श्रीराम के शील, आचार और मर्यादा से भारतीय विवेक का निर्माण

श्रीराम के शील, आचार और मर्यादा से भारतीय विवेक का निर्माण
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- हृदयनारायण दीक्षित

भारत श्रीराममय हो गया है। यह अव्याख्येय है। दर्शन और मनोविज्ञान के सिद्धांतों से भारत के ताजा उत्साह की व्याख्या नहीं हो सकती। अयोध्या में जनसैलाब उमड़ रहा है। 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा का दिन था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व मुख्यमंत्री योगी उपस्थित थे। अयोध्या में इस कार्यक्रम के लिए निमंत्रित लगभग 7000 लोगों की उपस्थिति थी। लेकिन कार्यक्रम स्थल के अलावा भी पूरी अयोध्या राममय थी। प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में अपेक्षित लोगों की सूची में मैं भी था। इसलिए सारा कार्यक्रम निकट से देखने का अवसर मिला।

अयोध्या और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मध्य 135 किमी का फासला है। इस लम्बे मार्ग के किनारे-किनारे श्रद्धालुओं की भीड़ जय श्रीराम का नारा लगा रही थी। सबके चेहरे पर उल्लास और उत्साह। सब आनंदित और सब प्रसन्न। देश और विदेश के तमाम क्षेत्रों में भी अपने-अपने ढंग से उल्लास व्यक्त करने वालों की भीड़ आश्चर्यजनक थी। मूलभूत प्रश्न है कि यह भीड़ किसकी बनाई योजना के अनुसार अनुशासनबद्ध थी? किसने इसे प्रेरित किया? इस महाभीड़ का कारण क्या था? स्पष्ट है कि यह महाभीड़ ‘स्वतः स्फूर्त‘ थी। स्वतः स्फूर्त का अर्थ सीधा और सरल है। यहाँ कोई दूसरा व्यक्ति या संगठन प्रेरक नहीं। कोई लोभ नहीं। कोई भय नहीं। कोई आश्वासन नहीं। सब कुछ अनुभूत विवेक के अधीन अपने आप घटित हो रहा था। ऐसा स्वतः स्फूर्त वातावरण पहले कभी नहीं देखा गया।

प्राण प्रतिष्ठा समारोह के अवसर पर समूचे देश में आश्चर्यजनक उत्साह था। यह वाकई विश्लेषण और विवेचन का विषय है। इसने राम के श्रद्धालुओं को आनंद अतिरेक का खूबसूरत अवसर दिया है। मजेदार बात यह है कि इसी के बहाने छदम् सेकुलरपंथी राजनीति वाले भी अनेक महानुभाव भी वाचाल हुए। उन्होंने श्रीराम के प्रति लोक आस्था को हास्यास्पद ढंग से प्रकट किया। प्राण प्रतिष्ठा सीधी सी बात है। मूर्तियां वस्तु या पदार्थ से बनती हैं। जब तक बाजार में हैं तब तक वे वस्तु हैं। शिल्पी उन्हें तैयार करते हैं। रूप रंग भरते हैं। उनमें सौन्दर्य उत्पन्न करते हैं लेकिन हैं तो मूर्तियां ही। वैदिक परम्परा में मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा की विशेष पद्धति विकसित हुई थी। मूर्तियों में प्राण नहीं होते। इस पद्धति के आलोचक अपने ज्ञान पर प्रसन्न हो सकते हों तो हों। मूर्ति पूजा प्राण उपासना का हिस्सा है। ऋग्वेद में सूर्य को प्राण कहा गया है। वह जगत् का प्राण है ही। सविता सूर्य पृथ्वी के पोषक हैं।

श्रीराम सूर्यवंशी हैं। उनके कारण जगत् की गतिविधि चलती है। प्रश्नोपनिषद में कहते हैं, ‘‘आदित्यो ह वै प्राणो-आदित्य जगत के प्राण हैं।‘‘ छान्दोग्य उपनिषद (1.3.1) में कहते हैं, ‘‘मनुष्यों में प्राण ऊर्द्धव गान है-उद्गीथ हैं।‘‘ प्राण महत्वपूर्ण हैं। प्राण धारण करने से हम सब प्राणी हैं। पत्थर या किसी भी पदार्थ की मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा के पहले साधारण पदार्थ ही होती है। प्राण प्रतिष्ठा के अनुष्ठान में मूर्ति को निश्चित समय के लिए जल प्रवाह में रखने का विधान है। अन्न में भी प्राण होते हैं। इसलिए मूर्ति को काफी समय के लिए अन्न के भीतर रखते हैं। दूध आदि पदार्थ भी उपयोग में आते हैं। फिर मंत्र आराधन करते हैं। विश्वास करते हैं कि मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा हो रही है। प्राण प्रतिष्ठा की यह विधि सभी मूर्तियों के लिए अपनाई जाती है।

