पुराने चंदन की महकती खुशबू
श्री रमेश पतंगे का अमृत महोत्सव वर्ष विवेक परिवार की ओर से मनाया जा रहा है। इस निमित्त प्रकाशित होने वाले ग्रंथ में मुझे उन पर एक लेख लिखना है, ऐसा जब बताया गया तब मैं असमंजस में पड़ गया। जब कोई व्यक्ति हमारे बहुत पास होती है, तब उसकी केवल अनुभूति होती है। उस व्यक्ति के संबंध में कुछ लिखने के संदर्भ में कभी विचार ही नहीं किया होता। जब मेरे मन ने निश्चय कर लिया कि लेख लिखना ही है तब मन में पहला प्रश्न उठा कि, "मैं केवल अपनी शर्तों पर ही जिऊंगा" ऐसा कहने वाले रमेश पतंगे यशस्वी कैसे हुए? उनके संपूर्ण जीवन कीओर दृष्टिक्षेप डालने से ध्यान में आता है कि संसार द्वारा अपनी शर्त स्वीकार करने के पूर्व हमें संसार को स्वीकारना होगा। दूसरों को तड़पाने वाले जो विषय होते हैं उन तक पहुंच कर हमें अपने आप को सिद्ध करना होगा। तभी ये बातें समाज मन में अपनी पैठ बनाती हैं एवं फिर संसार हमें हमारी शर्तों सहित स्वीकार करता है। रमेश पतंगे जी के संपूर्ण जीवन की ओर जब मैं देखता हूं, तब मुझे ऐसा ही कुछ अनुभव होता है। विवेक में कार्य करते समय मैं ऐसे कई लोगों के संपर्क में आया जो जबरदस्त ज्ञान साधक, कला साधक, ज्ञानवान, कर्तृत्ववान,थे। अधिक लोगों ने मुझे भावनात्मक प्रेम दिया। उनके बारे में विचार करते समय मन में कृतज्ञता का भाव सहज रहता है। परंतु वास्तव में मेरा प्रयास एक परिपूर्ण व्यक्तित्व की खोज में रहता है। जब मैं इस संदर्भ में विचार करता हूं, तब श्री रमेश पतंगे जी का व्यक्तित्व मेरी आंखों के सामने आता है।
यद्यपि रमेश पतंगे आज अखिल भारतीय स्तर पर मान्यता प्राप्त व्यक्तित्व है फिर भी उनके बारे में मैं अपने बाल्यकाल से सुनता आया हूं। वे मूलतः अंधेरी (मुंबई)के संघ स्वयंसेवक और मैं भी अंधेरी का ही स्वयंसेवक। इसके कारण उनका प्रवास शाखा में होता ही था।संघ शाखा में उनके द्वारा बताई गई बातों से अनजाने में ही मन संस्कारित होता गया। 1989 के दौरान मैं विवेक कार्यालय में कार्य हेतु जाने लगा। साप्ताहिक विवेक के कामों के निमित्त उनके साथ सहभागी होने का संयोग प्राप्त होता रहा। उनके साथ सैकड़ों बार प्रवास के प्रसंग आए। रमेश जी के साथ किसी विषय पर बात करना, उस विषय पर उनके विचार सुनना, यह एक देव दुर्लभ योग होता था। उनकी बातों में केवल विवेक का विषय ही ना होकर, राजनीति, विविध साहित्य उनके व्यक्तिगत जीवन में आए हुए सुख-दुख के क्षण, राजनीतिक घटनाओं का गूढार्थ ऐसे विविध विषय होते थे। उनकी बातों से या उनके अनुभवों की परिपूर्णता से अनजाने में मेरे जीवन को एक सकारात्मक दिशा प्राप्त हुई है।
कार्यालय एवं कार्यालय के बाहर स्वयंसेवकों के बीच कि रमेश जी की पहचान कम बोलने वाले एवं केवल मुद्दे पर बोलने वाले की थी। वह पहचान आज भी वैसी ही है। परंतु मेरा अनुभव इससे कई गुना अलग है।मैं जब उनसे गप शप करता था तब उन बातों में शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय संगीत की बारीकियां, शास्त्रीय संगीत के विविध गायक और विविध गायकों की गायकी की विशेषता, इन सब की भरमार होती थी। कभी-कभी यह सब बताते हुए वे इतने तल्लीन हो जाते थे कि वे स्वयं ही गाने लगते।