंत्र खोल दिया। जगज्जननी माँ श्रीललिता त्रिपुरसुन्दरी श्रीविद्या की दीक्षा स्वामीजी ने पूज्य करपात्रीजी महाराज दी, स्वामीजी ने उनका नाम ‘षोडशानन्द नाथ’ रखा। कालान्तर में करपात्रीजी महाराज ने श्रीगोवर्धन पीठ के शंकराचार्य पूज्य स्वामी निश्चलानन्दजी को इस विद्या में दीक्षित करके उनका नाम ‘पद्म पादानन्द नाथ’ रखा। (श्री गुरुवंश पुराण- द्वितीय खण्ड, गोवर्धन मठ की परम्परानुसार, में उल्लेखित)

यह पूज्य स्वामीजी की ही अनुकम्पा है कि जब मैं अपनी पतिदेव के साथ श्रीगोवर्धन पीठ पर श्रीशंकराचार्यजी के दर्शन के लिए गई और परिचय में बताया कि हम श्रीपीताम्बरा पीठ के स्वामीजी के शिष्य हैं, तो पूज्य शंकराचार्यजी ने सस्नेह ससम्मान स्थान दिलवाया, बहुत लम्बी आध्यात्मिक चर्चा की, भोजन करवाया और श्रीविद्या के पूजा स्थान के समक्ष जप करने की अनुमति प्रदान की।

जब फांसी की सजा रिहाई में बदली…

स्वामीजी महाराज की साक्षात् कृपा के अनन्त उदाहरण हैं, किन्तु स्वामीजी ने उसे कृपा को माई (माँ पीताम्बरा) की कृपा ही बताया। स्वामीजी के एक शिष्य थे, जिनसे अनजाने में गोली चल गई और सामने वाले व्यक्ति की जीवन लीला समाप्त हो गई। उस शिष्य ने स्वामीजी के सम्मुख कर घटना का जस-का-तस वर्णन कर दिया। स्वामीजी ने उन्हें कहा, “माई से सब कह दो“, और मंत्र देकर कहा “इसको जप डालो।” उनपर हत्या का मुकदमा चला। फाँसी की सजा हुई। उनके परिवारजनों ने स्वामीजी से कहा, “हमारे पिताजी को फाँसी की सजा हो गई।” स्वामीजी ने सुनकर कहा, “फाँसी नहीं, फाँसी की सजा नहीं हो सकती। देवी के भक्त को फाँसी नहीं हो सकती है।” वे शिष्य जेल में भी मंत्र जप करते रहे। एक रात उन्हें स्वामीजी का वरदहस्त दिखाई दिया। वे तो फाँसी की प्रतीक्षा कर ही रहे थे। सन् 1969 में महात्मा गाँधी की जन्म शताब्दी मनाई गई। सरकार ने इस उपलक्ष्य में फाँसी की प्रतीक्षा कर रहे कैदियों को सजामुक्त कर दिया। वे शिष्य सजा मुक्ति के बाद स्वामीजी के पास आये। स्वामीजी को प्रणाम कर डबडबाई आँखों से देखने लगे, पूज्यपाद स्वामीजी ने कहा, “हम सन्यासियों को व्यक्ति विशेष के लिए कुछ करना मना है, हम तो बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का कार्य करते हैं।” इस प्रकार स्वामीजी का हृदय द्रवित हो उठता था अपने भक्तों के लिए। इस महत्तम कार्य के लिए स्वामीजी को कितनी कठिन साधना करनी पड़ी होगी, ये तो तत्त्वज्ञानी ही जान सकते हैं। कुछेक नहीं अपितु अनेकानेक शिष्यों पर स्वामीजी की परम कृपा रही। यह कहना सत्य होगा कि वृक्ष का हर पात मूल की ही कृपा है।

हमारा पथ फौजी का पथ है…

स्वामीजी से कई धनाड्य लोगों ने कहा कि आश्रम में अच्छा-सा फर्श बिछा देगें तो किसी ने कहा कि महाराज हम भण्डारा शुरु कर देते हैं। बड़ी राशि एक बार में जमा कर देते हैं, जिसके ब्याज से हमेशा भण्डारा चलता रहेगा। स्वामीजी ने कहा, मैं इस स्थान को ऐसा नहीं बनाना चाहता कि कोई गरीब आने से डरे और भण्डारा लगाकर यहाँ निठल्लों का अखाड़ा नहीं बनाना चाहता। हमारा तो फौजी मार्ग है, जितना जप करोगे, जितनी अधिक साधना करोगे उतना ही जीवन सफल होगा।

