चिंउटी के मुख हस्ति समाय

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वज्रपात :संघर्षपोषितों का अन्तर्द्वन्द्व व दुराग्रह

डॉ. आनन्द पाटील

भारत सदा से ही एकात्म 'राष्ट्र रहा है। इस भूमि में जन्म लेने वाले सभी माँ भारती की सन्तानें हैं। 'विष्णु पुराण में उल्लेख है- 'उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:। इसे न जाने कितनी ही बार, कितने ही प्रसंगोंं में पुन:-पुन: उधृृत किया जाता है ताकि भारतीय एकता व अखण्डता क्षतिग्रस्त न हो। इस सत्य के बावजूद यदि कोई कहे कि इस राष्ट्र में अनेक राष्ट्रीयताएं हैं, तो निश्चय ही वह राष्ट्र कण्टक व भारत विखण्डनकारी कहलायेगा। क्योंकि पृथक तत्व न होने के बावजूद यदि उसे सामाजिकों पर हठात् आरोपित किया जाये, तो वह पृथक तत्व शनै:-शनै: अमिट व सामाजिक सत्य (स्थापित) बनता चला जाता है। मराठी में एक कहावत है - 'खोटं बोल पण रेटून बोल। अर्थात् हठात् झूठ बोलना। भारतीयों पर आरोपित पृथकत्व एवं बहुलतावाद को मराठी की कहावत के आधार पर मूल्यांकित किया जा सकता है। वास्तव में, पृथकत्व एवं बहुलतावाद का प्रचार करने वाले भारतवासियों की सजातीय अन्तर्सन्बद्धता व अन्तर्सूत्रात्मकता को अपनी संघर्षपोषी विचारधारा में पुष्पित-पल्लवित नहीं होने देते। आप कह कर देखिए कि हम सब एक हैं, तो कहेंगे, 'अरे! बाप रे बाप! यह क्या कह रहे हैं आप? हम सब किस रूप में एक हैं? और, छिद्रान्वेषण करते हुए बतायेंगे कि हम सब भारतीय कैसे-कैसे और कहाँ-कहाँ भिन्न हैं। नाक की सीध से लेकर उसके छिद्रों-दरारों तक। नाक के बालों से लेकर भौहों के बालों तक, बल्कि उनकी सघनता व वक्रता तक। अवर्ण से लेकर सवर्ण तक। लिंग, रंग, रूप, बोली, भाषा, क्षेत्र, प्रान्त, बल्कि यहाँ तक कि कोतवाली तक। और भी, भीतर-भीतर, खाँचने से बने खाँचों तक। अपनी मुहावरेदार लच्छेदार वाणी में कहते हैं -'कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी। फिर, हम सब एक कैसे हो सकते हैं भला?

ध्यान दीजिए कि उनके विचारों में ही नहीं, कहीं भी, कुछ भी सीधा नहीं होता, किन्तु आशय अवश्य प्रकट होता है। उनके साधारण संवाद से लेकर विशुद्ध बौद्धिक रचनाओं तक घनीभूत तिमिराच्छन्नता का सहज दर्शन होता है। ऐसे पृथकतावादी एवं भिन्नताग्रहियों के मन व मंशा को स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान हमने देखा है। और, स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त अत्यन्त त्रासद रूप में जिया-भोगा भी। उस त्रासदी को हम आज तक भोग ही रहे हैं। हमारे भीतर जो टूटा, वह क्या कभी जुड़ भी सकेगा, यह यक्ष प्रश्न बन बैठा है। मराठी में एक लोकोक्ति है - 'कर्माचे भोग येथेच भोगावे लागतात। जबकि हम उनके द्वारा रोपित-आरोपित कर्मों को आज तक जीने-भोगने के लिए बाध्य हैं। साम्प्रतिक समय में भी उस प्रकार के नाना आग्रहों का विभिन्न स्तरों पर प्राकट्य है। जबकि राष्ट्रीय भावाधारा इस पक्ष पर निरन्तर चिन्तनरत है तथा आग्रह कर रही है कि लोग जिस राष्ट्र की राष्ट्रीयता को धारण करते हैं, उसके हितार्थ अपनी शर्तों (विचारधारा) से परे जाकर विचारों का परिष्कार करने से ही राष्ट्र की एकता व अखण्डता की सम्भावनाएँ नित्य वर्धित होती हैं।