श्री रमेश पतंगे को गाते हुए देखने का आनंद भी कुछ और ही था। किसी विषय पर धाराप्रवाह बातचीत करते हुए भी वे कभी-कभी शास्त्रीय संगीत के प्रदेश में प्रवेश कर जाते थे और शास्त्रीय गायक के बल स्थान वे संक्षेप में समझाते थे। छंद, मात्रा, ख्याल और उनकी बारीकियों से वे पूर्णत: अवगत हैं। संघ प्रचारक के जीवन के विविध अनुभव, प्रचारकों से संपर्क इत्यादि सब विषद करके बताते समय यही लगता है कि वास्तव में इन सब का वे भरा- पूरा खजाना ही हैं।
अभी कुछ दिन पूर्व कोरोना संसर्ग एवम विवेक की आर्थिक स्थिति इस विषय पर गंभीर बैठक चल रही थी। बैठक का वातावरण गंभीर था। रमेश जी स्वयं भी अत्यंत गंभीरता से बैठक ले रहे थे। इस बैठक में कहीं से शास्त्रीय संगीत यह विषय आया। उस समय एक शास्त्रीय गायक की चीज प्रस्तुत करने की शैली बताते समय, सारा गंभीर वातावरण भूल कर, मुक्त रूप से शास्त्रीय संगीत गाते हुए हमने पतंगे जी को देखा है। और, तब यह ध्यान में आया कि राष्ट्रीय, सामाजिक इ.विषयों पर गंभीरता से चिंतन करने वाला व्यक्ति कितना भावुक है। पतंगे जी के अंतर्मन में विवेक के उत्कर्ष की तड़प हमेशा प्रज्वलित रहती होगी। इसलिए जब जब भी विवेक के उत्कर्ष का विचार आता है तब तब गंभीर होना यह उनका तात्कालिक रूप हो सकता है परंतु उसमें दाहकता नहीं होती। कोरोना कालखंड में एक भी कर्मचारी विवेक से नहीं निकाला गया। विवेक का सारा स्वरूप पुनः पहले के समान व्यवस्थित हो गया। कोरोना के प्रारंभ में प्रखर लगने वाले रमेश पतंगे जी की दाहकता सच्चे अर्थों में विवेक समूह को शीतलता प्रदान करने वाली थी।
उनके भावुक मन के अनुभव मैंने कई बार प्राप्त किए। सामाजिक समरसता के माध्यम से महाराष्ट्र के स्तर पर एक अभियान चलाने तथा इस अभियान को अखिल भारतीय स्तर पर पहुंचाने में उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है, यह सब हम सब जानते ही हैं। परंतु प्रत्यक्षतः मंच से भाषण देने वाला व्यक्ति या साहित्य लेखन करने वाला व्यक्ति सामाजिक समरसता का आविष्कारक हो सकता है क्या? संभवत: 'नहीं' यह उत्तर भी हो सकता है। परंतु रमेश पतंगे जी का व्यक्तित्व ठीक उसके उलट है। उनके साथ यात्रा करते समय प्राप्त अनुभव अत्यंत विलक्षण है। एक बार इंद्राणी एक्सप्रेस से हम लोग पुणे से मुंबई आ रहे थे। जनवरी का महीना होने के कारण ठंड भी थी। ट्रेन की बोगी में एक चाय वाला चाय की बिक्री करते हुए घूम रहा था। पतंगे जी ने उसे बुलाया।स्वतः के लिए और मेरे लिए इस प्रकार दो चाय ली। पैसे देते समय उन्होंने अपनी यात्रा बैग खोली और उसमें से शॉल निकाली। उन्हें वह शाल उसी दिन सुबह एक सम्मान समारोह में प्राप्त हुई थी। वह शाल उन्होंने उस चाय वाले को ओढ़ा दी और कहा, 'ठंड बहुत है, स्वत: की चिंता करो।' यह अनुभव मुझ पर बहुत बड़ा परिणाम करने वाला था। अचानक मिला अपनत्व उस चाय वाले के मुख पर भी प्रकट हो रहा था। इस प्रकार के कई अनुभव उनके साथ प्रवास के दौरान मैंने प्राप्त किए हैं। एक बार यवतमाल जाते समय हमारी गाड़ी एक पगडंडी से जा रही थी। रास्ते में आदिवासियों के गांव थे। एक मोड़ पर