बैंकों के गुनहगारों पर कसे शिकंजा
- योगिता पाठक
भारत की अर्थव्यवस्था कुलांचे भर रही है। लेकिन इसका सबसे बड़ा विरोधाभास ये है कि देश के सरकारी बैंकों की हालत लगातार खस्ताहाल होती जा रही है। हाल में जारी हुए एक आकलन के मुताबिक सरकारी क्षेत्र के बैंकों की कुल गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) साढ़े ग्यारह लाख करोड़ रुपये के आंकड़े को भी पार कर गयी है। बैंक घोटालों के कारण तमाम बैंक भारी नुकसान झेलनए विवश हैं। भारतीय स्टेट बैंक से लेकर पंजाब नेशनल बैंक तक सब की बैलेंस शीट घाटा ही दर्शा रही हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अर्थव्यवस्था की मजबूती के इस दौर में बैंकों का ये हाल क्यों हो गया है।
इसी शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक का उद्घाटन करते हुए बैंकों की डूबी रकम के लिए गुनहगारों की ओर संकेत किया। हालांकि उन्होंने बैंकों की इस दयनीय स्थिति के लिए किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया, लेकिन उनके इशारों से साफ है कि यूपीए के शासनकाल में बैंकों में जमकर कर्ज घोटाला हुआ। बेहिसाब तरीके से लोगों को कर्ज बांटे गये। प्रधानमंत्री का तो यहां तक आरोप था कि एक परिवार विशेष के करीबी उद्योगपतियों को उनकी पात्रता न होने के बावजूद आंख बंद कर कर्ज दिये गये। उनके मुताबिक बैंक के अधिकारियों के पास खास लोगों की ओर से फोन जाता था और उसी फोन के बाद कर्ज के रूप में भारी राशि उद्योगपति विशेष के नाम से जारी कर दी जाती थी।
प्रधानमंत्री ने जो खुलासा किया है, उसमें कितनी सच्चाई है, इस बारे में मुकम्मल जांच के बाद ही कुछ कहा जा सकता है, लेकिन प्रधानमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठा व्यक्ति हवाई आरोप लगायेगा इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती है। वैसे भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में सरकारी बैंकों में अंधाधुंध तरीकों से कर्ज का वितरण किया गया। यह बात इस तथ्य से भी समझी जा सकती है कि आजादी के बाद के साठ-इकसठ सालों में यानी 1947 से लेकर 2008 तक सरकारी बैंकों ने कुल 18 लाख करोड़ रुपये का कर्ज वितरित किया था, लेकिन उसके बाद के छह सालों में ही यानी 2014 तक ही यह राशि बढ़कर 52 लाख करोड़ रुपये हो गयी। मतलब सिर्फ छह साल की अवधि में ही 34 लाख करोड़ रुपये के नये कर्ज जारी किये गये।
विडंबना यह है कि इस 34 लाख करोड़ रुपये के कर्ज का हीएक बड़ा हिस्सा आज एनपीए के रूप में तब्दील हो चुका है। जब भी किसी को कर्ज दिया जाता है, तो उसकी प्रक्रिया में बैंक पहले इस बात की पड़ताल करता है कि कर्ज लेने वाला पार्टी पैसे का भुगतान कर पाने में सक्षम है या नहीं। एक मामूली आदमी को भी अगर वाहन या घर के लिए कर्ज लेना होता है, तो उसे अपनी आय के संबंध में और पुनर्भुगतान क्षमता के संबंध में कई कागजातों को जमा करना पड़ता है। इसके बाद ही उसके पक्ष में कर्ज की राशि जारी होती है। ऐसे में यह राशि कुछ हजार से लेकर कुछ लाख तक हो सकती है। लेकिन यूपीए के शासनकाल के आखिरी छह वर्षों में 34 लाख करोड़ रुपये का जो कर्ज बांटा गया, उसमें दी गयी राशि कई हजार करोड़ तक की है।
हजारों करोड़ रुपये की राशि कर्ज के रूप में बैंकों ने आनन-फानन में उद्योगपतियों के पक्ष में जारी कर दिया। ऐसे में अब यह पूछा जाना चाहिए कि क्या बैंकों ने कर्ज देने की प्रक्रिया का उल्लंघन किया और अगर उन्होंने उल्लंघन किया, तो ऐसा क्यों किया? इसकी दो वजह हो सकती है। पहली वजह तो बैंकिंग सेक्टर के कुछ अधिकारियों के भ्रष्टाचार को माना जा सकता है। वहीं दूसरी वजह बैंक अधिकारियों पर पड़ने वाले राजनीतिक दबाव को भी माना जा सकता है।
