भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण

भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण
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शिरोमणि दुबे

जिस देश की भोर राम-राम से शुरू होती है। राम नाम से ही जीवन की यात्रा पूर्ण होती है जिस देश में संविधान की प्रस्तावना राम दरबार के बिना पूर्ण नहीं होती, अपार-अथाह सागर भी प्रभु राम के पौरुष-पराक्रम के आगे अपने जीवन की भीख माँगता है। परंतु इससे बड़ी राष्ट्रीय विडंबना और क्या हो सकती है? उन्हीं मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भारत जैसा विशाल देश पाँच शताब्दियों तक छोटी सी छत मुहैया नहीं करा सका।

1528 की वह तारीख भी इतिहास में दर्ज है जब फारस के आक्रांता बाबर के सिपहसालार दरिंदे मीरबाकी ने भारी लाव-लश्कर के साथ 84 खंबों से निर्मित रामलला के भव्य मंदिर को जमींदोज कर दिया था। तब से अब तक राम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए 76 बार युद्ध हुए हैं। पाँच शताब्दियों तक चले इस लंबे संघर्ष में अनेक बार सरयू हिंदुओं के शौणित से लाल होती रही। चार लाख राम भक्तों का बलिदान हो गया। बीती शताब्दियों में सरयू में आचमन कर अयुद्ध नगरी अयोध्या अपने रामलला की मुक्ति के लिए छटपटाती रही। अब समय ने करवट बदली है। इतिहास स्वयं को दोहराने के लिए मचल उठा है। 22 जनवरी 2024 को रामलला टेंट से बाहर निकलकर ठाठ-बाट के साथ आसमान से ऊँचे अपने घर में विराजमान हो चुके हैं। गली-गली चौक-चौबारे पर दीयों के प्रकाश से देश जगमगा उठा है। इतिहास में कुछ पल ऐसे होते हैं जो हमारे पौरुष-पराक्रम की निशानदेही बन जाते हैं। 22 जनवरी 2024 को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के चंद लम्हे आने वाले हजार वर्षों तक भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के केंद्र में बने रहेंगे।

लेकिन इस देश की शोकांतिका यह है कि देश में एक वर्ग ऐसा भी है, जो रामलला की प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव को नकारने की कोशिश में लगा हुआ है। यद्यपि देश इन वामपंथियों, नकारपंथियों को पहचानने लगा है। देश जानता है कि ये वही लोग हैं जो राम के अस्तित्व को नकारते रहे हैं। देश उस तथाकथित सेक्युलर बिरादरी से खबरदार है, जो सुप्रीम अदालत में प्रकरण की सुनवाई रोकने के लिए वकीलों की फौज खड़ी करती है। देश आज भी शरद कोठारी, राम कोठारी जैसे हजारों कारसेवकों के बलिदान को भूला नहीं है। रामभक्तों को वह तारीख भी याद है जब संसद में खड़े होकर कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने बाबरी मस्जिद को फिर से बनाने का वादा देश की जनता से किया था। वे चेहरे, वे राजनीतिक दल जनता के जेहन में आज भी हैं, जो जन्मस्थान पर अस्पताल बनाने की वकालत करते थे। देश की जनता नकार टूल किट गैंग से पूछ रही है। बताओ, तुमने 500 वर्षों बाद वनवास से लौटे रामलला के भव्य दर्शन के निमंत्रण को क्यों ठुकरा दिया? अब जनता जनार्दन ने भी तय कर लिया है कि राम से बैर रखने वाले पनौती गैंग को लोकतंत्र के आने वाले महापर्व में बीन-बीन कर साफ किया जाएगा। राम जन्मभूमि का आंदोलन केवल बाबरी ढांचे के विध्वंस की कहानी नहीं है। यह संघर्ष किसी सल्तनत की सूबेदारी में छेड़ा गया आक्रामक टकराव भी नहीं है। अयोध्या आंदोलन शताब्दियों से दमित, अपमानित भावनाओं का अतिरेक भी नहीं है। यह आंदोलन 76 बार के युद्धों में लहू से लाल होती रही सरयू में अचानक उठा उबाल भी नहीं है। यह तो बहुप्रतीक्षित राष्ट्र निर्माण का संकल्प है, जो 22 जनवरी को पूर्ण हुआ है। अब अयोध्या हिंदुत्व के पुनरोदय की प्रतीक बन गई है। रामलला के भव्य मंदिर का लोकार्पण करोड़ों भारतीयों के स्व के प्रकटीकरण का प्रस्थान बिंदु है। जेएनयू से जाधवपुर तक देश तोड़ने का नारा लगाने वाले खालिदों-कुमारों को सनातन का सख्त संदेश है सरयू संघर्ष। सर तन से जुदा के नारे लगाने वालों के विरुद्ध 100 करोड़ हिंदुओं की अंगड़ाई है, प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव।

1947 में स्वाधीनता के बाद सोमनाथ मंदिर की तर्ज पर दासता के सभी अवशेषों को हटाने का राष्ट्रीय कार्य सरकारों को आगे आकर करना चाहिए था। यद्यपि दुनिया में सैकड़ों देश ऐसे हैं जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता के साथ ही गुलामी के प्रतीकों को मिट्टी में मिला दिया, लेकिन इस देश की सेक्युलर बिरादरी दासता के चिन्हों को हटाने की बजाए बाधाएं खड़ी करती रही। 22 जनवरी से प्रारंभ हुआ सांस्कृतिक पुनरुद्धार का यह पवित्र कार्य तब तक चलता रहेगा जब तक हिंदुओं की आस्था पर चोट करने वाले परतंत्र के सभी प्रतीकों को हटा नहीं दिया जाता।

(लेखक विद्याभारती से संवद्ध शिक्षाविद् हैं)

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