पतंगे जी ने गाड़ी पीछे लेने को कहा। मैं थोड़ा अचरज में पड़ गया। गति में जाती कार को अचानक पीछे लेने क्यों कहा? वहां जाने पर पतंगे जी गाड़ी से उतरे। अत्यंत जर्जर वस्त्र पहने हुए एक आदिवासी वयस्क स्त्री वहां इमली, करौंदा इस प्रकार जंगल में पैदा होने वाली वस्तुयें (मराठी में इसे 'गावरान मेवा' अर्थात गांव का मेवा) बेच रही थी। पतंगे जी ने उससे वह ₹100 में गावरान मेवा खरीदा। वास्तव में मैंने रमेश जी को पहले कभी इस प्रकार के पदार्थ खाते हुए नहीं देखा था। इसलिए मेरे मन में प्रश्न उठा कि फिर यह प्रयोग क्यों? वस्तुएं खरीदकर वे कार में बैठे और मुझसे बोले "अरे अमोल, समाज के इस वर्ग से कुछ कुछ लेना चाहिए। उनकी आवश्यकतायें बहुत कम होती है। शायद हमारी इस कृति से उन्हें एक समय का भोजन मिल जाता होगा। उन्हें थोड़ी मदद भी हो जाती है।" यह जब मैं सुन रहा था उस समय मेरी आंखें अनजाने में भरआई ।पतंगे जी के मन में भी समाज के इस दलित वर्ग के विषय में यह जो सहानुभूति है वह शायद उनके द्वारा बचपन में अनुभव किए गए जीवन से आई होगी। संघ संस्कारों से उसमें प्रत्यक्ष कृति का साथ मिला ऐसा मुझे लगता है।
जब वे अपने बचपन की यादें सुनाते थे तब ऐसा लगता था कि शायद उनका बचपन बहुत गरीबी में बीता है। उसके कारण और उससे प्राप्त विषमता के कारण समाज का दुख उन्होंने बहुत पास से देखा है। बचपन में अनुभवित इस सामाजिक- आर्थिक विषमता को उन्होंने केवल अपने साहित्य का विषय ही नहीं बनाया तो उसे दूर करने में भी क्या प्रयत्न कर सकते हैं, इसका विचार भी उन्होंने सतत किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामाजिक समरसता इस विषय में या 'यमगरवाड़ी' में स्थापित घुमंतु जातियों के प्रकल्प के लिए उनका योगदान उनकी इसी तडप की देन है ऐसा मुझे लगता है।
पतंगे जी की छोटी पुत्री के विवाह का स्वागत समारोह शाम को आयोजित था। उस रिसेप्शन में आया हुआ एक व्यक्ति मेरे सामने आ खड़ा हुआ। सफारी पहने उस व्यक्ति ने मुझे पूछा, 'पेडणेकर, मुझे पहचाना क्या? मुझे भी वह व्यक्ति पहचानी सी लगी परंतु तुरंत नहीं पहचान पाया। परंतु तत्काल मुझे ध्यान आया कि यह तो विवेक के प्रभादेवी कार्यालय के पास छोटी सी गुमटी लगाकर काम करने वाला चर्मकार है। पतंगे जी की पुत्री की शादी में वह अत्यंत आनंद तथा सहजता से घूम फिर रहा था। जिस शादी में संघ के सरसंघचालक माननीय सुदर्शन जी, भाजपा के श्री गोपीनाथ मुंडे जी उपस्थित थे, उन्हीं के पीछे यह चर्मकार भी खड़ा था। पतंगे जी ने उस चर्मकार का परिचय माननीय सुदर्शन जी से कराया। उस शादी के बाद जब वह चर्मकार मुझे मिला तब उसने मुझे बताया कि उसके जीवन का सबसे आनंददायक, गौरवपूर्ण क्षण यदि कोई होगा तो वह था श्री पतंगे जी द्वारा उसे दिया गया शादी का निमंत्रण! साहित्य में समरसता का बखान कर वह व्यवहार में कितनी उतरती है यह तो मैं नहीं कह सकता परंतु जीवन में आपके द्वारा किए गए यह छोटे-छोटे कार्य, यह सहज कृति, आपके संस्कार होते हैं। यह समाज मन पर बहुत परिणाम कारक होते हैं। किसी के जीवन पर बड़ी भारी किताब लिखने की अपेक्षा जीवन का इस प्रकार का कोई क्षण यह बताता