तिलपत में औरंगजेब का सामूहिक नरसंहार

तिलपत में औरंगजेब का सामूहिक नरसंहार
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1 जनवरी 1670: वीर गोकुल सिंह का बलिदान

रमेश शर्मा

स्वाधीनता और स्वाभिमान के संघर्ष में असंख्य बलिदान हुये हैं। इतिहास की पुस्तकों में उनका विवरण नगण्य मिलता है । ऐसा ही बलिदान तिलपत में वीर गोकुल सिंह जाट का हुआ। यह बलिदान साधारण नहीं था। बंदी बनाकर ऐसी क्रूरतम मौत दी गई कि उसे पढ़कर आज भी रोंगटे खड़े होते हैं। बादशाह औरंगजेब की सेना ने गांव के गाँव उजाड़ दिये, सामूहिक नरसंहार किया। और उन्हीं को छोड़ा गया जिन्होंने मतान्तरण स्वीकार कर लिया था ।

यह तिलपत इन दिनों हरियाणा प्राँत के अंतर्गत फरीदाबाद जिले में आता है। पर मुगल काल में यह क्षेत्र मथुरा केअंतर्गत आता था और पूरे क्षेत्र के शासन का केन्द्र भी। गोकुल सिंह के पूर्वज कभी इस क्षेत्र के शासक हुआ करते थे। पर समय बदला रियासत समाप्त हो गई और मुगलों के अंतर्गत जागीरदार हो गये। यह समझौता परिस्थियों का था। मन के समर्पण का नहीं। समय पर कर चुकाकर और भेंट भेजकर किलेदार अपनी प्रजा को संरक्षण देते रहे लेकिन औरंगजेब के काल में यह संतुलन बिगड़ गया। औरंगजेब ने सभी मंदिरों और मूर्तियों को ध्वस्त करने का आदेश दिया और मतान्तरण का अभियान चलाया। इसके लिये जजिया कर भी बढ़ा दिया। चूँकि यह टैक्स केवल हिन्दुओं पर लगता था। टैक्स और वसूली की सख्ती से बचने के लिये लोग मतान्तरण करने लगे। जो मतान्तरण कर लेते थे उन्हें छूट मिल जाती थी। वर्ष 1669 में फसल खराब हुई। जमीदारों ने रियायत माँगी। जो नहीं मिली। तब वीर गोकुलसिंह ने सेना एकत्र की और जजिया देने से इंकार कर दिया। गोकुल सिंह ने बादशाह को स्पष्ट संदेश भेजा कि जजिया कम किया जाए और फसल अच्छी आने तक वसूली रोकी जाए। लेकिन बात नहीं बनी। उल्टे इसे विद्रोह माना गया और कू्रद्ध होकर औरंगजेब ने सेना भेजी। फौजदार हसन अली के नेतृत्व में मुगल फौज मथुरा पहुँची। वीर गोकुल सिंह जाट ने सामना किया । यह युद्ध 10 मई 1669 को मथुरा से छह मील दूर हुआ। गोकुलसिंह और उनके सैनिक भारी पड़े। मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा। इससे उत्साहित होकर वीर गोकुल सिंह ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। और तिलपत पर अपना ध्वज फहरा दिया । इस बीच मुगल दरबार से समर्पण के प्रस्ताव भेजे गये। मुगलों की ओर से समझौते का अंतिम संदेश लेकर फौजदार शफ शिकन खाँ गये और गोकुलसिंह से पूर्ण समर्पण करके माफी मांगने को कहा। लेकिन बात नहीं बनी। अंत में 28 नवम्बर 1669 औरंगजेब स्वयं एक बड़ी सेना और तोपखाने के साथ तिलपत रवाना हुआ। औरंगजेब ने मथुरा पहुँचकर अपना कैंप किया। और तिलपत को घेरने के लिये सेना भेजी । युद्ध आरंभ हुआ। यह दूसरा युद्ध 4 दिसम्बर 1669 को तिलपत से 20 मील पर आरंभ हुआ। यह युद्ध केवल तीन दिन चल पाया। मुगलों के पास सेना अधिक थी दूसरा उनके पास तोपखाना था। मुगलों के तोपखाने ने सब तहस नहस कर दिया था । वीर गोकुलसिंह के नेतृत्व में युद्ध कर रहे सैनिकों की संख्या केवल सात हजार थी इसमें कोई तीन हजार सैनिक किले में तैनात थे और अन्य मैदान में युद्ध के लिये आये थे। जिनकी की संख्या चार हजार के आसपास थी फिर भी इस सेना ने वीरता से सामना किया । लेकिन यह वीरता तोपखाने के सामने बेबस हो गई। सेना का भारी विनाश हुआ । तब गोकुलसिंह सिंह की सेना पीछे हटी और तिलपत गढ़ी की सुरक्षा में लग गई। लेकिन यहां भी तोपों ने सब कुछ नष्ट कर दिया। गढ़ी की दीवारें ध्वस्त हो गई। गोकुल सिंह और उनके चाचा उदय सिंह सहित वहाँ जितने लोग थे सभी बंदी बना लिये गये । सभी बंदियों को मथुरा लाया गया और औरंगजेब के सामने पेश किया गया। औरंगजेब ने सबको मतान्तरण कराने का आदेश दिया। लेकिन गोकुलसिंह और उनके चाचा किसी भी प्रकार तैयार नहीं हुये तब उन्हें जंजीरों में बाँधकर बाहर चबूतरे पर लाया गया। वह एक जनवरी 1670 का दिन था । इनके सामने वे सभी लोग जमा किये गये जो तिलपत के युद्ध में बंदी बनाए गए थे। इसमें सैनिकों के साथ स्त्री पुरुष और बच्चे भी थे। सबके सामने गोकुलसिंह और उनके चाचा उदय सिंह के शरीर में तलवारें चुभोई गईं। एक एक अंग काटा गया। यह कू्रर कृत्य इसलिये किया गया ताकि लोग डर कर मतान्तरण कर लें। गोकुलसिंह को कू्ररतम मौत देकर सैनिकों ने जीवित उदय सिंह की खाल खींची। इसके बाद अन्य बंदियों का भी इसी प्रकार कत्लेआम हुआ। केवल उन्हीं को जीवित छोड़ा गया जिन्होंने मतान्तरण स्वीकार कर लिया था ।

मुगल काल के इतिहास के विवरण में इस घटना को विद्रोह लिखा है। लेकिन राजस्थान के सम्मानित एवं पुरस्कृत कविवर श्री बलवीर सिंह 'करुणÓ ने इस विषय पर 'समरवीर गोकुलाÓ नाम से एक प्रबंध काव्य की रचना की है। इस ओजस्वी रचना ने गोकुलसिंह सिंह के उपेक्षित बलिदान को जीवंत कर दिया। यह काव्य लोक जीवन में बहुत ऊर्जा और आदर से गाया और सुना जाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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