खराब न होने दें अपनी माटी का स्वास्थ्य
- अरुण कुमार दीक्षित
हम सबके जीवन में माटी का बड़ा महत्व है। चाहे हम भारत में हों या दुनिया के किसी भी देश में हों, बात जब माटी की होगी तब भारत का ही नाम लेते हैं। अपनी माटी अपनी ही है। हमारे लोकजीवन में बार-बार माटी की बात होती है। कथित आधुनिक सोच ने मिट्टी को डस्ट और एलर्जी वाली वस्तु बताना काफी पहले शुरू किया। इससे माटी के प्रति हमारी अवधारणा भी बहुत हद तक प्रभावित हुई है।
पहले घर भी माटी के होते थे। आज भी गांवों में माटी के बहुत सारे घर हैं। यह और बात है कि आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन के कारण अब पक्के घर अधिक दिखाई देते हैं। माटी के घरों की पुताई माटी से ही होती थी। नीचे माटी, ऊपर माटी, सब तरफ माटी ही प्रयोग होती रही है। घर में गृहस्थी के नाम पर सबसे अधिक माटी के बर्तन होते थे, जिन्हें हम गगरी, घड़ा ,कलश, मटका,सुराही आदि नाम से जानते हैं। अब गांव और नगर दोनों में सुराही के पानी पर चर्चा होती है। अपने गांव में कुम्हार परिवार माटी के खिलौने, गगरी, कलश, सुराही, मटका, मटकी, दीया, दियाली के अलावा विभिन्न प्रकार माटी के उत्पादों को बनाते थे। अब परम्परा टूट गई। कुम्हार परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट है। वे उपेक्षा का शिकार हैं।
गांव में भी प्लास्टिक की टोंटी वाली बाल्टी पहुंच गई है, जिसे वाटर बैग कहते हैं। माटी के सोंधेपन से हम गांववासी सीधे जुड़े हैं। कोई एक गिलास सुराही, घड़े का पानी पिला दे तो लगता है कि हम अपना बचपन वाला पानी पी रहे हैं। जिन लोगों को माटी के कुएं ,ईंट से बने कुओं का पानी पीने का सौभाग्य मिला, वही उसकी तासीर को आत्मसात कर सकते हैं । मांगलिक कार्यक्रमों विवाह, तिलकोत्सव, (फलदान ) मुंडन ,छेदन,उपनयन संस्कार में माटी के बर्तन ही प्रयुक्त प्रयोग होते थे। मांड़ौ (मंडप) के नीचे कलश माटी का ही जल भरकर रखा जाता है। रंग-बिरंगे अक्षत लगाए जाते हैं । उसकी सतरंगी छटा हम सबने देखी है । हमें याद है, अस्सी के दशक तक मांगलिक कार्यक्रम में रसगुल्ला, जलेबी, बर्फी और कुल्फी माटी की ही तश्तरियों में ही अतिथियों को परोसी जाती थीं।
पानी पीने के लिए दिए जाने वाले पात्र को लोग हुंडा कहते हैं । लोकभाषा में इसे कुज्जा भी कहा जाता है। तब की स्थिति में उसे हम सब तालाब से आई माटी ही जानते थे। कुम्हार तालाब से माटी लाते। माटी को कूटते। पीसते। पानी डालकर चाक पर बर्तन बनाते। आवां में बर्तन पकाकर प्रयोग के लिए तैयार करते। यही बर्तन लोगों को प्रयोग के लिए देते थे। माटी के बर्तन प्रयोग के बाद फिर वापस माटी में मिल जाते। यह प्राकृतिक समन्वय था । इस पर मीटिंग और बैठकों के प्रस्ताव नहीं होते थे।
हमारे कवि मनीषियों ने बताया है कि हमारा शरीर भी माटी है । कुछ भी कर लो। लगा लो और महका लो चमेली से, जूही से, गुलाब से, पारिजात से, मगर माटी को माटी ही होना है । इसे कबीर दास ने कागद कहा। यहु संसार कागद की पुड़िया बूंद परे घुलि जाना है। अब हम अति शहरी जीवन की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं । कुम्हारों का भारी नुकसान हुआ है । उन्हें प्रजापति भी कहा जाता है। हो सकता है वह प्रजापति। दक्ष प्रजापति के वंशज हों। माटी के बर्तनों का काम आदिकाल से करते हैं । पूरी दुनिया के वैज्ञानिक मृद्भांडों से सभ्यताओं और संस्कृतियों के निष्कर्ष निकालते हैं। सिंधु घाटी और मोहनजोदड़ो में यही जांचा । राखीगढ़ी और धोलावीरा को जांचा। खुदाई से प्राप्त रथों को भी जांचा। मतलब साफ है, माटी हमारे आदि-अनादि के प्रमाण दे रही है। मगर आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्लॉस्टिक की बोतल बनाई । पहले बड़ी और अब छोटी भी उपलब्ध है।
एक बड़ा हिस्सा हमारे जीवन में प्लॉस्टिक का है। वह हमें प्रतिपल प्रभावित कर रही है। हम जिस पेन से लिख रहे हैं, इसका का भी 98 प्रतिशत भाग प्लॉस्टिक का ही है। प्लॉस्टिक ने हमें माटी से दूर किया। परंपरा को प्लास्टिक ने नष्ट किया। कुम्हारों का व्यवसाय तहस-नहस किया । सामग्री रखने के लिए आधुनिक डिब्बे हैं। कुछ डिब्बे खुलने के और बंद होने की मशीनों से युक्त हैं। मगर माटी से तो पृथक ही किया प्लॉस्टिक ने । आज हमारे कुम्हार परिवार अपनी महान परंपरा से बाहर हैं। अन्य व्यवसाय करने के लिए विवश हैं। सरकारों ने मिट्टी के लिए कुछ कुम्हारों को भूमि का पट्टा भी दिया है। मगर कुम्हारों का मिटृटी के बर्तन बनाने से पलायन नहीं रोक पाए। इससे रासायनिक कचरे को बढ़ने का संबल मिला। हालात यह है कि रासायनिक कचरे नदियों और समुद्र के जल में घुल रहे हैं । जब तक हम प्लास्टिक प्रदूषण और स्टील के बर्तनों के प्रदूषण को शरीर में पहुंचाते रहेंगे, शरीर रुग्ण रहेंगे। बीमारियां बढ़ती रहेंगी। लाखों रुपये इलाज पर खर्च होते रहेंगे।
हालात यह है कि माटी का स्वास्थ्य खराब हो रहा है। जिस तरह से हमारे अंदर प्राण है, उसी तरह से धरती में प्राणवायु है। पृथ्वी में एक विशेष गंध है। उसे सगंधा कहा गया है। वह गंध अनेक जहरीले रसायनों से खराब हुई है। खेती करने की परंपरा को काफी पहले खाद से हटाकर वैज्ञानिकों ने किसानों को उर्वरकों की ओर ध्यान आकर्षित कराया था। फिर फसलों को कीट-पतंगों से बचाने के लिए रसायनों के छिड़काव के परामर्श आकाशवाणी और अन्य समाचार माध्यमों से प्रसारित किए गए। अब कृषि वैज्ञानिक ही कह रहे हैं कि रसायनों के प्रयोग से बचें। हम कह सकते हैं कि भारत की आदिकालीन कृषि परंपरा में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की दखल कराकर क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचाया गया है । इसकी भरपाई हाल-फिलहाल होती नहीं दिख रही है।
प्राचीन साहित्य में खेती की विशद चर्चा है। हमारे ऋषियों ने कहा कि जरा भी असावधानी कृषि और पशुओं को नष्ट कर देती है। जीवन का आधारभूत तत्व पृथ्वी है। इसी पर सारे प्राणी जन्म लेते हैं। पृथ्वी ही सबको धारण करती है। इसी से उसका नाम धरा है। पृथ्वी ही सभी प्राणियों वनस्पतियों का मधु है। सभी प्राणी इस पृथ्वी के सारतत्व हैं। भूमि पर ही ऐश्वर्य है। भूमि पर ही सारे भोग हैं। यही हमारी संस्कृति है। पृथ्वी ही हमारी सीता है। पृथ्वी के अपने विविध रंग हैं। कहीं वह काली है, कहीं भूरी है तो कहीं लाल। कहीं कंकड़ीली है। भारत की संस्कृति में प्रातः काल धरती को प्रणाम करने की ऋषि परम्परा है,जिसे हम प्रणाम करते हैं। उसके प्रति श्रद्धाभाव और आदर होता है। इसलिए आइए, हम सब अपनी मातृभूमि माटी की रक्षा और उसके स्व के लिए मिलकर काम करें। जिम्मेदारी हमारी-आपकी भी है। अपनी माटी के लिए एक कदम चलें।