है कि उस व्यक्ति का जीवन कैसा है? उसका जीवन किस प्रकार संस्कारित है? उसके जीवन के संस्कारों का समाज पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है। श्री रमेश पतंगे जी की प्रतिबद्धता केवल शाब्दिक एवं साहित्यिक न होकर उसको कृति में उतारने वाली है। सामाजिक समरसता के माध्यम से बंधुता, समानता, निर्माण होनी चाहिए यह उनकी इच्छा है। इसके लिए देश में समाजिक समरसता का भाव लोगों के हृदय तक पहुंचना चाहिए। इस अभियान को गति देने का काम श्री रमेश पतंगे जी ने किया है।
मैं उस समय विवेक का आर्थिक विभाग देखता था। आर्थिक विषय हमेशा ही अग्र क्रम पर रहता था। बार-बार लोगों के पास विज्ञापन और पैसा मांगने जाते हुए मन उचाट हो जाता था। एक बार पतंगे जी से चर्चा के दौरान मैंने अपनी यह मनोव्यथा उनके सामने प्रकट की। तब उन्होंने कहा, "अमोल, वीणा की तार जब तक पूरी तरह नहीं तानी जाती, तब तक उसमें से झंकार नहीं सुनी जा सकती। विवेक रूपी वीणा की झंकार यदि हमें सुननी है तो प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर हमें इस वीणा के तारों को तानना होगा।" मेरे मन की अस्वस्थता इस एक वाक्य से नष्ट करने वाले श्री रमेश पतंगे मेरे लिए एक अलौकिक व्यक्तित्व है। आज विवेक सप्ताहिक का विवेक परिवार में रूपांतरण जब देखता हूं तो उनके उपरोक्त वाक्य की सार्थकता ध्यान में आती है। तत्काल किसी के मन के प्रश्न को समझने वाले और उसका त्वरित निराकरण करने वाले रमेश पतंगे मुझे हर जगह अनुभव में आए। उनके द्वारा लिखे गए लेखों, पुस्तकों या व्याख्यान में द्वारा रखे गए किसी विषय को महाराष्ट्र एवं महाराष्ट्र के बाहर इतना प्रत्युत्तर कैसे मिलता है या उसकी गूंज इतनी कैसे होती है? इसका उत्तर यदि खोजने का प्रयास किया जाए तो जान पड़ता है कि इन सब का सामर्थ्य केवल उनके शब्दों में ही नहीं है तो उन शब्दों के पीछे उनका जीवन है। उनके द्वारा अनुभवित जीवन जब सत्य स्वरूप में शब्द बद्ध होकर समाज के सामने आता है तब मुझे लगता हैकि यह समाज सहज रूप में उसका स्वीकार करता है। बहुत अधिक सजी संवरी एवं सलीकेदार भाषा का समाज मन पर सच्चे अर्थों में परिणाम नहीं होता। जानकार उसका स्वीकार कभी नहीं करते। रमेश पतंगे जी के बारे में ऐसा अनुभव कभी नहीं आया। उनके शब्दों का सामर्थ्य 'राष्ट्रहित' इस उद्देश्य के पूरक ही हैं। वे इतने प्रभावशाली, समाज मान्य साहित्यिक एवं पत्रकार होते हुए भी नैतिकता का बहुत बड़ा आडंबर उन्होंने समाज के सामने नहीं किया। इसके कारण जो हो रहा है वह अपनी गति एवं लय से अपने आप हो रहा है। मीसा बंदी के रूप में उन्होंने आपातकाल में जेल की यातनाएं सही। संघ विचारों से प्रभावित,आचरित रमेश पतंगे जी का जीवन आपातकाल के जेल जीवन में बदला और अधिक आलोकित हुआ। उनके जीवन को एक नई दिशा प्राप्त हुई। संघ विचारों का ध्येय मिला और उस ध्येय की प्राप्ति की ओर उनके कदम बढ़ चले। सत्य और प्रामाणिकता की एक नीति पर वे चले और चल रहे हैं। इसके कारण वे बुद्धि को प्रधानता देने वाले हैं। प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कस कर ही उनके मत और विचार निर्माण होते हैं।
