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यशोधरा राजे सिंधिया : यह अल्पविराम है या ... ?
श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया ने शिवपुरी को कल 'गुडबाय' कह दिया है। भारतीय राजनीति आज जिस दौर में है वहां से 'स्वैच्छिक निवृत्ति' के प्रसंग कम ही दिखाई देते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उन्हें नेतृत्व से भी संकेत थे, अगर इसमें सत्यांश है भी तो कितने राजनेता हैं जो नेतृत्व की भावना का इतनी शालीनता से पालन करते हैं? जाहिर है, उत्तर निराशाजनक ही आएगा। इस मापदंड पर श्रीमती यशोधरा राजे के निर्णय की सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने ठीक समय पर ठीक निर्णय लिया। राजनीति कोई खेल नहीं है पर इसकी अपनी एक पिच होती है।
अपने समय के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज सुनील गावस्कर ने जब क्रिकेट से संन्यास की घोषणा की, तब एक पत्रकार ने प्रश्न किया था 'अभी क्यों'? सुनील गावस्कर का उत्तर था कि मैं उस प्रश्न के इंतजार के लिए पिच पर ठहरना नहीं चाहता जब दर्शक कहें 'अभी तक क्यों नहीं'? सुनील गावस्कर के इस उत्तर के प्रकाश में आज भारतीय राजनीति के कई चेहरों को पढ़ा जाना चाहिए।
ध्यान में आएगा श्रीमती राजे ने संभावनाएं शेष रहते हुए सम्मानजनक विदाई की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। श्रीमती राजे की विदाई अगर सक्रिय राजनीति से होती है जैसे कि संकेत हैं तो मध्यप्रदेश की खासकर ग्वालियर- चंबल की राजनीति में एक स्वाभाविक रिक्तता का अनुभव किया जाएगा। कारण वे पहली बार सांसद भले ही ग्वालियर से सन् 2007 में बनीं पर वे 1990 के बाद से ही भाजपा की वरिष्ठतम नेत्री श्रीमंत राजमाता सिंधिया की राजनीतिक कर्मभूमि गुना-शिवपुरी में उनके हर कदम पर साथ रहीं। वह स्वाभाविक तौर पर श्रीमंत राजमाता की उत्तराधिकारी के रूप में देखी जाने लगीं। यद्यपि वे एक बार उप चुनाव में और फिर 2008 में फिर ग्वालियर लोकसभा से निर्वाचित हुईं, पर उनका भावनात्मक आकर्षण स्वाभाविक रूप से गुना-शिवपुरी संसदीय क्षेत्र रहा और ग्वालियर में वह अपेक्षित स्वीकार्यता बना भी नहीं पाईं। 2013 में और फिर 2018 में शिवपुरी से विधायक रहीं। प्रदेश में उनके पास वाणिज्य उद्योग तथा खेल युवा कल्याण जैसे महत्वपूर्ण विभाग भी रहे। कठोर परिश्रम एवं सोच के चलते एक मंत्री के नाते उनका प्रदर्शन औसत से काफी बेहतर रहा। भाजपा के अंदर महल के प्रति जो राजमाता के चलते स्थान था वह उतना संभालने में असफल रहीं यह भी एक सच है।
राजमाता की पुत्री होना उनका अपना एक वैशिष्ट्य था पर राजमाता की वात्सल्यता, गांभीर्य का उनमें अभाव रहा। यही नहीं अकस्मात आक्रोश का प्रकटीकरण भी उनकी स्वीकार्यता में आड़े आया। हालाँकि ऐसा भी नहीं कि उन्होंने प्रयास नहीं किया, किया पर सभी उनमें कैलाशवासी श्रीमंत राजमाता की छवि देख कर तुलना करते हैं जो स्वाभाविक रूप से किसी के लिए कठिन ही होता और यही बात उनके लिए भी असहजता पैदा करती रही। वहीं यह भी सच है कि उनके लिए राह आसान भी नहीं रही, जिसका उन्होंने संकेत भी किया। सन् 2020 में श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आ जाने के बाद कांग्रेस पूरी तरह महलविहीन हो गई। इसके पूर्व तक कांग्रेस, भाजपा में महल के अपने संतुलन का भी एक महत्व रहा है, पर श्री सिंधिया के आने के बाद श्रीमती राजे के लिए भाजपा में संभावनाएं क्षीण हुईं। ऐसे परिदृश्य में श्रीमती राजे ने यह निर्णय लिया है तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए। वह एक बेहतर प्रशासक हैं, अच्छी वक्ता हैं। उनका अपने क्षेत्र की जनता से एक 'कनेक्ट' है। ऐसे में संभव है, यह ठहराव हो। भविष्य उन्हें नए लक्ष्य के लिए गढ़ रहा हो। शुभकामनाएं। पुनश्च : क्या भाजपा के वर्तमान विधायक या मंत्री भी इसी प्रकार घोषणाएँ करेंगे या नेतृत्व ही उनके विषय में निर्णय लेगा, प्रतीक्षा करनी होगी ।