यदि कोई राष्ट्रेतर विचारधारा की मार में, सत्य से अति दूर तथा दुराग्रह में अथवा स्वार्थवश एकात्म रूपी राष्ट्र को येन-केन प्रकारेण अथवा चित्तविक्षेप से खण्डित करने का यत्न करने लग जाये, तो राष्ट्रीयत्वग्राही मन, राष्ट्र की चिन्ता करते हुए मुक्तिबोध के शब्दों में कहता है - 'मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!Ó स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से संघर्षपोषी विचारधारानुयायियों द्वारा भारतीय शिक्षा एवं संस्थानों में बहुलतावाद, पृथकतावाद, वैभिन्य इत्यादि इतनी गहराई से व व्यापक रूप में रचा-रोपा और आरोपित किया गया है कि उससे शिक्षा एवं संस्थानों की स्थिति आज भी, अर्थात् भारतीय चिन्ता के स्वाभाविक विकास से उपजी सरकार के सत्तासीन होने के बावजूद, अत्यन्त दयनीय एवं शोकास्पद स्थिति में है। एक उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान के भूतपूर्व मुखिया ने एक समारोह में अपने भावप्रवण भाषण में, जिसमें व्यंजना व ब्याज निन्दा अलंकार की मार अधिक थी, कहीं-कहीं ब्याज-स्तुति भी, कहा कि 'इस देश में एक ही विचारधारा कायम नहीं हो सकती।Ó आप जानिए कि किसी भी उच्च पदस्थ अथवा भूतपूर्व के मुखारविन्द से निकलने वाली प्रत्येक बात में उच्चता (श्रेष्ठता) होगी ही - पूर्वाग्रही धारणा है। उच्च पद एवं वैचारिक उच्चता का एक साथ पाया जाना प्राय: दुर्लभ है, किन्तु उच्च पदस्थों की पदपरिक्रमा तथा चरणचुम्बन करने के अभ्यस्त, उनके द्वारा कहे प्रत्येक शब्द को ब्रह्म (अकाट्य) मान कर अपनी मति व प्रज्ञा का सहज ही दर्शन-प्रदर्शन कर जाते हैं। तो, भूतपूर्व मुखिया की उक्त बात पर पदपरिक्रमानुग्राही व अनुयायियों ने जम कर तालियाँ पीटीं। किन्तु, उसी भाषण में उन्होंने अपने लेखक से मुखिया बनने की घटना का आत्ममुग्धतापूर्ण स्मरण-वर्णन भी किया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि उन्हें पदारूढ़ कराने में कौन-कौन और कौन-सी उदारमना विचारधारा कार्यरत थी। उस पूरे प्रकरण के मुक्ताकण्ठी वर्णन में उनकी एकछत्र सत्ता के वर्षों में उस उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान में क्या-कुछ और किस प्रकार घटित होता रहा, तत्सम्बन्धी प्रमाण सहित उदाहरण उसी समारोह में, उन्हीं के तथा अन्य वक्ताओं के भाषणों, आत्मावगत कथनों में सुनने को मिले। उस सभा में उपस्थित बहुसंख्यकों की करतल ध्वनि, किलकारियाँ, हूटिंग से यह स्पष्ट होता रहा कि उनके विपरीत विचारधारा की सरकार के कार्यकाल में भी उस संस्थान में कौन-सी विचारधारा हावी है। वह सभा, समारोह, उसमें उजागृत वैचारिक व वाणी का हल्कापन, साथ ही साथ अहं ब्रह्मास्मि का भाव, विरोधाभासी कथनों की प्रचुरता जीवनपर्यन्त सहज ही स्मरण रहेगी। मुखिया 'लोकतन्त्रÓ, 'अनशनÓ, 'परम्पराÓ इत्यादि शब्दों का प्रयोग कर अपनी लोकतान्त्रिकता का परिचय देने का प्रयत्न करते रहे, किन्तु उनके उस प्रयत्न को मात दिये जाने वाले उदाहरण उन्हीं की वाणी में उजागर भी होते रहे। उनके कार्यकाल में उन्हीं के द्वारा उस उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान में सैकड़ों रचनाकारों को आमन्त्रित किये जाने का सन्दर्भ खंगालते ही उनका उपरोक्त कथन सर्वथा अनुपयोगी व वर्तमान पर लादा जाने वाला प्रतीत होता है, क्योंकि आमन्त्रित रचनाकारों में विपरीत धारा के कितने रचनाकार आमन्त्रित थे, सब जानते हैं। हिन्दी जगत् उस सम्मेलन की वास्तविकता को भलीभाँति जानता है।

