अविश्वास पैदा करने वाला कोर्ट का निर्णय?
निठारी कांड के फैसले ने एक बार फिर जनमानस में गहरा रोष उत्पन्न किया है। नोएडा के चर्चित झकझोर देने वाले खूनी कांड के नरभक्षियों, नर-पिशाचों व आदमखोरों को कोर्ट से राहत मिल गई है। देशवासियों की जनभावनाओं का खयाल करें, तो लगता है कि कोर्ट के निर्णय ने उनके साथ विश्वासघात किया है। पर, थोड़ा समझना होगा कि आखिर इसमें कोर्ट की गलती क्या है? किया धरा सब कुछ जांच एजेंसियों का है जिन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का बेजा इस्तेमाल किया। केस को हल्के में लिया, उसकी गंभीरता को नहीं समझा? शुरूआत की जरूरी जांच पड़ताल में घोर लापरवाही दिखाई।
अदालतों के तय उसूलों और मानकों को हमें समझना होगा। वहां ठोस सबूत, गवाह और साक्ष्य चाहिए होते हैं, जो निठारी कांड में जांच एजेंसियां अदालत रूम में प्रस्तुत नहीं कर सकीं। समूचे केस में अगर देखें तो जांच एजेंसियों की नाकामियां कोई एक नहीं, बल्कि बहुतेरी हैं। बिंदुवार तरीके से समझें, तो शुरूआत में स्थानीय पुलिस ने दोनों आरोपियों की मेडिकल जांच नहीं करवाई जिस पर कोर्ट ने हमेशा कड़ी फटकार लगाई। एसडीए ने भी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी। वहीं, दूसरी सबसे बड़ी विफलता बरामद कंकालों की फॉरेंसिक कानूनी प्रक्रियाएं को नहीं अपनाया। इसके अलावा सीबीआई ने अरेस्टिंग के वक्त, साक्ष्यों की बरामदगी के दौरान व इकबालिया बयानों में जरूरी बिंदु गायब किए। सीबीआई ने अपनी कस्टडी में पंधेर और कोली को 72 दिन अपने पास रखा। तब भी उनसे कुछ नहीं उगलवा पाई। जब कुछ हाथ नहीं लगा तो एक झूठा और मनगढ़त कागजों का पुलंदा बनाकर कोर्ट में प्रस्तुत कर दिया, जिसे जजों की बेंच में रद्दी मानकर खारिज कर दिया और निर्णय गुनहगारों के पक्ष में सुना डाला।
जघन्य कांड पर कोर्ट का निर्णय बेशक दोषियों के लिए जीत है। पर, उससे कहीं बड़ी हार जांच एजेंसियों की है। उनकी नाकामी सरेराह कोर्ट के जरिए निलाम हुई है। निठारी कांड की तरह आरूषी हत्याकांड में भी कमोबेश कुछ ऐसा ही हुआ था। उस केस में भी नीचे से ऊपर तक की जांच पड़तालें कोर्ट में धराशायी हुई। हालांकि, निठारी कांड इसके बाद भी निश्चित रूप से सर्वोच्च अदालत में जाएगा। लेकिन, वहां भी कुछ होने वाला नहीं? क्योंकि सुप्रीम कोर्ट भी पूर्व के साक्ष्यों को आधार मानकर केस को देखेगी। ऐसा भी नहीं है कि अब कोई नया साक्ष्य जांच एजेंसियां जुटा लें। वो पहले भी खाली हाथ थी और आगे भी रहेंगी।
गौरतलब है कि अदालतों के भीतर आमजन की भावनाओं और असंतोष से मजबूत न्याय की कसौटी कभी भी और किसी भी सूरत में कमजोर नहीं पड़ती। इलाहाबाद हाईकोर्ट का निठारी कांड में आया ये ताजा निर्णय उसकी बानगी मात्र है। जहां ट्रायल कोर्ट के फैसले और फांसी की सजा को न सिर्फ गलत करार दिया। अपितु, स्थानीय पुलिस, लोकल जांच पड़तालें और बाद में सीबीआई की जांच रिपोर्ट पर प्रत्यक्ष रूप से सवाल उठाए गए हैं। जघन्य कांड के दोषी पंधेर और कोली के खिलाफ जितने मजबूत सबूत होने चाहिए थे, उतने नहीं मिले? इसलिए हाईकोर्ट के पूर्व के फैसले को पलटा गया। कोली को 12 मामलों में और पंढेर को दो केस में दोषमुक्त किया है। कोली को एक मामले में उम्रकैद की सजा है जिसके चलते वो जेल में ही रहेगा। पंधेर शायद जेल से आजाद भी हो जाए। पीड़ित पक्ष इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं। बावजूद इसके जांच टीम पर टिप्पणी और खाकी की आनन-फानन में होती कार्रवाई पर उठे सवाल उन्हें सबक देने के लिए बहुत है।
देश की जन-भावनाएं आहत हैं। वो कोर्ट के निर्णय को अंधा कानून कह रही हैं। वाजिब भी है, लेकिन असल सच्चाई से वह अनभिज्ञ हैं। कोर्ट में मामला पूरे 13 वर्ष तक चला। हर दिन और हल पल पीड़ित परिवारों को उम्मीदें रही, कि दोनों दोषी फांसी के फंदे पर एक न एक दिन झूलेंगे? पर, वैसा हुआ नहीं? जांच पड़ताल की नाकामियों ने दोषियों की किस्मत अच्छी लिख दी है। तभी, फांसी का फंदा एक दफा फिर उनके गले से आकर फिसल गया। जबकि, 12-13 मामलों में फांसी की सजा पहले से मुकर्रर हो चुकी थी। 29 दिसंबर 2006 को मोनिंदर सिंह की खूनी कोठी से 19 नर-कंकाल मिले थे, जो छोटी-छोटी बच्चियों के थे। 13 फरवरी 2009 में पंधेर और कोली पर आरोप तय हुए जिसमें बच्चियों के अपहरण, दुष्कर्म, हत्या और उनका खून पीना-मांस खाने आदि को लेकर अदालत ने मौत की सजा सुनाई। इसके बाद दोनों ने क्षमा याचिका के लिए राष्ट्रपति को एक याचिका भी भेजी थी, जिसे राष्ट्रपति ने बिना देर किए रद्द कर दिया था। उस याचिका में भी दोनों नर-पिशाचों ने अपना गुनाह कबूला था। बावजूद इसके कोर्ट ने सबूतों का अभाव माना और बरी करने का निर्णय दिया।
ये भी सच है, अदालतों में जब केस पहुंचते हैं, तो न्यायाधीश पहली नजर में केस की तासीर को भांप लेते हैं। लेकिन नियम-कानूनों से बंधे होते हैं। कोर्ट के नियमानुसार कोई भी अदालत अभियुक्तों को निष्पक्ष सुनवाई से वंचित नहीं कर सकतीं। हालांकि, निठारी कांड में इलाहाबाद कोर्ट ने अपने निर्णय में भावुक होकर ये भी कहा है कि निश्चित रूप से ये फैसला जनमानस में अविश्वास पैदा करने वाला होगा। लेकिन केस में जांच एजेंसियों ने अत्यंत अमानवीयता निभाई और जांच सही तरीके से नहीं की। पर, सभ्य सामाजिक संस्कृति हमेशा यही दुहाई देगी, कि ऐसे नरभक्षियों का खुले में घूमना, दूसरी घटनाओं को दावत देना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)