जब-जब सप्ताहिक विवेक पर आर्थिक संकट आया तब तब विवेक को इस आर्थिक संकट से बाहर निकालने में श्री पतंगे जी का योगदान रहा है। कोरोना कालखंड में विवेक के सामने जीवन मरण का प्रसंग था। उन्होंने संपूर्ण हुए टीम को एकत्रित कर जिस पद्धति से प्रत्येक कर्मचारी की उर्जा का आव्हान किया उससे सप्ताहिक विवेक का वास्तविक रूप निखर कर सामने आया। पूरी टीम में चेतना निर्माण करने में श्री पतंगे का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। विवेक उनका यह योगदान एवं लगन कभी नहीं भूलेगा। साप्ताहिक विवेक यह फ्लेग शिप है और यह फ्लैगशिप नेतृत्व करते हुए दिखना चाहिए। वह कभी विचलित नहीं होना चाहिए और उसके लिए रमेश पतंगेजी को उम्र के75वे पड़ाव पर भी प्रयत्न करते हुए देखना अच्छे अच्छे लोगों को भी विचार प्रवृत्त करने वाला है।
साहित्य, वक्तृत्व, व्यवस्थापकीय कौशल्य, भविष्य की ओर देखने की दूरदृष्टि, संघ विचारधारा में दिए गए नए विचार, इन सब का यदि विचार किया जाए तो हम कह सकते हैं कि विविध मोर्चों पर महत्वपूर्ण योगदान देने वाले रमेश पतंगे एक व्यक्ति ना होकर संस्था हैं। संघर्षपूर्ण जीवन में भी उन्होंने अपनी रुचि के काम कभी नहीं छोड़े। उत्तम दर्जे का शास्त्रीय संगीत सुनना, वैश्विक दर्जा प्राप्त पुस्तकें पढ़ना, रोज सुबह व्यायाम करना, पूरे देश का सतत प्रवास करना, अलग-अलग मंचों से विविध विषयों पर अपने विचार प्रकट करना, विविध विषयों पर समाचार पत्रों एवं नियतकालिकों में सतत लेखन, संघ विषय पर विविध पुस्तकें, संविधान इस विषय पर 3 पुस्तकों का प्रकाशन, विवेक प्रकाशित संघ विषयक विविध ग्रंथ ये सब भविष्य में ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में जाने जाएंगे। इतना सब देखने के बाद मन में विचार आता है कि इतना सब करते हुए इस व्यक्ति को क्या सांस लेने का समय भी मिलता होगा? इतना सब करके अपनी वैचारिक भूमिका निश्चित करने का काम वे कैसे करते हैं? किसी मानस तज्ञ या अभ्यासु प्रवृत्ति के व्यक्ति को भी अचरज में डालने वाला श्री पतंगे जी का व्यक्तित्व है। परंतु इन सब का एक ही उत्तर है और वह याने विश्व को पहचानने की उनकी जिज्ञासा एवं उसका प्रगटीकरण अर्थात उनका कर्तृत्व।
नए लेखकों के लिए वे हमेशा मार्गदर्शक की भूमिका में होते हैं। नए लेखक उन्हें अपना आधार मानते हैं। अच्छे- बुरे लेखक की सूक्ष्म पहचान उनमें है। लेखन में शब्दों का कितना महत्व है? वे शब्द पाठकों तक कैसे पहुंचाना है? लेख या संपादकीय लिखते समय उसका फोकस कहां होना चाहिए? इन बातों का मर्म नये लेखकों की समझ में आना चाहिए। इस बात की तड़प हमेशा उनके मन में रहती है। उनकी इसी तडप में से रविंद्र गोले, दीपक जेवने, योगिता सालवी,मैं स्वयं और अनेक लेखक अनजाने में बनते चले गए। साप्ताहिक विवेक के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव उन्होंने देखे। उसमें से विवेक को सुस्थिति में लाने के लिए उन्होंने अपना सर्वतोपरि योगदान दिया। सामान्यत: अतर्क्य लगने वाले क्रांतिकारी निर्णय उन्होंने अनेक बार लिए। विवेक में आज जो ग्रंथ प्रकाशन की परंपरा है, विविध विशेषांकों की मालिका है, उसका प्रेरणास्थान रमेश पतंगे ही हैं। परंतु यह सब करते हुए भी उन्होंने अपने सहयोगियों को उतनी स्वतंत्रता भी दी। उन्होंने अपने विचार कभी दूसरों पर थोपे नहीं। उन्हें यदि किसी बात की चिंता होती तो वे सलाह अवश्य देते थे। परंतु कभी भी किसी को काम करने से नहीं रोका। लीक से हटकर काम करने को अनेकों को प्रवृत्त किया।
