आयुर्वेद एवं पशु चिकित्सा के अंतरसंबंध

आयुर्वेद एवं पशु चिकित्सा के अंतरसंबंध
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डॉ. हेमेंद्र यादव

विश्व भर में पशुओं का पालन उपयोगिता के आधार पर होता है। यह भारतीय संस्कृति की महानता और अद्वितीयता है कि हमने पशुओं का उपयोग अवश्य किया है परंतु उनको केवल उपयोगिता तक सीमित नहीं रखा बल्कि उन्हें इसे कहीं ऊपर सहृदयता, करुणा और दया के साथ-साथ प्रेम और कतिपय अवसरों पर तो पूजा का पात्र भी माना है। आदिकाल से ही पशु मनुष्य के सहगामी रहे हैं। यदि हड़प्पा सभ्यता की बात करें तो वहां से हमें सांड के चित्र अंकित हुए सिक्के आज भी खुदाई में मिलते हैं। वैदिक काल में गाय को अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण दर्जा मिला हुआ था। सबसे वफादार कहा जाने वाला जीव कुत्ता शिकारी मानव का पक्का साथी रहा है। युद्ध के मैदान की बात करें तो ऐरावत और चेतक के किस्से आज भी हमारे रोम-रोम खड़ा कर देने का सामर्थ रखते हैं! आगरा किले के बाहर लगी वीर अमर सिंह के घोड़े की प्रतिमा इसका गवाह है।

अब यदि बात करें आयुर्वेद की तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आयुर्वेद प्रकृति का विज्ञान है। बेशक मनुष्य ने इसमें शोध और संशोधन करते हुए नए-नए अविष्कार किए हों परंतु वास्तव में प्रकृति ही आयुर्वेद की जननी है। ज्ञानी मनुष्य आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़कर जो कार्य करता है, हमारे चारों ओर विचरण करने वाले पशु प्रकृति की गोद में बिना किसी किताब को पढ़े उस ज्ञान का अंदेशा लगा लेते हैं। अपने घर के आस-पास पालतू कुत्ते और बिल्ली को कई बार स्वास्थ्य खराब हो जाने पर हरी घास या फिर लहसुन आदि के पत्ते खाते हुए आपने कई बार देखा होगा। यही नहीं अपच अथवा अजीर्ण हो जाने की दशा में पशु भोजन करना छोड़ देते हैं फिर चाहे उन्हें कुछ भी क्यों न परोस दिया जाए ।

आयुर्वेद पर आधारित पशु चिकित्सा अपने विशेष साहित्य के लिए जानी जाती है, जो पशु रोगों की रोकथाम और उपचार के तरीकों पर जानकारी प्रदान करती है। इनमें से कुछ उपचार आज भी प्रचलित हैं। दुनिया का पहला पशु अस्पताल भारत में सम्राट अशोक के काल में स्थापित किया गया था। आयुर्वेद से पशु उपचार की प्रथा, सम्राट अशोक के शासन से सदियों पहले भी भारत में मौजूद थी जैसा कि हमको समृद्ध ऋषि परम्परा से प्राप्त होता है। कई सदियों से और आज भी इन समृद्ध परंपराओं को जीवित रखते हुए, भारतीय उपमहाद्वीप भारत में जानवरों और पौधों के जीवन की सबसे समृद्ध जैव विविधता में से एक का दावा करता है।

प्रारंभिक वैदिक काल के दौरान देवताओं के प्रसिद्ध चिकित्सक अश्विनी कुमार भी पशु-चिकित्सा में विशेषज्ञ थे। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और हरितासंहिता जैसे भारतीय चिकित्सा ग्रंथों में रोगग्रस्त और स्वस्थ जानवरों की देखभाल के बारे में अध्याय या संदर्भ हैं। महाकाव्य काल के दौरान नकुल अश्व विद्या के महान प्रतिपादक थे, जिनका पशु-प्रजनन आदि पर 'अश्व चिकित्साÓ नामक ग्रंथ अब भी उपलब्ध है। वह मूत्र के रंग की जांच करके घोड़े की बीमारी का निदान करने में सक्षम थे। महाभारत काल में नकुल के जुड़वां भाई, जिनका नाम सहदेव था, भी पशुपालन में निपुण थे। उन्हें बीमार बैल के मूत्र के आधार पर रोग का निदान करने का कौशल प्राप्त था। हालाँकि, ऐसे चिकित्सक भी थे जो केवल जानवरों की देखभाल में या जानवरों के केवल एक वर्ग में ही विशेषज्ञता रखते थे; उनमें से सबसे महान शालिहोत्र थे, जो दुनिया के पहले ज्ञात पशुचिकित्सक और भारतीय पशु चिकित्सा विज्ञान के जनक थे।

अग्नि पुराण, अत्रि-संहिता, मत्स्य पुराण, स्कंद पुराण, देवी पुराण, गरुड़ पुराण, लिंग पुराण और कई अन्य ग्रंथों में आयुर्वेदिक चिकित्सा के उपयोग से पशु रोगों के उपचार का उल्लेख किया गया है। त्वचा, सींग, कान, दांत, गले, हृदय और नाभि के संक्रमण, रक्तस्रावी समस्याएं, पेचिश, पाचन रोग, सर्दी, परजीवी रोग, पेट के कीड़े, रेबीज, एनीमिया, घाव और दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए दवाओं का पशु चिकित्सा उपचार विस्तार से दिया गया है।

आयुर्वेद से पशु चिकित्सा लक्षणों के अलावा विकारों के मूल कारणों से निपटने के लिए प्रकृति-आधारित सामग्रियों का उपयोग करके एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है। अनुसंधान एवं विकास में उन्नत प्रौद्योगिकी-उन्मुख हाइफ़नेटेड तकनीकों को लागू करना गतिशील पशु चिकित्सा आयुर्वेद विज्ञान के छिपे हुए औषधीय लाभों को उजागर करने में एक शक्तिशाली उपकरण है। इसके साथ ही, भारत के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में प्रचलित प्रकाशित उपचार को साहित्य और पारंपरिक उपचारों के व्यवस्थित दस्तावेज़ीकरण और उन्हें एक ही मंच पर प्रकाशित करने की तत्काल आवश्यकता है। इन पारंपरिक दावों की अधिक वैज्ञानिक पुष्टि और मानक मानदंडों और प्रथाओं के अनुसार उत्पादों की गुणवत्ता नियंत्रण की आवश्यकता है। पशु-आयुर्वेद पर अधिक शोध और स्वीकार्यता को पशु चिकित्सा विज्ञान के नियमित पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की आवश्यकता है। पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालयों को इस क्षेत्र में अनुसंधान और विकास पर ध्यान देने के लिए आगे आना चाहिए और इस संबंध में, ऐसे विश्वविद्यालयों में पशु-आयुर्वेद पीठ की स्थापना की जानी चाहिए।

दीनदयाल कामधेनु गौशाला समिति का गौ ग्राम परखम में निर्माणरत गौविज्ञान अनुसंधान केंद्र एवं आयुर्वेद से पशुचिकित्सालय इस प्रयास में मील का पत्थर साबित होगा। वर्ष 2023 के मार्च माह में समिति ने हरिद्वार में आयुर्वेद से पशुचिकित्सा विषय पर संगोष्ठी कर इस विषय को मंच प्रदान करने का प्रयास किया है ।

(लेखक दीनदयाल कामधेनु गौशाला समिति दीनदयाल धाम फरह मथुरा में उपमंत्री है )

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