भारतीय आधार पर उच्च शिक्षा आयोग
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का समापन अपरिहार्य था। विदेशी तर्ज पर होने वाले प्रयोग सुधार पर भारी पड़ने लगे थे। तकनीकी सहयोग अपनी जगह है, लेकिन शिक्षा प्रणाली संबंधित देश की मूल प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए। शिक्षण संस्थान और शिक्षक के मूल्यांकन अथवा रैंकिंग का जो तरीका अपनाया गया ,उस पर व्यापक विचार की जरूरत है। अच्छे शिक्षक की कसौटी क्लास में विद्यार्थियों के बीच हो सकती है। लेकिन हमने एपीआई को शिक्षक की श्रेष्ठता का मापदंड मान लिया। इसी प्रकार शिक्षण संस्थान का आकलन अनुशासन और अच्छे शिक्षकों के आधार पर होना चाहिए। ऐसे शिक्षक जो अध्यापन के समय न्यूनतम अवकाश लें, अधिकतम क्लास लें। लेकिन उन्हें एपीआई की दौड़ में लगा दिया गया। ऐसे मापदंडों से क्या सुधार हुआ, इस को भी देखना होगा।
यह ठीक है कि उच्च शिक्षा का बजट कम हुआ है। लेकिन अधिक बजट कितने सार्थक कार्यो में व्यय हो रहा था, इस पर भी विचार करना होगा। प्रोजेक्ट, महंगे सेमिनार, ओरिएंटेशन, रिफ्रेशर, विभिन्न महापुरुषों के नाम पर पीठ की स्थापना आदि का कितना सार्थक लाभ हुआ, इसका भी आकलन करने का समय आ गया है। यह सही है कि परिस्थितियों के अनुरूप बदलाव करने होते हैं। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। केंद्र सरकार ने योजना आयोग के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भंग करने का निर्णय लिया है। यह समय के अनुरूप सुधार है। इसके माध्यम से उच्च शिक्षा में सुधार का कार्य तेजी से आगे बढ़ेगा। लोगों से सुझाव आमंत्रित करने के निर्णय को बहुत अच्छा माना गया। छात्र, अभिभावक, शिक्षक, शिक्षाविद आदि अपने सुझाव सात जुलाई तक भेज सकते हैं। यह भी बदलाव का एक हिस्सा है। पहले चुनिंदा शिक्षाविद बैठ कर निर्णय कर लेते थे। उन्हीं को थोप दिया जाता था। एक नेटवर्क तैयार हो जाता था। लेकिन अब जो आयोग बनेगा, उसका आधार व्यापक होगा। उसमें आमजन की भी भूमिका होगी।
संघीय शासन के स्तर पर अनेक बदलाव पहले ही हो जाने चाहिए थे। लेकिन यथास्थिति के हिमायतियों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। योजना आयोग जब बना था , उस समय की परिस्थितियां अलग थी। उनमें जमीन आसमान का अंतर आ गया। राष्ट्रीयकरण की जगह उदारीकरण, वैश्वीकरण का बोलबाला हो गया। वर्तमान सरकार ने योजना आयोग की जगह नीति आयोग बनाया। इसमें राज्यों की भागीदारी और हिस्सेदारी दोनों बढ़ाई गई। इसका लाभ हो रहा है। राजनीतिक पार्टियों का संघठन चाहे जो कहे, लेकिन उसी पार्टी की राज्य सरकार नई व्यवस्था को उचित मानती है। योजना आयोग पर पार्टी लाइन पर भेदभाव के आरोप लगते थे। नीति आयोग ने इस कमी को दूर किया है। इसी प्रकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी परिवर्तित स्थितियों में अप्रासंगिक होता जा रहा था। विदेशी विश्वविद्यालयों के मुकाबले के नाम पर तरह तरह के प्रयोग किये गए। शिक्षकों से अपेक्षा की गई कि वह एपीआई के लिए दौड़ते रहें। क्लास और पढ़ाई प्राथमिकता में नहीं रह गए।
यूजीसी एपीआई से शिक्षकों की योग्यता का आकलन करने लगा। क्लास रूम प्राथमिकता से बाहर हो गए। जबकि किसी शिक्षक की क्षमता का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन क्लास रूम में होता है। लेकिन एपीआई की दौड़ ने इस शाश्वत पक्ष को ही ध्वस्त कर दिया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग केन्द्र सरकार का एक उपक्रम था। सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों को अनुदान प्रदान करना इसका दायित्व था। यूजीसी ही विश्वविद्यालयों को मान्यता प्रदान करता था। इसकी स्थापना ब्रिटिश संस्था की तर्ज पर उन्नीस सौ छप्पन में की गई थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के अगले वर्ष डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन की नींव रखी गई थी। इसने सलाह दी थी कि स्वतंत्रता पूर्व के यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमिटी को फिर से गठित किया जाए। उन्नीस सौ छप्पन में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन किया गया था। उच्च शिक्षा आयोग का प्रमुख कार्य गुणवत्ता, शोध, पढ़ाई संवर्धन के नियम बनाने का होगा। यह आयोग एकल नियामक संस्था के रूप में कार्य करेगा। सभी स्तर के विश्वविद्यालयों के लिए आयोग नियम निर्धारित करेगा। अभी तक यह कार्य मंत्रालय करता था। रेगुलेशन डिग्री, नैक रिफार्म, विश्वविद्यालयों व कॉलेजों को स्वायत्तता देना, ओपन डिस्टेंस लर्निंग रेगुलेशन आदि का सारा कामकाज मंत्रालय के स्थान पर आयोग करेगा।
मंत्रालय सिर्फ वित्तीय कामकाज संभालेगा, जिसके तहत विश्वविद्यालयों व उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान देना, स्कॉलरशिप राशि आदि का भुगतान करना भी शामिल रहेगा। देशभर के छात्र, अभिभावक, शिक्षाविद, शिक्षकों व आम जनता से मिले सुझावों के तहत ड्रॉफ्ट बिल में बदलाव होगा। उसके बाद इस बिल को कैबिनेट में रखा जाएगा। कैबिनेट में पास होने के बाद मानसून सत्र में संसद में पास होने के लिए भेज दिया जाएगा। नियम का उल्लंघन करने वालों को सजा देने का प्रस्ताव किया गया। रेगुलेशन, नियम व सुझावों को यदि कोई संस्थान मानने से इनकार करता है, या नियमों का पालन नहीं करता है तो उक्त संस्थान की मान्यता रद्द होगी। जिस कोर्स या डिग्री में संस्थान नियम का पालन नहीं करेंगे तो उस कोर्स या डिग्री को पढ़ाने की मंजूरी भी वापस ले ली जाएगी। ऐसे संस्थानों के प्रबंधन से जुड़े शीर्ष अधिकारी व मुख्य कार्यकारी अधिकारी पर जुर्माना लगाने का भी प्रावधान है। इसके अलावा दोषी पाए जाने पर इन अधिकारियों को तीन साल या उससे अधिक की सजा भी हो सकती है।
उच्च शिक्षा आयोग के गठन संबन्धी प्रारंभिक मसौदे की कुछ बातें बड़े सुधार के प्रति आश्वस्त करती हैं। इसमें मनमाने ढंग से संचालित होने वाले संस्थानों पर नकेल कसने और नियमों को न मानने पर दंडात्मक कार्रवाई का प्रस्ताव है। उदारीकरण के नाम पर निजी शिक्षण संस्थानों की बाढ़ आ गई। अपवाद छोड़ दे तो इनका उद्देश्य विशुद्ध व्यवसायिक है। इस ओर कठोरता से ध्यान देना होगा। मसौदे में गुणवत्ता, शोध और पढ़ाई इन तीन शब्दों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया।
उच्च शिक्षा में इसी की कमी होती जा रही है। पिछली केंद्र सरकार ने रैंकिंग, नैक,एपीआई, पर पूरा फोकस कर दिया था। ऐसा लगा कि शिक्षा , शिक्षण संस्थान और शिक्षकों की एक मात्र सिद्धि यही है। करोड़ों रुपये रंग रोगन पर खर्च होने लगे। इसे भी रैंक से जोड़ दिया गया। संस्थान का पूरा स्टाफ महीनों तक इसी में लगा दिया गया। क्लास फिर उपेक्षित हुए। पता नहीं हम विदेशी विश्वविद्यालयों के मापदंड भारत में लागू करने के लिए इतने बेकरार क्यों हैं। पूरा पाश्चात्य समाज खुद ऐसे जाल में उलझ गया है जहां से बाहर निकलने का रास्ता उनको नहीं मिल रहा है। उपभोगवाद ने उन्हें विकास के नाम पर परेशानी के माहौल में पहुंचा दिया है। परिवार, समाज बिखर रहे हैं। नैतिकता का कोई महत्व नहीं है। पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है। कार्बन उत्सर्जन खतरे के निशान को पार कर रहा है। हम इस दौड़ में शामिल होने को बेताब हैं।गुणवत्ता का मापदंड भारतीय परिवेश के अनुकूल होना चाहिए। हमारी शिक्षण संस्थाओं की रैंकिंग अमेरिका और यूरोप के ग्राफ से नहीं हो सकती। अंग्रेजों और उसके बाद वामपंथी शिक्षाविदों ने जो आत्मगौरव विहीन गुणवत्ता कर मापदंड बना दिये हैं, उससे मुक्त होना पड़ेगा। जब ऐसा हो जाएगा, तब शोध का स्तर भी अपने आप सुधर जाएगा और क्लास की शिक्षा फिर सबसे महत्वपूर्ण हो जाएगी।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )