आचार्य शंकर, आंद्रे मालरॉक्स और नेहरू
1936 में पेरिस में 47 वर्षीय जवाहरलाल नेहरू की मुलाकात 35 साल के आंद्रे मालरॉक्स से हुई थी, जो भारत के महान् इतिहास की दृष्टि से संपन्न अपने समय के एक प्रसिद्ध लेखक थे। वे बाद में फ्रांस के संस्कृति मंत्री भी बने। उन्होंने कंबोडिया से लेकर अफगानिस्तान तक इस भूभाग के पुरातात्विक स्मारकों की गहरी छानबीन की थी। नेहरू और मालरॉक्स की इस प्रसिद्ध मुलाकात के सूत्रधार थे लेखक राजा राव।
दो महापुरुषों के बीच आँखें खोलने वाली इस ऐतिहासिक चर्चा में नेहरू सुन रहे थे और मालरॉक्स भारत के सनातन विजन पर विस्तार से अपनी बात कह रहे थे। उन्होंने कहा था कि भारत ने उपनिषद और गीता रचे हैं, जहाँ कृष्ण अर्जुन को सब प्रकार के द्वैत से परे जाने को कहते हैं। कृष्ण हमें बताते हैं कि मृत्यु सत्य नहीं है। 'मैंने गीता को समझने के लिए कुछ संस्कृत भी सीखी है। यह एक महान् क्रांतिकारी पुस्तक है।Ó
एक दूरदृष्टा की भांति अंत में वे नेहरू से कहते हैं-'महात्मा गांधी कभी कोई सरकारी पद नहीं लेंगे। आप भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे और मेरी हृदय से प्रार्थना है कि आपके नेतृत्व में शंकराचार्य भारत को गाइड करें।Ó
राजा राव ने अपनी किताब 'मीनिंग ऑफ इंडियाÓ में बाद में लिखा-द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण भी पेरिस में मालरॉक्स से मिलने गए। मालरॉक्स ने उनसे उत्सुकतावश जानना चाहा कि आज भारत सरकार पर शंकर का क्या प्रभाव दिखाई दे रहा है? राव लिखते हैं कि यह सवाल सुनकर जेपी केवल मुस्कुरा दिए थे!
आजादी के अमृतकाल में भारत ने अपने विस्मृत नायकों का स्मरण किया। वे महापुरुष, जिन्होंने भारत के लिए अपना जीवन अर्पण किया, किंतु स्वतंत्र भारत ने उन्हें वह सम्मान और स्थान नहीं दिया, जिसके वे प्रथम अधिकारी थे। विडंबना है कि भारत के आधुनिक परिचय में 1857 से 1947 के आखिरी ओवर और उसकी भी अंतिम बॉलें पूरा इतिहास बनाकर प्रस्तुत की गईं। जबकि भारत के रूप में भारत के निर्माण, विकास और संघर्ष की यात्रा अतीत एक लंबी यात्रा है। बीते एक हजार वर्ष के यातनादायी मुस्लिम-ब्रिटिश कालखंड में भी हर क्षेत्र के अनगिनत लोग अखंड भारत के कोने-कोने में भारतीयता का दीया जलाए रहे और उसके पूर्व काल में भी ऐसे नक्षत्र भारत के आकाश में जगमगाए। किंतु विभाजन की विभीषिका के बीच 1947 में भारत का जो पोस्टर बनाया गया, उसमें दो ही चेहरे थे-'गाँधी और नेहरू।Ó
नेहरू के भारत में नेहरू ही भारत के गाइड थे, उन्हें किसी मालरॉक्स की बिन माँगी सलाह की जरूरत नहीं थी। अगर जरूरत होती तो जयप्रकाश नारायण अगली मुलाकात में मालरॉक्स के प्रश्न पर मुस्कुराकर मौन न रहते। प्रश्न यह है कि एक फ्रेंच मनीषी को आचार्य शंकर में ऐसा क्या दिखाई दिया था, जो विश्व युद्धों की विभीषिका के विकट समय में वह स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत एक प्राचीन राष्ट्र के भावी लीडर को बता रहा था कि भारत को कैसे और किसके मार्गदर्शन में एक सच्ची दिशा में आगे ले जाया जा सकता है?