राम विरोधी तत्व मीडिया में जगह पाने के लिए हास्यास्पद और दयनीय बयानबाजी करते हैं। ऐसे ही एक नेता कहते हैं कि मुर्दों की प्राण प्रतिष्ठा क्यों नहीं की जाती? शरीर का हलचल में रहना ही प्राणवान होना नहीं है। प्राण जीवन है। भारतीय और बौद्ध परम्परा ने शरीर के बूढ़ा हो जाने पर पुनर्जन्म का सिद्धांत माना है। प्राण अव्यय और अक्षर हैं। भारतीय परम्परा के निन्दक प्राण उपासना नहीं जानते। मार्कण्डेय काटजू भारत के प्रधान न्यायाधीश रहे हैं। उन्हें पद पर रहते हुए हम भारत के लोग ‘न्यायमूर्ति‘ कहते रहे हैं। उन्होंने इस विशेषण का विरोध नहीं किया। न्याय भौतिक उपलब्धि है। श्री काटजू भी न्यायमूर्ति कहे जाते रहे हैं। कृपया वे स्पष्ट करें कि वे अभी भी न्यायमूर्ति हैं कि नहीं। अगर वे अभी भी मूर्ति हैं तो क्या उनकी मूर्ति निष्प्राण हैं? कुछ लोग कह सकते हैं कि संविधान न्यायपालिका का मार्गदर्शी है। यह सही भी है। संविधान निर्माताओं का विवेक और विनिश्चय सभी संविधाननिष्ठ भारतवासियों के लिए स्वीकार्य है।

भारत के संवैधानिक विवेक में श्रीराम की मर्यादा सम्मिलित है। संविधान बन गया था। संविधान पारण के बाद सभा अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा, ‘‘अब सदस्यों को संविधान की प्रतियों पर हस्ताक्षर करने हैं। एक हस्तलिखित अंग्रेजी की प्रति है। इस पर कलाकारों ने चित्र अंकित किए हैं। दूसरी छपी हुई अंग्रेजी की प्रति है और तीसरी हस्तलिखित हिन्दी की।‘‘ चित्रमय प्रति में मुखपृष्ठ पर श्रीराम और श्रीकृष्ण, भाग 1 में सिन्धु सभ्यता की स्मृति वाले मोहनजोदड़ो काल की मोहरों के चित्र हैं। नागरिकता वाले अंश में वैदिक काल के गुरुकुल का चित्र है। भाग 3 में मौलिक अधिकारों वाले पृष्ठ पर श्रीराम की लंका विजय का चित्र है। नीति निदेशक तत्वों वाले पृष्ठ पर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता उपदेश का चित्र है। इस चित्रावली में स्वामी महावीर, बुद्ध, अशोक, गुप्तकाल, विक्रमादित्य, नालंदा विश्वविद्यालय, ओडिशा का स्थापत्य, नटराज, गंगा अवतरण, शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, गाँधीजी की दाण्डी यात्रा, नेताजी सुभाषचन्द्र आदि के अनेक चित्र हैं। संविधान निर्माताओं ने राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर आदि के चित्र सांस्कृतिक उपयोगिता के आधार पर ही निश्चित किए गए थे। भारत का विवेक इसी परम्परा से बना है।

विवेक का विकास लोक और शास्त्र से तथ्य लेकर संभव होता है। किसी को राम काल्पनिक लगते हैं। यह उसका अपना विवेक है। तुलसीदास सजग थे। उन्होंने ऐसे लोगों के लिए रामचरितमानस में खूबसूरत चौपाई लिखी है, ‘‘जाकी रही भावना जैसी-प्रभु मूरत देखि तिन जैसी।‘‘ लेकिन अब श्रीराम और श्रीकृष्ण को काव्य कल्पना बताने वाले लज्जित हैं। खिसिया गए हैं। उनका सतही अध्ययन हास्यास्पद सिद्ध हुआ है। अयोध्या तथ्य हैं। चित्रकूट तथ्य हैं। दण्डकारण्य तथ्य हैं। गंगा, तमसा और मन्दाकिनी के प्रवाह सत्य हैं। वाल्मीकि, कम्ब व तुलसी सत्य हैं। उनके विवेक सिद्ध सत्य हैं। भारत ने अपना गणतंत्र दिवस समारोह सम्पन्न किया है।

जन गण मन में भारत का विवेक अन्तर्निहित है। भारतीय विवेक का विस्तार और निर्माण श्रीराम के शील, आचार और मर्यादा से हुआ है। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। श्रीराम इस राष्ट्र का उत्स (मूल) हैं। इसी उत्स से 22 जनवरी को स्वतः स्फूर्त उत्सव प्रकट हुआ है। इसीलिए भारत आदर्श गणतंत्र है। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने भीष्म से आदर्श गणतंत्र पूछा। भीष्म ने (शांतिपवर्ः107.14) बताया कि भेदभाव से ही गण नष्ट होते हैं। उन्हें संघबद्ध रहना चाहिए। गण के लिए बाहरी की तुलना में आतंरिक संकट बड़ा होता है-‘‘आभ्यन्तरं रक्ष्यमसा बाह्यतो भयम्‘‘ वाह्य उतना बड़ा नहीं। यह सावधानी अनिवार्य है।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं। )

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