हाल के दिनों में जब एनपीए का दबाव बैंकों पर बड़ा है और जवाबी कार्रवाई शुरू की गयी है तो कुछ बैंकों के आला अधिकारियों को भ्रष्टाचार के आरोप में दंडित भी किया गया है। कई अधिकारियों के खिलाफ जांच भी चल रही है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक का उद्घाटन करते हुए जो संकेत दिया है, वह बैंक अधिकारियों पर पड़ने वाले राजनीतिक दबाव की ओर ही संकेत करता है। यह एक तथ्य है कि एनपीए के संबंध में यूपीए सरकार लगातार देश के सामने झूठे आंकड़े पेश करती रही थी। 2014 तक एनपीए को महज ढ़ाई लाख करोड़ ही बताया गया था। जबकि एनपीए का वास्तविक आंकड़ा 9 लाख करोड़ के आसपास था। ब्याज को शामिल करके आज की तिथि में यह आंकड़ा 11.5 लाख करोड़ तक पहुंच गया है। इसमें से 12 डिफॉल्टर तो ऐसे हैं जिनके ऊपर लगभग पौने तीन लाख करोड़ रुपये का कर्ज बकाया है। वहीं 27 बकायेदार ऐसे हैं, जिनके ऊपर बैंकों का एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज बकाया है। ये सारे कर्ज यूपीए शासनकाल में ही दिये गये थे।
हालांकि कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी के आरोपों से इनकार कर रही है और उसका कहना है कि यूपीए के शासनकाल में कर्ज लेने वाले सारे उद्योगपति समय से कर्ज और उसके ब्याज का भुगतान कर रहे थे, लेकिन मौजूदा एनडीए सरकार की नीतियों के कारण देश में उद्योग-धंधे ठप हो गये हैं। इस कारण अधिकांश उद्योगपति अपने कर्ज का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं और इसी वजह से उनका कर्ज एनपीए के रूप में तब्दील हो गया है। लेकिन यदि विकास दर के आंकड़ों को देखा जाये तो साफ पता चल जाता है कि कांग्रेस थोथी बयानबाजी करके अपनी गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है। विकास दर के आंकड़ों से स्पष्ट है कि औद्योगिक क्षेत्र में लगातार विकास हो रहा है और जीडीपी विकास दर की उछाल में इसका अहम योगदान है। अगर कांग्रेस के आरोपों के मुताबिक उद्योग-धंधे ठप हो गये होते तो विकास दर में इसकी स्पष्ट झलक नजर नहीं आती।
ये सब होने के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी सरकार पर अब ऐसे बकाएदारों के खिलाफ कदम उठाने की बड़ी जिम्मेदारी बन गयी है। जिससे बैंकों की डूबी हुई रकम की वसूली हो सके। इसके साथ ही जिन नामदारों की ओर प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में संकेत किया है, उनके नामों को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए। ऐसे लोगों का नाम सामने आना ही चाहिए, जो बैंकों की बर्बादी के लिए जिम्मेदार हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने बैंकों का कर्ज हड़पने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई शुरू कर दी है। इस कार्रवाई का ही परिणाम है कि पिछले एक साल के दौरान ही एनपीए मानी जा चुकी राशि में से लगभग 87,000 करोड़ रुपये बैंकों के पास वापस आ गये हैं। संशोधित दिवालिया कानून की वजह से भी बैंकों का कर्ज लेकर दबा जाने वाले लोग अब पैसा लौटाने के लिए सामने आने लगे हैं।
परेशानी ये है कि कर्ज वापसी की यह गति अभी भी धीमी है और इसी की वजह से अभी तक एनपीए की रिकवरी के मामले में अपेक्षित नतीजे सामने नहीं आ सके हैं। इसकी एक बड़ी वजह नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल के कामकाज की धीमी रफ्तार भी है। ट्रिब्यूनल के पास पिछले साल जितने भी कंपनियों का मामला भेजा गया, उसमें से अभी तक सिर्फ एक ही मामले का निपटारा हो सकता है। जब तक इस काम में तेजी नहीं लायी जायेगी, तब तक बैंकों का पैसा हड़पने वाली कंपनियां सीधे रास्ते पर नहीं आयेंगी।
केंद्र की मौजूदा सरकार को एनपीए के नाम पर डूबे पैसे की वसूली करने के काम को तेज करना ही होगा, तभी बैंकों का डूबा हुआ पैसा निकल सकेगा। देश की अर्थव्यवस्था की सेहत के लिहाज से भी यह जरूरी है। इसके साथ ही सरकारी बैंकों के प्रति भरोसा बनाने के लिए भी ऐसा कदम उठाना आवश्यक है। बैंकों के भारी भरकम एनपीए और लगातार हो रहे नुकसान की खबरों की वजह से उनके प्रति आम लोगों में विश्वसनीयता घटी है। ये स्थिति सरकारी बैंकों के साथ ही देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरनाक है। बैंकों को घाटे से निकालना जरूरी भी है और समय की मांग भी है। यह काम जितना जल्दी हो सके, उतना जल्दी किया जाना चाहिए।
(लेखिका वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार और द फाइनेंशियल एक्सप्रेस की पूर्व एसोसिएट एडिटर हैं)