आनन्द धरती आनन्द अकासा आनन्द चन्द- सूर परकासा
अपने पूर्वजों की वैचारिक थाती से कुछ भी न सीख सके, तो जीवन व्यर्थ है। जयंती वा पुण्यतिथियाँ इसीलिए मनाये जाने का प्रचलन हुआ होगा, ताकि हम व्यर्थ होते जाते जीवन को सुमार्गोन्मुख कर उस गन्तव्य तक पहुँच सके, जो जीवनोचित व संसारोचित है। गुरुवर (स्व.) आचार्य शिवनारायण व्यास- लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय-धर्माबाद-महाराष्ट्र- ने 2001 में, सम्भवत: दिसम्बर का रहा होगा, जब विश्वविद्यालय की विशेषता बताते हुए उनके परिसरों का वर्णन कर मुझे विश्वविद्यालय में ही उच्च शिक्षा हेतु जाने का आदेश किया, तो मेरे सामने विश्वविद्यालय का एक लौकिक वा लोकोत्तर कल्पनालोक प्रस्तुत था। मेरा मन-मस्तिष्क उस वर्णन से पूर्णत: आलोकित हो उठा था। विश्वविद्यालय परिसर पहुँचा (2002), तो प्रतीत हुआ कि यह लोक बाहर के लोक (समाज) की तुलना में नितान्त भिन्न है। वास्तव में, विश्वविद्यालयों को विश्व के ज्ञान-आलोक से समाज को आलोकित करने का उपक्रम करना चाहिए। अपने दैशिक ज्ञान एवं संस्कार को ग्रहण कर संसार में जीवनादर्श प्रस्तुत करना चाहिए, किन्तु मैंने विश्वविद्यालय प्रांगण में प्रवेश करने के उपरान्त शनै:-शनै: पाया कि विश्वविद्यालय अंधकार के गढ़ बने हुए हैं। हद दर्जे की नकारात्मकता, खण्डित विमर्श, राजनीति का ओछा रूप-स्वरूप, स्वार्थान्धता, ओढ़ी हुई स्मित मुस्कान के पीछे गुप्त किन्तु छल-कपट-धूर्तता का प्राकट्य, परस्पर वैर-वैमनस्य-विद्वेष-ईर्ष्या-घृणा, ग्रन्थार्जित ज्ञान का अहंकार, आचरण-व्यवहार में शून्यता, एक-दूसरे को अपमानित करने की प्रवृत्ति, विचारधारात्मक दुराग्रहिता, और इस सबसे उपज कर विस्तार पा जाने वाली छीछालेदर और गड़बड़झाला की स्थिति ही नहीं, अपितु गुत्थमगुत्था, और तो और, जूतम-पैज़ार- विश्वविद्यालयों की वास्तविकता बन चुकी है। विश्वविद्यालय में विशेष का 'विÓ और 'शेषÓ का सर्वोचित समाहार है। उसमें विश्व का विस्तार है। ज्ञानप्रदायिनी शक्तिरूपा-विद्या का विग्रह है। उसमें निवास कर विद्या-विनय- योग्यतार्जन में लयमान हुए जाने का संकेत आलय है। यह उस शब्द की अर्थपूर्ण व लयात्मक व्याप्ति है। किन्तु, दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह लयात्मक व्याप्ति केवल शब्द में ही संचित है और विश्वविद्यालय परिसरों में उसका सार-संग्र्रह वंचित है। विद्या-विधायिनी शक्ति का ही संचार कहिए कि विश्वविद्यालयों में पहुँच कर, इस पूरी मूर्तिमान स्थिति-परिस्थिति से बचने के सतत प्रयासों ने अब तक पतनोन्मुख होने से बचाये रखा है।
विश्व का नहीं पता, 12 जनवरी को, हमारे प्यारे भारतवर्ष ने स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती मनायी। यदि विश्व के अन्य देशों ने मनायी हो, तो कहना न होगा कि विवेकानन्द की वाणी की अनुगूँज विश्व में आज भी गूँजायमान है। अस्तु, जयंती थी, तो कम से कम भारत में ही, संस्मरणात्मक प्रबोधनात्मक कार्यक्रमों का आयोजन निश्चित था। स्वामी विवेकानन्द का जब भी स्मरण होता है, मेरे चित्त में और दृष्टि पटल पर उनका भगवे वस्त्रधारी रूप अवतरित होता है। वह रूप अत्यन्त चित्ताकर्षक है। भगवा वस्त्रधारी होने के बावजूद स्वामी विवेकानन्द पर आज तक कोई साम्प्रदायिक होने का आरोप नहीं लगा पाया है। अन्यथा, भगवा को नैरेटिव-वीरों ने साम्प्रदायिकता का प्रतीक बना ही दिया है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय (तिरुवारूर) में वाम-पोषित वा स्व-घोषित सेक्युलर माने- पन्थनिरपेक्ष युवा प्राय: अकारण ही 'भगवाकरणÓ शब्द का प्रयोग कर विश्वविद्यालय