गुलामी के प्रतीकों से लगाव की दूषित मानसिकता!
भारत में विभिन्न राष्ट्रीय पर्वों पर ढोए जाने वाले गुलामी के प्रतीक चिन्हों को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा तेजी से बदला जा रहा है। इससे गुलाम मानसिकता और भारत के बाहर स्थित अन्य राष्ट्रों में अपनी निष्ठाएं रखने वाले दलों व उनके नेताओं में बेचैनी का माहौल है। हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस मनाया गया तो उसके समापन समारोह पर होने वाली बीटिंग रिट्रीट में से एक ऐसे गीत को हटा दिया गया, जिसका भारतीय संस्कृति, स्वाभिमान अथवा संप्रभुता से किसी भी प्रकार का सरोकार नहीं था। उसे ब्रिटिश मूल के एक कवि द्वारा रचा गया था और वह केवल और केवल ब्रितानी साम्राज्य को ही समर्पित था तथा उससे गुलामी मानसिकता की बू आती थी। उसके स्थान पर एक ऐसा गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी' जोड़ा गया जो हमारी सेना के जवानों को समर्पित है।
इस परिवर्तन को लेकर देशभर से जो बधाइयां और शुभकामनाएं संदेश आ रहे हैं, उन्हें देख सुनकर यह संतुष्टि प्राप्त होती है कि नागरिकों ने इस परिवर्तन को मुक्त कंठ से सराहा है और उसे हृदय से ग्रहण किया है। लेकिन यह जानकर आश्चर्य हुआ कि राष्ट्रीय निष्ठाओं के हित में किया गया यह परिवर्तन चंद राजनीतिक दलों, उनके नेताओं और उंगलियों पर गिने जा सकने वाले स्वयंभू प्रबुद्धजनों को रास नहीं आ रहा है। यह जानकर केवल बुरा ही नहीं लगा, मन व्यथित भी हुआ और अंतर्मन में यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि देश के एक खास वर्ग, चुनिंदा राजनीतिक दलों और तथाकथित प्रबुद्ध जनों को वह सब क्यों भाता है, जिसे स्मरण करने मात्र से दासता अथवा गुलाम मानसिकता के जीवंत बने रहने का एहसास पैदा होता है। कौन हैं यह लोग? जो राष्ट्रीय स्वाभिमान, संस्कार और संस्कृति को मानने वालों को हमेशा दकियानूसी, सांप्रदायिक और संकुचित मानसिकता वाली दक्षिणपंथी विचारधारा का पोषक साबित करने में जुटे रहते हैं।
जहां तक मेरा अध्ययन है, ये शब्द उन नेताओं, राजनीतिक दलों और कथित प्रबुद्ध जनों ने गढ़े हैं, जो खुद को वामपंथी विचारधारा का समर्थक मानकर गौरव का अनुभव करते हैं। यह खुद को वामपंथी मानें या फिर कुछ और, इसमें किसी को क्या एतराज हो सकता है? लेकिन इन्हें यह अधिकार किसने दिया कि जिनके विचारों से इनकी भारत के बाहर स्थित निष्ठाएं मेल नहीं खातीं, यह उन्हें दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक और दकियानूसी शब्दों से पुकारना शुरू कर दें? सही बात तो यह है कि भारतीय संस्कृति में दक्षिणपंथी जैसी विचारधारा कोई थी ही नहीं और ना वर्तमान में ही है। किंतु हां, दो विचारधाराएं यहां लंबे अरसे से देखने को मिल रही हैं। इनमें से एक है सेक्यूलर वाद, जिसमें वामपंथी विचारधारा भी निहित है। इनका भारतीय संस्कृति और उसके गौरवशाली इतिहास से कोई लेना देना नहीं है।
भारतीय शब्दावली में इसे धर्मनिरपेक्षता वाद कहा गया है। धर्म निरपेक्ष यानी कि जो धर्म से ही निरपेक्ष है, उस के पक्ष में कतई नहीं। दूसरी वह विचारधारा, जिसे इन्हीं के जैसे इतिहासकारों और तथाकथित प्रबुद्ध जनों ने राष्ट्रवाद का नाम दे रखा है। यह वह विचारधारा है जिसमें राष्ट्रीयता, अपनी संस्कृति और संस्कारों से प्रेम निहित हैं। इसमें धर्म युक्त आचरण अपेक्षित है और धर्म को सही मायने में दायित्व माना गया है। उदाहरण के लिए- पुत्र का पालन पोषण पिता का धर्म, माता पिता की सेवा पुत्र का धर्म, नागरिकों का हित करना राष्ट्र धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना नागरिक का धर्म माना गया है। इनके लिए कहा जाने वाला दक्षिणपंथी अथवा राष्ट्रवादी शब्द सर्वथा गलत है। भारत का किसी भी वाद से कभी कोई लेना-देना रहा ही नहीं।