यहाँ मुद्दे की बात यह है कि 'इस देश में एक ही विचारधारा कायम नहीं हो सकतीÓ, कहने वालों ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से भारतेतर सिद्धान्तों की गिरफ़्त में भारतीय चिन्तनधारा को अछूत बना कर हाशिये से भी बाहर फेंक दिया था। जबकि भारतीय चिन्ता के स्वाभाविक विकास से उपजी सरकार के सत्तासीन होने के बावजूद भारतीय धर्म एवं दर्शन की उदारता, सर्वकल्याणकारिता व सर्वसमावेशिता की पराकाष्ठा सहज ही दर्शनीय है। वर्तमान सत्ता की उदारता, सहिष्णुता. सर्वसमावेशिता का आकलन उपरोक्त अविस्मरणीय सभा में बहुसंख्यकों की तालियाँ, किलकारियाँ तथा हूटिंग के ध्वनि-विवेचन से भी किया जा सकता है। यह निर्विवाद सत्य है कि उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थानों में आज भी भारतेतर व भारतीय एकतारोधी धारा का ही वर्चस्व है। जो इतने वर्षों में सत्ता का स्वाद चख रहे थे, वे सत्ता परिवर्तित होते ही पदपरिक्रमानुग्राही बन कर यत्र-तत्र-सर्वत्र छा चुके हैं। भारतीय चिन्ता के स्वाभाविक विकास से उपजी सरकार सबको साथ लेकर चलने के आग्रह में उनके पूर्वाग्रह एवं दुराग्रहों का मूल्यांकन करने में साग्रह निष्क्रिय है। अंग्रेज़ी में एक मुहावरा है - 'डिवाइडेड वी फॉलÓ। 'फॉलÓ की स्थिति में पुन: शक्ति संचय कर लड़ने और खड़े होने की सम्भावना होती है, किन्तु 'डिवाइडेडÓ, क्रिया का भूतकाल रूप है और वह ऐसी क्रिया है, जिसके अन्त में 'डेडÓ अर्थात् भूत (काल कवलित) हो जाना विद्यमान है। भूत होने के उपरान्त भूत-पूजा ही शेष रह जाती है। इसलिए भूत होने के भय से ही सही, संघर्षपोषी विचाराग्रही रचनाकारों तथा उनके भटके हुए मतानुयायियों को भारतीय होने का वास्तविक अर्थ समझना चाहिए। लेखक का उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट होना, केवल उसकी सङ्गत-सोहबत से नहीं, अपितु उसके सहज संवाद, लेखन एवं वक्तव्यों से प्रमाणित होता है। ध्यातव्य है कि जो राष्ट्र की चिति से विमुख हो, उसे राष्ट्रीय दृष्टि से निकृष्ट ही कहा जायेगा।

(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)

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