परिसर से लेकर समाचार पत्रों के माध्यम से राष्ट्र के वातावरण को विषाक्त बनाने से कभी नहीं चूकते थे। कभी उनकी मानसिक संरचना की सोचता हूँ, तो उनके प्रति करुणा उपजती है। कभी अत्यन्त पीड़ा होती है। और, विद्या देवी से प्राय: प्रार्थना करता हूँ कि माँ इन अबोधों को बुद्धि दे। अस्तु, स्वामी विवेकानन्द को अब तक किसी ने भी साम्प्रदायिक नहीं कहा है। यह प्रसन्नता का विषय है। अस्तु, जयन्ती विशेष अवसर पर एक मित्र प्रवर ने मुझसे आग्रहपूर्वक कहा कि एक राष्ट्रीय संगोष्ठी होनी है। आप उसमें स्वामी विवेकानन्द के जीवन-दर्शन पर विषय प्रवर्तन करें। सर्वप्रथम यह स्पष्ट हो कि विवेक के स्वामी के जीवन एवं उनकी दार्शनिक दृष्टि पर विषय प्रवर्तन करना, और वह भी उनके जीवन-दर्शन को आत्मसात कर जीवन व्यतीत करने वालों के समक्ष ऐसी धृष्टता करना, विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता था। किन्तु, आप जानते हैं कि संगोष्ठियों में नये-नये समीकरणों को जन्म देने की शक्ति होती है। तो, मित्र प्रवर के स्नेह और आग्रह के वशीभूत होकर विषय प्रवर्तन का निर्णय हुआ। 'हाँÓ कहने के अतिरिक्त विकल्प भी नहीं था। यह बात मित्रों से निकल कर अन्यान्य मित्रों तक पहुँची। आप जानते हैं- बातों के न तो हाथ होते हैं, न ही पैर, किन्तु वे सैराट सबके पास पहुँच जाती हैं। अर्थात् मित्र तो मित्र, शेष सभी जान चुके थे कि मैं आसन्न संकट से घिर चुका हूँ। आप जानते हैं - 'घिरनाÓ और 'घेरनाÓ में केवल मात्रा का अन्तर है, किन्तु उनमें व्याप्त क्रियात्मक अन्तर से व्यक्ति की स्थिति- मन:स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। फिर, संगोष्ठी से कुछ घण्टों पूर्व एक स्नेहिल मित्र प्रवर ने सोशल मीडिया पर तैरायमान पोस्टर को मेरे मोबाइल पर चस्पा कर सन्देश में कहा कि 'अरे! आपका व्याख्यान था न? क्या हुआ? यदि व्याख्यान है, तो इसमें आपका नाम क्यों नहीं है? शेष, सबका है।Ó मैंने सन्देश देखा, 'शेष सबका हैÓ में 'विशेष आप ही का नहीं हैÓ की प्रतिध्वनि गुँजरित हो उठी थी, किन्तु मैं अप्रतिक्रियाशील बना रहा। सभागृह पहुँचा, तो पता चला कि मंच पर टंगे पोस्टर पर भी मेरा नाम ग़ायब है। और, मेज पर जिन वक्ताओं के नाम की तख्तियाँ विद्यमान थीं, उनमें मेरे नाम की तख्ती नहीं थी। मैं आश्वस्त और प्रसन्न हुआ कि चलो, वरिष्ठों और विषय-विशेषज्ञों के समक्ष कोरी काँव-काँव करने से मुक्ति मिल गयी। माने थुक्का-फ़ज़ीहत से बच गया। अब बैठ कर विवेक के साथ जीवन और दर्शन को जानने का प्रयास किया जाये। किन्तु, जैसे ही मंच से मुझे मंच पर प्रकट होने की उद्घोषणा हुई, तो मैं सन्न रह गया। मैंने पुन: स्वयं को आसन्न संकट से घिरा हुआ पाया। जो सभागृह में बैठे थे, उनके चेहरों पर विचित्र भाव-रेखाएँ खींच आयी थीं। मैंने तत्क्षण कहा-इस प्रकार फँसाना ठीक बात नहीं है। घिरना-घेरना की स्थिति-मन:स्थिति को आप अब जान रहे होंगे। मन-मस्तिष्क कह उठा था- यह अपमानित करने की योजना है इत्यादि-इत्यादि। माने-एक साधारण मनुष्य के मन-मस्तिष्क में जो-जो बातें उस समय आ सकती थीं, वे सारी तत्क्षण आयीं और आती रहीं। और, उस प्रकोपित क्षण में अनायास ही केदार की काव्य-पंक्तियाँ स्मरण आयीं 'हे मेरी तुम! कटु यथार्थ से लड़ते-लड़ते/ अब न लड़ा जाता है मुझसे/ हे मेरी तुम/ अब तुम ही थोड़ा मुसका दो/ जीने का उल्लास जगा दो।Ó