पश्चिमी इतिहासों का अध्ययन करने के बाद हम यह पाते हैं कि 'वाद' का प्रादुर्भाव पश्चिमी मूल के 'इज्म' शब्द से हुआ है। यदि पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा रचित साहित्य की बात करें तो उसमें 'इज्म' अथवा 'वाद' उस प्रक्रिया को कहा गया है, जो अपना अधिपत्य अथवा मत बलात् स्थापित करने या फिर दूसरों पर थोपने हेतु बलपूर्वक अपनाई गई। इस दृष्टि से देखा जाए तो विदेशी और खासकर पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित वामपंथियों, धर्मनिरपेक्षता वादियों द्वारा दिए गए राष्ट्रवाद जैसे शब्दों को सही नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि वाद अथवा इज्म हमारे संस्कार में कभी रहा ही नहीं। यदि अपवाद स्वरूप देश के किसी राजा, बादशाह या फिर सामंत ने इसे बलात् थोपने के कुत्सित प्रयास किए भी, तो हमारे ही स्थानीय वीर योद्धाओं और विचारकों ने उन्हें सफल नहीं होने दिया। इनमें महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी और चंदबरदाई जैसे महामानवों के नाम लिए जा सकते हैं। हमारे ऐसे अनेक पूर्वज और हम देश प्रेमी अथवा राष्ट्रीयता के विचार से हमेशा ओतप्रोत रहे। हमारे देश में पहले राजशाही रही हो अथवा वर्तमान में लोकशाही, यहां के किसी भी शासक ने दूसरे राष्ट्रों के प्रति कभी भी ऐसा कोई कृत्य किया ही नहीं, जिससे वाद या फिर इज्म की तोहमत हम पर लगती हो। कहने का आशय यह कि सेक्यूलर वादियों और वामपंथियों द्वारा थोपे गए जिस राष्ट्रवाद शब्द का उल्लेख हम स्वयं भी अक्सर अपने राष्ट्र प्रेम से युक्त व्यवहार को लेकर अपने लिए करते रहते हैं, वह शब्द हमारी संस्कृति, संस्कारों और व्यवहार के अनुकूल नहीं। क्योंकि हम राष्ट्रवादी हैं ही नहीं, या तो हम राष्ट्रीय हैं अथवा फिर राष्ट्रप्रेमी।
लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि जो लोग हमें दक्षिणपंथी अथवा दकियानूसी कहते हैं, वे वास्तव में वामपंथी और सेक्युलर वादी ही हैं। इनमें से कुछ वे लोग हैं जो सेक्यूलरवाद अथवा धर्मनिरपेक्षता वाद की आड़ में तुष्टीकरण की फूट डालो राज करो वाली नीति अपनाते रहते हैं। दूसरे वाले लोग हैं जिन्हें भारत और भारतीयता से कोई लेना-देना नहीं। इनकी निष्ठाएं भारत के बाहर स्थित हैं। इनके लिए देश भारत माता ना होकर केवल एक जमीन का टुकड़ा है, जहां रहकर यह लोग अपनी राजनैतिक हितों की पूर्ति में लगे रहते हैं। अपना उल्लू सीधा करने में जुटे इन विचारधाराओं के पोषक लोगों का नारा बहुजन सुखाय हो सकता है। लेकिन जो राष्ट्र प्रेमी हैं और देश को मातृभूमि के रूप में पूजते हैं, उन्होंने हमेशा सर्वजन सुखाय की नीति का पालन करने में ही संतुष्टि की अनुभूति पाई है। लिखने का आशय केवल इतना सा है कि हम ना तो दक्षिणपंथी हैं और ना ही राष्ट्रवादी। हम राष्ट्रीय हैं और राष्ट्र प्रेमी हैं। और जो लोग इस विचारधारा का विरोध करते हैं वह निश्चित तौर पर अराष्ट्रीय और राष्ट्र शत्रु ही कहे जा सकते हैं।
( लेखक मप्र बाल आयोग के अध्यक्ष रहे हैं)