वर्तमान काल में हम संचार एवं तकनीकी युग में जी रहे हैं। इस काल में होने वाले बदल बुद्धि को स्तिमित करने वाले हैं। हम कहां जा रहे हैं, कल के लक्ष्य क्या हैं, यह निश्चित पता न होना अंधेरे कुएं में कूदने जैसा है। व्यवस्था में गड़बड़ी निर्माण करने वाला है। उसे टालने के लिए भावी परिवर्तनों की दिशा, उनके प्रवाह पहले समझना आवश्यक होता है। पतंगे जी ने अपने संपूर्ण जीवन में यही काम किया है।उनके अनुसार परिवर्तन यह जीवन का अंग है। आज उम्र के 75 वें पड़ाव पर भी वे इसी गतिमान पद्धति से जीवन को समझ रहे हैं। जो उन्हें महसूस हो रहा है वह अन्यों को समझा रहे हैं। कल कैसा होगा? आगे क्या घटित हो सकता है? इसका ब्योरा जब वे रखते हैं और कुछ काल बाद हम जब पीछे मुड़कर देखते हैं, तो वह वैसा ही घटित हुआ नजर आता है। मैंने अनेक बार यह अनुभव किया है। ऐसे व्यक्तियों को हमारे यहां ज्योतिषी कहा जाता है।श्री पतंगे भविष्य नहीं बताते वरन वे भविष्य की संभावनाएं बताते हैं। इस अर्थ में उनके द्वारा प्रस्तुत अनेक संभावनाएं मैंने सच होते देखी हैं।
आज उम्र के 75 वें पड़ाव पर उनके संपत्ति के खाने में केवल इमानदारी यह लिखा है एवं बाकी सभी जगह कोरी हैं। धैर्य शील एवं संघ समर्पित जीवन वे जी रहे हैं। सत्यता एवं स्पष्ट वक्ता ये उनके शस्त्र हैं। इन्ही शस्त्रों को साथ लेकर उन्होंने जीवनभर कार्य किया है। संघ उनके प्राणों में बसा है। संघ विचारों को उन्होंने पूरी ताकत से जतन किया है। इन विचारों को जतन करते हुए उन्हें उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है। उनके दरवाजे प्रत्येक दो- चार वर्षों में नया वाहन नहीं आया। वे बेहिसाब संपत्ति इकट्ठा नहीं कर पाए। राष्ट्रीय सामाजिक विचारों की अनुभूति होते हुए भी उन्हें कभी राजाश्रय की लालसा नहीं रही। संघ निष्ठा, सत्यता एवं विचारों की स्पष्टता का उन्होंने कभी त्याग नहीं किया। इन सब में उल्लेखनीय याने उन्हें ऐसा कभी नहीं लगता कि वे जगत से न्यारा कोई काम कर रहे हैं। नियम के अनुसार यदि प्रत्येक व्यक्ति जीवन व्यतीत करें तो किसी को कुछ अलग नहीं करना पड़ेगा। इतनी सहजता से वे अपने जीवन की ओर देखते हैं। लेख के प्रारंभ में कहे अनुसार "मैं मेरी शर्तों पर जिऊंगा" ऐसा कहने वाले लोग अपने जीवन में कैसे सफल होते हैं? इसका संपूर्ण विवेचन याने श्री रमेश पतंगे जी का जीवन! इस उम्र में भी सतत सकारात्मक विचार, इन विचारों से निर्माण होने वाले विविध विषय, इसके लिए आवश्यक सतत प्रवास, वातावरणीय परिवर्तन और भोजन- पानी में बदल यह सारा सहन कर काम करने की ऊर्जा कहां से मिलती होगी? प्रेरणा कहां से मिलती होगी? मुझे लगता है कि उनकी अंतरात्मा में प्रज्वलित संघ विचारों की ज्योति ही उन्हें सतत ऊर्जा प्रदान करती है।
