हिंदी के युग प्रवर्तक व राष्ट्रवादी साहित्यकार थे भारतेंदु हरिश्चंद्र
हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने तथा ब्रिटिश राज की शोषण प्रवृत्ति को अपनी कलम के माध्यम से उजागर कर पराधीनता के प्रतिकार के लिए जन जागरण करने वाले प्रख्यात साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र का आज जन्मदिवस है। उन्होंने समाज और राष्ट्र की चिंता को अपने लेखन की विषय वस्तु बनाया। रीतिकाल के पश्चात की युग संधि में आधुनिक हिंदी के स्वरूप को गढ़ने में शिल्पकार की भूमिका का निर्वहन करने के कारण ही उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहा जाता है। उस समय फारसी राजकाज और श्रेष्ठि वर्ग की भाषा थी, उसके प्रभाव वाली उर्दू की प्रचलन में आ गई थी, अंग्रेजी का दबदबा भी बढ़ता जा रहा था और साहित्य में ब्रजभाषा का बोलवाला था। ऐसे समय में भारतेन्दु ने लोक भाषाओंऔर फारसी से मुक्त हुई उर्दू के आधार पर खड़ी बोली का विकास किया। आज हम जो हिंदी चलन में देखते हैं, बोलते हैं, वह उनकी ही देन है। उन्होंने अपने लेखन और पत्रकारिता के माध्यम से भारतीय समाज की शोषक बनीं औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ निर्भीक होकर आलोचना की तथा उनके षड्यंत्रों और कुचक्र का अपने लेखन के माध्यम से खुलासा किया। वे हिंदी के युग प्रवर्तक और राष्ट्रवादी साहित्यकार थे।
विलक्षण प्रतिभा के धनी कवि, लेखक, पत्रकार, रंगकर्मी, और देश हितचिंतक हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को वाराणसी में हुआ था। उनके पिताश्री गोपालचंद्र 'गिरधरदासÓ के नाम से कविताएं लिखते थे। जब हरिश्चंद्र 5 वर्ष के थे तभी मां का देहावसान हो गया था तथा 10 वर्ष की उम्र पर पिता का भी निधन हो गया। बचपन अच्छा नहीं बीता। 5 वर्ष की आयु में पिता को एक दोहा बनाकर सुनाया था- 'ले व्योढ़ा ठाड़े भये श्री अनिरुद्ध सुजन,/ बाणासुर की सैन कों हनन लगे भगवान।।Ó उनकी बुद्धि प्रखर, हृदय संवेदनशील, ग्रहणशीलता और स्मरण शक्ति दोनों ही अद्भुत थीं। उन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, गुजराती, पंजाबी और उर्दू सीख ली थी। उन्होंने 15 वर्ष की आयु में साहित्य सेवा और 18 वर्ष कीआयु में 'कविवचनसुधाÓ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया था। 20वर्ष की आयु में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनाए गए।
हिंदी की निरंतर सेवा और उसके संवर्धन में संलग्नता तथा राष्ट्रभक्ति अंग्रेजी हुकूमत को अखरती थी, वे उसके कोप भाजन भी बने। काशी के विद्वानों ने उनकी अद्वितीय प्रतिभा को और लोकप्रियता को देख 1880 में भारतेंदु की उपाधि प्रदान की। उन्होंने कवि वचन सुधा के अतिरिक्त बालबोधिनी और हरिश्चंद्र मैगजीन ( बाद में नाम बदलकर हरिश्चंद्र चंद्रिका किया गया) का संपादन किया। उनके मौलिक नाटकों में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, सत्य हरिश्चंद्र, श्री चंद्रावली, विषस्य विषम औषधाम, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, अंधेर नगरी, प्रेम जोगनी, सती प्रताप प्रमुख है। उन्होंने करीब 40 काव्यकृतियों के अतिरिक्त कहानी, यात्रावृतांत, जीवनी, आत्मकथा उपन्यास, निबंध संग्रह, ऐतिहासिक ग्रंथ तथा भारत के अतीत की याद से संबंधित रचनाएं, विजयिनी विजय वैजयंती, प्रबोधिनी, भारत भिक्षा, भारत वीरत्व राजकुमार शुभागमन लिखकर अल्प आयु में ही हिंदी जगत को अपनी रचनाओं का अप्रतिम कोष प्रदान किया। इसी कारण 1857 से लेकर 1900 तक के काल को हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग माना जाता है। वे आधुनिक खड़ी बोली और गद्य के उन्नयन हैं उन्होंने साहित्य में भी नवीन चेतना का समावेश करते हुए साहित्य को 'जनÓ से जोड़ने का कार्य किया। वे हिंदी भाषा की उन्नति का मूल मंत्र देते हुए कहते हैं 'निज भाषा उन्नत अहेÓ सब उन्नति को मूल/बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को सूल।Ó उन्होंने देशवासियों में राष्ट्रीयता के भाव जागरण के लिए अंग्रेजों कि भारत विरोधी नीतियों का पर्दाफाश कर क्रांतिकारी विचारों से सरकारी नीतियों की अविरल रूप से आलोचना जारी रखी। अंग्रेज भक्त सामंती परंपरा वाले महाजनवादी परिवार में जन्मे भारतेंदु जनवादी के रूप में स्थापित हुए। 'तदीय समाजÓ का गठन उनकी समाज सेवा तथा देश सेवा का परिचायक था। भारतीय धन के विदेश जाने पर उन्होंने मुखर होकर चिंता व्यक्त की-'अंग्रेजी राज सुख साज सजे अति भारी /पर सब धन विदेश चलि जात यह ख्वारी।Ó, 'मारकीन मलमल बिना चलत कहूं नहीं काम/परदेसी जुलाहन के मानहु भये गुलाम।Ó वे देश की दुर्दशा के साथ वे भारत के प्राचीन गौरव को भी याद दिलाते थे -'भारत के भुजबल जग रच्छित/ भारत विद्या लही जगह सिच्छित/ भारत तेज जगत विस्तारा/ भारत भय कंपित संसारा।।Ó आधुनिक हिंदी के स्वरूप को गढ़ने तथा साम्राज्य विरोधी चेतना और स्वदेश प्रेम के विकास के लिए प्राणपण से संलग्न रहकर अमूल्य साहित्यिक निधि सौंपकर युगपुरुष भारतेंदु हरिश्चंद्र 6 जनवरी 1885 को हमारे बीच से महाप्रयाण कर गए।
(लेखक महिला एवं बाल विकास विभाग में संयुक्त संचालक है)