यह यद्यपि दाम्पत्य प्रेम की कविता है, किन्तु उस विचित्र प्रसंग में बारम्बार मन-मस्तिष्क में स्वरायमान होती रही। फिर, उन काव्य पंक्तियों ने, और सामने मंच पर रखी विवेकानन्द की मनमोहक प्रतिमा ने ऊर्जा प्रदान की। केदार की कविता और विवेक व आनन्द के स्वामी से जो ऊर्जा मिली, उसी से जो कुछ बोल सकता था, बोल गया। उन क्षणों में मैं अपने विवेक से चूक जाता, तो ऊपर पहले परिच्छेद में जो कुछ कह आया हूँ, उसमें से कुछ हो न हो, छीछालेदर निश्चय हो ही सकती थी। अन्य पवित्र-स्थानों से आमन्त्रित अतिथियों के समक्ष वैसा कुछ भी होना कितना अ-प्रितीकर होता, कहने की निश्चय ही आवश्यकता नहीं है। इसकी पूरी सम्भावना थी कि समाचारजीवी पत्रकारों के लिए भारी ख़ुराक मिल जाती। कुलमिलाकर, उस कविता और विवेक ने आनन्द के उन क्षणों को धूमिल वा ओझल नहीं होने दिया। मैं कहता हूँ- विवेक के स्वामी और केदार की काव्य-पंक्तियों ने मुझ पर अत्यन्त उपकार किया कि मुझे सहज बनाया। मेरे 'मैंÓ को ऊपर उठने नहीं दिया। और, मुझे हारने नहीं दिया। ऊपर पहले परिच्छेद में जो कह आया हूँ, उसमें से किसी भी नकारात्मकता को हावी होने नहीं दिया। फिर, विषय प्रवर्तन करते हुए जो कुछ बोल गया, उसका सार-संग्रह वा संवर्धित रूप इस 'वज्रपातÓ में प्रस्तुत है। सच कहूँ यह दिन मेरे अविस्मरणीय दिनों में जुड़ गया। यदि ऐसा कुछ न होता, तो प्राय: की भाँति यह दिन भी साधारण ही होता। आज वह दिन विशेष है- सदा के लिए। मैंने कहा- आज हम सभी स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती के अवसर पर एकत्रित हैं। 'स्वÓ से 'स्वार्थÓ, 'मैंÓ, 'व्यक्तिवादिताÓ में उलझे हुए, 'स्वत्वÓ खोते हुए, 'सत्वÓ खोते हुए इस आधुनिक समय में स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करना कई कारणों से, 'स्वत्वÓ, 'सत्वÓ की पुनर्जागृति और समाज जागृति के लिए अत्यन्त आवश्यक है। हमें भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना हो, तो अपनी दैशिकता का भान रखते हुए, स्वामी विवेकानन्द तथा अन्यान्य सन्त-संन्यासी-गुरुओं के वचनों को आत्मसात करना होगा। यह उस दृष्टि से पुनर्विचार कर, अपने ज्ञान का विस्तार करने का अवसर है। स्वामी विवेकानन्द में आधुनिकता और परम्परा का सहज समन्वय था। वे धर्म के साथ-साथ विज्ञान को भी आवश्यक मानते-समझते थे। उन्होंने शिकागो विश्व धर्म संसद में अमेरिकावासियों को 'सिस्टर्स एण्ड ब्रदर्स ऑफ अमेरिकाÓ कह कर इसलिए सम्बोधित नहीं किया था कि उनका उद्देश्य अमेरिकावासियों को प्रभावित करना था। वास्तव में, आधुनिक समय में, वह भारतीय भावधारा के विस्तार सूत्र रूप में प्रयुक्त सम्बोधन था। दैशिक सत्त्व के साथ वैश्विक मानव की समानता व सम्बद्धता का विस्तार-सूत्र उस सम्बोधन में अन्तर्निहित था। 'वसुधैवकुटुम्बकम्Ó को हम किसी-न-किसी अवसर पर वा अनवसर ही, कहते तो हैं, किन्तु कहने से थोड़ी ही सबकुछ हो जायेगा? 'मनसा-वाचा-कर्मणाÓ में उसका अनुधावन व अनुसरण करने से ही विश्व में शान्ति विस्तार पा सकती है। कुटुम्ब में झगड़ा हो सकता है, किन्तु सिर-फुटौवल की स्थिति नहीं आने पाती। नहीं ही आनी चाहिए। 'साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समायÓ - हमारे पूर्वज ने ही कहा है न? वही हमारी वैचारिक थाती है। भाव की भावात्मक धारा है। स्वामी विवेकानन्द के वचनों में उसी का समयोचित विस्तार है। आज कुछ देश युद्ध में झुलस रहे हैं। कुछ अपने स्वभाव के कारण आतंक को ही अपना मूलाधार बनाने में निमग्न हैं। हम उन सबसे, हमेशा से भिन्न रहे हैं। सर्वार्थ में, सर्वहित के पक्षधर रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द हमारे इस जीवन-यथार्थ (दर्शन?) को शिकागो संसद ही नहीं, अपितु जीवन भर कहते और जीते रहे हैं। (क्रमश:)
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)