सुलझन के लिये सद्गुरु के दिखाए रास्ते पर चलो

सुलझन के लिये सद्गुरु के दिखाए रास्ते पर चलो
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एक बार एक महात्मा जी के पास एक राहगीर आया और उसने पूछा कि हे महात्मन सद्गुरु की आज्ञा का पालन कैसे करना चाहिये?

महात्मा जी बोले- बहुत समय पहले की बात है दो राज्य बिल्कुल पास-पास में थे एक राज्य बहुत बड़ा और एक राज्य छोटा था। बड़े राज्य के पास अच्छीखासी सेना थी और छोटे राज्य के पास ठीक ठाक सेना थी।

बड़े राज्य के राजा विजय प्रताप के मन मे पाप आया की क्यों न इस छोटे राज्य को अपने राज्य मे शामिल कर लिया जाए और उसने छोटे राज्य पर आक्रमण करने की तैयारी शुरू कर दी इधर छोटे राज्य के राजा धर्मराज अपने गुरुवर के पास गये। और उधर विजयप्रताप को उनके गुरू ने समझाया कि बेटा युद्ध से पहले एक बार अपना दूत वहाँ भेजकर धर्मराज जी को समझा दो कि वो आत्मसमर्पण कर दे तो बड़ी जनहानी रुक जायेगी और बिना युद्ध के आपका काम हो जायेगा और एक बात का ध्यान रखना कि वहाँ उसे भेजना जो आपके लिये सबसे अहम हो और वहाँ की पलपल की जानकारी आपको दे सके। राजा ने सोचा मेरे लिये सबसे अहम तो मैं ही हूँ, और विजयप्रताप स्वयं भेश बदलकर गये। राजा धर्मराज और राजा विजयप्रताप एक ऊँची पहाडी पर माँ काली के मन्दिर मे मिले राजा विजयप्रताप ने अपना प्रस्ताव रखा तो राजा धर्मराज ने कहा हे देव, पहले आप मेरी एक बात सुनिये फिर आप कहोगे तो मैं आपका प्रस्ताव मान लूँगा और राजा धर्मराज जी ने ताली बजाई एक सैनिक आया धर्मराज जी ने कहा- जाओ उस पहाड़ी से नीचे कूद जाओ सैनिक भागकर गया और पहाड़ी से नीचे जा कूदा फिर धर्मराज ने ताली बजाई एक सैनिक आया और राजा ने वही कहा और सैनिक पहाड़ी से नीचे जा कूदा। हे, वत्स इस तरह धर्मराज जी ने तीन बार ताली बजाई सैनिक आये और इस तरह सैनिक बिना कुछ कहे पहाड़ी से जा कूदे।

विजयप्रताप ने कहा, अरे ये कैसा पागलपन तो धर्मराज जी ने कहा, हे मित्र जब तक ऐसे स्वामी भक्त योद्धा हमारे पास है तब तक हम कभी हार स्वीकार नहीं कर सकते और राजा विजयप्रताप तत्काल उठे अपने राज्य पहुँचे और उन्होंने भी वैसा ही किया पर कोई भी पहाड़ी से न कूदा सब तर्क-कुतर्क करने लगे फिर राजा तत्काल धर्मराज जी के पास पहुँचे और उन्होंने धर्मराज जी के आगे अपना मस्तक झुका दिया। राहगीर: ऐसे स्वामी-भक्त सैनिक बड़े ही आदरणीय और दुर्लभ है।

महात्मा: हाँ वत्स, यही तो मैं ,कह रहा हूँ की जब सद्गुरु कुछ कहे तो बिना कुछ बोले उसकी पालना कर लेना बड़े लाभ में रहोगे। महात्मा जी ने आगे कहा कि ये तीन सैनिक और कोई नहीं है ये तीन तन, मन और धन जब भी सद्गुरु कुछ कहे तो रणभूमि में तन मन धन से कूद पड़ना और हे, वत्स ये कभी न भुलना कि सद्गुरु के समान कोई हितैषी नहीं है। और सद्गुरु और सच्चे सन्त से तर्क वितर्क कभी मत करना क्योंकि जो तर्क वितर्क मे उलझते हैं वो फिर उलझते ही चले जाते हैं और जो नहीं करते हंै वो सुलझ जाते हंै।

उलझन के लिये अपनी बुद्धि लगाओ और सुलझन के लिये सद्गुरु की बुद्धि से चलो अर्थात जो भी सद्गुरु कहे उसे तत्काल मान लो। और सद्गुरु वही है जो तुम्हारा तार हरि से जोड़कर हरि को आगे करके स्वयं पिछे हट जायें ऐसे सद्गुरु का आदेश परमधर्म है।

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