स्वामीजी न तो राजनीति की बात करते थे न ही किसी को करने देते थे। वे केवल जप साधना और सरल जीवन को प्रधानता देते थे। वे किसी भी कार्य में राजाओं और सरकारों की कोई भी मदद लेने की मंशा नहीं रखते थे। वे कहते थे, मेरा एक डंडा और एक कमण्डल है। मैं दूसरों से किसी पदार्थ की इच्छा क्यों करूँ। यही सब त्यागकर आया हूँ।

सभी धर्मों के शिष्य थे स्वामी जी के पास,..

स्वामीजी कभी भी किसी की बुराई न करते थे, न सुनते थे। उन्होंने अपने ग्रंथ सिद्धान्त रहस्य में लिखा है, कि जो बाद हम किसी व्यक्ति के मुँह के सम्मुख कह सकते हैं, वही बात करना चाहिए, पीठ के पीछे नहीं। कभी-कभी आश्रम पर कोई भक्त कहता था, कि महाराज यह जो व्यक्ति आता है, वह बुरा है। तो महाराज डाँट कर कहते थे, चुप रहो, यह स्थान बुरे लोगों के आने के लिए ही है। स्वामीजी ने कई लोगों के प्रारब्ध से उत्पन्न हुए असाध्य रोगों का हरण करके अपने शरीर में लेकर उनके कष्ट दूर किए। स्वामीजी सभी भाषाओं के ज्ञाता थे, लेकिन संस्कृत प्रति उन्हें विशेष लगाव और सम्मान था। धर्म-आध्यात्म का कोई भी ग्रंथ ऐसा न था जिसमें से स्वामीजी रमकर न निकले हों। आवश्यकता पड़ने पर किस ग्रंथ के किस पृष्ठ पर क्या लिखा है संबंधित व्यक्ति को बता देते थे। उनके शिष्य सभी धर्मों के मानने वाले थे, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन आदि जो भी उनके सम्मुख जिज्ञासा या समस्या लेकर आता था, उसे उसी के मत का मंत्र देकर उसे तृप्त कर देते थे।

माई के साथ पुत्र जैसा जागृत संबन्ध…

स्वामीजी का माई से पुत्र जैसा जागृत ममतामयी संबंध था। वे कहते थे, कि सबके कल्याण के लिए माई को बैठा दिया है। विधि-विधान से माई की पूजा आराधना होती रहेगी तो माई एक हज़ार सालों तक यहाँ रहेंगी। यह आश्रम दैवी सम्पदा से लबलबाता रहेगा। स्वामीजी ने तीन जगज्जननी महाविद्याओं, भगवान् परशुराम और षडाम्नाय शिव की आडम्बरविहीन पीठों की स्थापना की लेकिन स्वयं छोटे-से स्थान पर ही रहे। उनके ब्रह्मलीन होने के बाद गुरुस्थान पर गुरुपीठ उनके शिष्यों ने बनवाया। इस श्रीस्वामी मंदिरम् को ‘मणिपुर धाम’ नाम से जाना जाता है।

अपने जीवन में स्वामीजी ने ढोंग-ढकोसला, आडम्बर, प्रलोभन आदि को छून नहीं दिया। स्वामीजी ने वनखण्डी के भयावह और निर्जन स्थान में किसी के द्वारा त्यागी हुई टूटू-फूटी झोपड़ी में रहकर साधना की। वर्तमान मे दैवी कृपा से गुरु स्थान सबका सहारा बना हुआ है। स्वामीजी का भव्य मन्दिर है। वहाँ नियमित शास्त्रोक्त पद्धति से पूजन होता है। सरल जीवन जीने वाला व्यक्ति या साधु-संत अपनी साधना और तपोबल से अर्जित दैवीसम्पदा से किस तरह नर से नारायण बनता है राष्ट्रगुरु स्वामीजी महाराज इसका साक्षात् प्रमाण हैं। दैवी सम्पदा को जन-जन तक पहुँचाने वाले दैवी सम्पदा की प्रतिमूर्ति सद्गुरुदेव राष्ट्रगुरु स्वामीजी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि साष्टांग प्रणाम।

(लेखिका- डॉ सुमन चौरे, भोपाल निवासरत मध्यप्रदेश की ख्यात लोक संस्कृतिविद हैं)


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