स्वतंत्र भारत की सत्ता ने शंकर के दर्शन को अपनाना तो दूर, उन्हें आदरपूर्वक अपने स्मरण में रखने योग्य भी नहीं माना। लेकिन भारत की गुरुकुल परंपरा में आचार्य शंकर और अद्वैत वेदांत की शिक्षाएँ किसी अंडरकरंट की तरह बहती रहीं। हरिद्वार और उत्तरकाशी में सफेद या भगवा धोती कुर्ते में खादी का झोला लटकाए दिखाई देने वाला हर कोई संसार से पलायन करने वाला साधु नहीं होता। भारत की अनेक यात्राओं में शुरुआत में मेरी धारणा भी गलत निकली। मेरी मुलाकातें साइंस, इंडस्ट्री, आईटी और मैनेजमेंट के ऐसे अनेक प्रतिभाशाली युवाओं से हुई, जो अपने सफल बिजनेस या नामी कंपनियों में ऊंचे पैकेज की नौकरियों में थे और अवकाश लेकर आचार्य शंकर के ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और गीता पर भाष्यों के लिए छह महीने, एक या दो साल की पढ़ाई के लिए वहाँ डेरा डाले हुए थे।
मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर का संबंध उन्हीं आचार्य शंकर से गुरू-शिष्य का संबंध है, जिनके बारे में मालरॉक्स चर्चा कर रहे थे। शंकर एक शिष्य के रूप में ओंकारेश्वर आए थे और अपने समय का एक महान गुरू उन्हें यहाँ मिला था, जिनका नाम है- गुरू गोविंद भगवत्पाद। वे तीन-चार साल यहाँ रहे। आठ वर्ष की उम्र में आए थे। जब 12 के हुए तब गुरू की आज्ञा से काशी निकले। उनकी कुल आयु 32 वर्ष थी। विश्व के इतिहास में शंकर जैसे न के बराबर होंगे, जिन्होंने इतनी अल्पायु में किसी राष्ट्र के जीवन में प्रभावशाली और परिवर्तनकारी भूमिका निभाई हो।
वे दक्षिण भारत में जन्में थे, मध्य भारत में शिक्षा प्राप्त की, उत्तर भारत में भाष्यों की सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ कीं, तीन बार अखंड भारत की परिक्रमाएँ कीं और चार कोनों में चार मठ संस्थान के सूत्रों से भारत को बाँध दिया। इन्हीं यात्राओं के दौरान विवादों को संवादों से सुलझाने के उनके इतिहास प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हैं, देवस्थानों के पुनरुद्धार हैं, दसनाम संन्यास परंपरा और पंचदेव आराधना के प्रभावी विकल्प हैं, जो आज भी एक जीवंत परंपरा के रूप में भारत की चेतना में समाए हुए हैं। आज भारत के दूरस्थ अंचलों, पर्वतों, वनों में निरंतर भ्रमण करने वाले तीस लाख से अधिक संन्यासी उनकी ही दसनाम परंपरा के उत्तराधिकारी हैं।
एक निहत्थे दार्शनिक ने भारत के लिए वह किया, जो किसी शक्तिशाली साम्राज्य के लिए भी संभव नहीं था। वे भारत के आध्यात्मिक साम्राज्य के ऐसे महापुरुष हैं, जिन्होंने अद्वैत वेदांत के सेनापति खड़े किए। चैतन्य महाप्रभु से लेकर नरसी मेहता, कबीर से लेकर बुल्लेशाह तक संत कवियों की वाणी से अद्वैत का वही विचार लोक में व्याप्त होता रहा। संकीर्ण विचारों के चौतरफा शोरगुल के बीच खड़े होकर स्वामी विवेकानंद ने उसी अद्वैत के लाउड स्पीकर से शिकागो में विश्व के कानों में युगांतरकारी अजान दी थी!
मालरॉक्स के निर्दोष मार्गदर्शन और सनातन के प्रति नेहरू के निष्क्रिय भाव के बावजूद भारत अगर आज धरती पर अपनी गौरवमयी आध्यात्मिक विरासत के बल पर जीवंत धड़क रहा है तो उसके किसी भी संभावित मेगा पोस्टर पर प्रकाशन योग्य एक अकेले ही धरतीपुत्र हैं-आचार्य शंकर।
सिंध पर अरबों के हमलों से ठीक पहले आचार्य शंकर के समय भारत भयंकर बिखराव में था। सनातन परंपरा में एक दूसरे के प्रति शत्रुतापूर्ण विचार हिंसक स्वरूप में थे। शंकर ने अपनी महान यात्राओं में भारत के दर्पण पर चढ़ी समय की धूल को साफ किया और वेदों के मूल में सबको अपना चेहरा दिखाया। भारत की आत्मा में वे अद्वैत का ऐसा अमृत कलश प्रतिष्ठित करके गए कि उसे 1857 और 1947 तक अपने अस्तित्व का बोध बना ही रहा। भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए 90 वर्ष का संग्राम, महात्मा गाँधी का उदय और जवाहरलाल नेहरू की ताजपोशी भारत के विशाल जलाशय में उठे पानी के आखिरी बुलबुले हैं! हम आंद्रे मालरॉक्स के प्रति इस नाते नतमस्तक हैं कि उसने भारत के भावी लीडर को एक सच्चे मार्गदर्शक का पता बताया था! ओंकारेश्वर में एकात्मधाम का निर्माण भारत की कोख से जन्में उसी महान विस्मृत दार्शनिक का प्रशंसनीय पुण्य स्मरण है।
( लेखक मध्यप्रदेश के सूचना आयुक्त एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)