जलवायु सम्मेलन के प्रतिफल
जलवायु सम्मेलन हों या पृथ्वी सम्मेलन, सभी का आशय कहें या तात्पर्य यह रहता है कि हम धरती का बुखार कैसे कम करें या यूं कहें कि दिन-ब-दिन तेजी से बढ़ रहा धरती का तापमान कम करने की दिशा में ऐसा क्या करें जिससे विनाश की ओर अग्रसर मानव जाति को बचाया जा सके। अभी तक दुनिया में जितने भी ऐसे सम्मेलन हुए हैं, उनके मूल में यही अवधारणा रही है। पिछले दिनों दुबई में लगभग दो सप्ताह चले दुनिया के करीब 200 देशों के कॉप-28 यानी कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज-28 के सम्मेलन के आयोजन के पीछे भी यही आशा-आकांक्षा थी कि इसमें जलवायु परिवर्तन को रोकने और भविष्य में उससे मिलने वाली चुनौतियों से कैसे निपटा जाये और इस दिशा में किस तरह की तैयारियां की जायें। यहां यह भी जान लेना जरूरी है कि कॉप-3 में क्योटो प्रोटोकाल पर सहमति बनी, कॉप -8 में गरीब देशों की विकास सम्बंधी जरूरतों व जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने हेतु प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की जरूरत पर बल दिया गया, कॉप-16 में कानकुन समझौता हुआ जिसमें हरित जलवायु कोष, प्रौद्योगिकी तंत्र व कानकुन अनुकूलन ढांचे की स्थापना हुई तो कॉप-21 में पेरिस समझौता हुआ जिसमें वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल से दो डिग्री सेल्सियस नीचे रखने और इसे बाद में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के प्रति प्रतिबद्धता जतायी गयी थी। कॉप-28 से पहले आयी संयुक्त राष्ट्र की अनेकों रिपोर्टों में यह कहा गया था कि आठ साल पहले यानी 2015 में हुए पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में वैश्विक स्तर पर कोई भी उचित प्रयास नहीं हुए हैं जिनकी बेहद जरूरत थी।
गौरतलब है कि दुबई में कॉप-28 जलवायु सम्मेलन ऐसे समय हुआ जबकि जलवायु परिवर्तन न केवल वास्तविकता बन चुकी है बल्कि पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरों का बुरी तरह सामना कर रही है। अब यह साबित हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन से दुनिया को होने वाला नुकसान साल दर साल बढ़ता जा रहा है। इससे हर साल दुनिया को अरबों डालर की चपत लग रही है। हकीकत में दुनिया की जीडीपी को 1.8 फीसदी का नुकसान हो रहा है जो करीब 1.5 खरब डालर के बराबर है। वहीं भारत को करीब 8 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से कोई अछूता नहीं है। इसका प्रभाव गरीबों पर ही नहीं, इंसान के मस्तिष्क, हृदय पर भी घातक प्रभाव पड़ रहा है। यहां तक जानवर भी इसके दुष्प्रभाव से अछूते नहीं रहे हैं। यूरोपीय जर्नल ऑफ प्रिवेंटिव कार्डियोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण 2019 में दुनिया में 11.94 लाख लोगों की मौत हुयीं हैं। यूरोप में पिछले साल 70 हजार जबकि भारत में 7 लाख मौतें हुयीं। यह इस बात का जीवंत प्रमाण है कि इस बाबत अभी तक उठाये कदम किस तरह बौने साबित हुए हैं। इस लिहाज से यह सम्मेलन महत्वपूर्ण था।
महत्वपूर्ण इसलिए भी कि इस सम्मेलन में पहली बार जलवायु परिवर्तन के संकट की व्यापकता और इस बारे में तत्काल कार्यवाही की जरूरत महसूस की गयी और इस सत्य को पहचाना ही नहीं, स्वीकार भी किया गया कि इस संकट के समाधान हेतु हमें आपस में न केवल सहयोग करना होगा बल्कि साथ-साथ इसका मुकाबला करना होगा। बावजूद इसके कि संपन्न और वंचित देशों के बीच विभाजन की खाई पहले की तरह बरकरार बनी रही। इसे आप सम्मेलन की सफलता कह सकते हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन की समस्या के मुकाबले के लिए सबसे बडी़ जरूरत पूंजी की है, कोष की है। जबकि यह मामला बरसों से विकसित देशों की इस बाबत आनाकानी के चलते उलझा हुआ है। जबकि सम्मेलन के अंतिम दिन जो सहमति बनी उसके अनुसार, सभी देश जीवाश्म ईंधन की जगह स्वच्छ ऊर्जा की ओर रुख करें और 2050 तक नेट जीरो तक पहुंचने, हरित ऊर्जा को साल 2030 तक तीन गुना तथा ऊर्जा दक्षता को दोगुना करने,ट्रांजिशन फ्यूल का जिक्र करने ( गौरतलब है इसका गैस से संदर्भ माना जा सकता है), देशों को अपने स्वैच्छिक जलवायु लक्ष्य 2024 तक पूरे करने और अमीर देशों द्वारा अपने जंगलों को कार्बन आफसेट के रूप में उपयोग करने के लिए गरीब देशों को भुगतान करने के जिक्र को यदि सम्मेलन की सफलता करार दी जाये तो इसे उपलब्धि तो नहीं माना जा सकता। असलियत में अहम सवाल यह है कि कार्बन कैप्चर तकनीक के जरिये नेट जीरो की राह बेहद खर्चीली है। इस तकनीक से 2050 तक नेट जीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए दुनिया को 30 खरब डालर की राशि अधिक खर्च करनी पड़ेगी। यह आसान नहीं है। विशेषज्ञों की नजर में इस तकनीक पर निर्भर रहना उचित नहीं है क्योंकि इससे सरकारें खुद को प्रतिस्पर्धी नुकसान की स्थिति में डाल लेंगी।
देखा जाये तो हमें यह समझ लेना होगा कि चुनौती बहुत बड़ी है। केवल प्रस्तावों से कुछ नहीं होने वाला। वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार घरेलू कार्यों, परिवहन और बिजली उत्पादन आदि के लिए जीवाश्म ईंधन का उपयोग है। इस पर अंकुश बेहद जरूरी है। लेकिन 2050 तक जलवायु संकट के प्रमुख कारक जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल और उचित व न्यायसंगत तरीके से खत्म किये जाने पर सहमति एक अच्छा संकेत तो है लेकिन इसके लिए 27 वर्ष का समय देना न्यायोचित नहीं है। उस स्थिति में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में त्वरित कटौती की बात और स्वच्छ दुनिया की उम्मीद करना बेमानी है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)