प्रत्याशित-अप्रत्याशित, एकदम अप्रत्याशित
यूं तो प्रधानमंत्री मोदी के दौर में राजनीति की कई स्थापित धारणाएं खंडित हो रही है, और नई धारणाएं विकसित हो रही है। भारतीय राजनीति में एंटीइनकंबेंसी वर्ष 2014 के पहले एक बहुत बड़ा फैक्टर माना जाता था। लेकिन मोदी के दौर में वह फैक्टर बहुत कुछ बेमानी हो चुका है। गौर करने का विषय है की एंट्रीइनकंबेंसी फैक्टर कांग्रेस पार्टी के लिए अब भी उतना ही मायने है जितना पहले हुआ करता था। विचार करने की बात यह है कि क्या कारण है कि भारतीय राजनीति में मोदी की केंद्रीय भूमिका में आने के पश्चात कांग्रेस पार्टी की सरकार दोबारा किसी राज्य में लौटकर नहीं आ सकी जबकि भाजपा के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता। खास तौर पर मध्यप्रदेश में भाजपा की सत्ता में वापसी एक चमत्कारिक तत्व ही कहा जा सकता है। यहां तक राजस्थान और छत्तीसगढ़ का प्रश्न है वहां तो भाजपा का सत्ता में आना समझ में आता है, कि वहां पर कांग्रेस पार्टी के खिलाफ सत्ता विरोधी कारक पर्याप्त प्रभावी था। यद्यपि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मध्यप्रदेश में भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी कारक प्रभावी नहीं था। बावजूद इसके मध्यप्रदेश में भाजपा को तुलनात्मक रूप से बेहतर सफलता मिली। एक सर्वे के अनुसार राजस्थान विधानसभा में 32 प्रतिशत मतदाताओं ने हिंदुत्व के नाम पर, 28 प्रतिशत मोदी के चेहरे के नाम पर 26 प्रतिशत मतदाताओं ने राष्ट्रवाद के नाम पर वोट किया। कुल मलाकर आशय है कि मतदाता राष्ट्रीय विमर्श को ध्यान में रख रहा है। उसके लिए केंद्र एवं राज्य अलग-अलग नहीं है। इसके लिए मात्र विकास ही महत्वपूर्ण नहीं,वह अपनी अस्मिता और पहचान के प्रति भी जागरूक हो चला है। उत्तर भारत के तीनों राज्यों के विधानसभा के चुनाव को इसी संदर्भ में समझाना पड़ेगा। जहां तक सवाल तेलंगाना विधानसभा के चुनाव का है, तो वहां पर मतदाता बीआरएस सरकार बदलना चाहता था। उसके सामने वहां पर विकल्प में कांग्रेस पार्टी ही थी। जहां तक भाजपा का सवाल है, उसको गत चुनाव में प्राप्त एक सीट की जगह 8 सीटें प्राप्त हुई है,जो एक बड़ी सफलता है। इसका मतलब यह है कि लोकसभा के चुनाव में बीजेपी तेलंगाना में भी छलांग लगाएगी और गत चुनाव की तुलना में चार से तो ज्यादा ही सीटे पाएगी। विचारणीय प्रश्न यह भी है कि आखिर में कांग्रेस पार्टी दोबारा सत्ता में क्यों नहीं लौट पाती। जबकि जहां तक भाजपा का सवाल है, तो वह गुजरात जैसे राज्य में वर्ष1996 से सतत सत्ता में बनी हुई है। इसके अलावा गोवा उत्तरांचल, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश दूसरे उदाहरण हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि कांग्रेस में सत्ता का हददर्जे का दुरुपयोग होता है।
चुनाव परिणाम से ज्यादा अप्रत्याशित इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों का चयन था। यद्यपि ऐसा कहा जा सकता है कि भाजपा नेतृत्व द्वारा छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री का चयन एक हद तक प्रत्याशित था। करीब जो आधा दर्जन नेता इस दौड़ में माने जा रहे थे, उन में विष्णु देव साय की भी चर्चा थी। लेकिन मध्यप्रदेश और खास तौर पर राजस्थान में जिस ढंग से मुख्यमंत्री का चयन किया गया, उसे तो चमत्कारिक ही कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश में मोहन यादव का मुख्यमंत्री पद पर चयन सर्वथा अप्रत्याशित तो नहीं कहा जा सकता,क्योंकि मोहन यादव तीन बार के विधायक और गत सरकार में कैबिनेट मंत्री थे। इसलिए इस चयन को फिर भी अप्रत्याशित तो कहा ही जा सकता है क्योंकि किसी ने भी इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं लगाया था कि प्रदेश के शीर्ष पद पर मोहन यादव की ताजपोशी हो सकती है। राजस्थान के मुख्यमंत्री पर तो भजनलाल शर्मा का बैठाया जाना सर्वथा अप्रत्याशित कहा जा सकता है। बड़ी बात यह है कि वह पहली बार विधायक चुने गए थे। यद्यपि भाजपा द्वारा ऐसा पहली बार नहीं किया गया है। इसके पूर्व गुजरात में पहली बार के विधायक भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया जा चुका है जो सफलतापूर्वक गुजरात का नेतृत्व कर रहे हैं।
मोदी के दौर में देश में यह नए-नए प्रयोग हो रहे हैं और बहुत से लोगों के लिए इसमें कई किंतु परंतु भी हो सकते हैं। लेकिन देश इस बात को लेकर आश्वस्त हो सकता है कि यह प्रयोग किसी निजी एजेंडे के तहत नहीं बल्कि व्यापक उद्देश्यों के चलते हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नव नियुक्त तीनों मुख्यमंत्री और उनके नेतृत्व में बनी सरकारें सुशासन के नए प्रतिमान बनाने में सक्षम हो सकेंगीं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)