"मैं केवल अपनी शर्तों पर जिऊंगा" ऐसा कहते हुए अपना अब तक संपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले इस प्रकार के तत्व निष्ठ एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति के साथ उनके स्वभावानुरूप चार दशकों से अधिक काल से उनका साथ देने वाली उनकी धर्मपत्नी को भी नमस्कार करने की इच्छा होती है। समाज में सतत कुछ न कुछ घटित होते रहता है ऐसे समय एक निश्चित दूरी से समाज का निरीक्षण करने वाले पतंगे जी को कभी छुट्टी लेने का समय न मिला हो। और यह छुट्टी लेने का आग्रह श्रीमति पतंगे ने शायद कभी ना किया होगा। पतंगे जी जिस प्रकार पाठकों के पसंद का लेखन करते हैं वैसे ही वे स्वादिष्ट खाने के भी शौकीन हैं। पतंगे जी के घर जाने पर उनकी पत्नी कितना स्वादिष्ट भोजन बनाती है इसकी अनुभूति हमें होती है। रमेश पतंगे शास्त्रीय संगीत पर जितने चाव से बातें करते हैं उतने ही चाव से वे पाकशास्त्र पर भी बात करते हैं। महाराष्ट्र और देशभर के प्रमुख होटलों के नामों की सूची उनके दिमाग में स्पष्ट है, इतना ही नहीं तो वहां कौन सा पदार्थ उत्तम तरीके से बनाया जाता है इसकी जानकारी भी उनके पास है। अनेक पत्रकारों का निर्माण करने वाले, अनुशासन प्रिय प्रशासक, विवेक को नया रूप देने वाला प्रवीण नेतृत्व, उत्तम व्याख्याता, संघ विचारक और हम सब सहयोगियों को स्वप्रेरणा से मार्गदर्शन देने वाले ऐसे कई विशेषण लगा कर भी मन नहीं भरता है, ऐसा एक कल्पवृक्ष के समान व्यक्तित्व याने रमेश पतंगे! उनकी सफलता में एक बड़ा हिस्सा उनकी पत्नी का भी है यह हमें मान्य करना होगा।
रमेश पतंगे भोले भाले स्वयंसेवक कभी नहीं रहे। व्यक्ति निष्ठा की अपेक्षा संघ निष्ठा और समाज निष्ठा को महत्व देने वाले विचार वान कार्यकर्ता के रूप में उनका व्यक्तित्व समाज में है। मतभेदों का भी आदर करने वाला, विरोधियों के गुणों की कदर करने वाला, और किसी भी गलत प्रचार की बलि ना चढ़ने वाला, निष्ठावान स्वयंसेवक यह श्री रमेश पतंगे जी के संपूर्ण जीवन की पहचान! जीवन के उतार-चढ़ाव, उपहास इत्यादि की परवाह न करते हुए वे सतत सत्य की राह चल रहे हैं। रमेश पतंगे जी का इस प्रकार का 'संघ शरण व्यक्तित्व' मुझे चंदन जैसा लगता है। चंदन जिस प्रकार घिसते-घिसते अपनी सुगंध छोड़ता जाता है वैसा ही श्री पतंगे का जीवन है। कारण जीवन भर संघ विचारों के लिए उन्होंने अपने को जितना खपाया उतनी ही उनकी कीर्ति सब ओर फैली। मेरे विवेक के प्रवास में मैं कई कर्तृत्व शाली व्यक्तियों के संपर्क में आया हूं। मेरी औकात के अनुसार मैंने उनसे सीखा भी है, अनेकों का स्नेह भी मुझे प्राप्त हुआ है। उन सब के साथ मेरे संबंध अभी भी निश्चित नहीं हुए हैं। पतंगे जी सरीखा व्यक्तित्व मुझे मिला। विवेक का काम करते हुए हममें अपनत्व निर्माण हुआ। मेरे जीवन को दिशा देने का बहुमूल्य काम उनके द्वारा संपन्न हुआ। हमारे इस रिश्ते को मैं निश्चित कौन सा रूप दूँ यह मुझे ज्ञात नहीं। अनजाने में मैंने उनसे कई बातें सीखी। मैं एकलव्य हूं या नहीं यह मुझे नहीं पता परंतु वे मेरे द्रोणाचार्य अवश्य हैं।
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