सशस्त्र बलों का मनोबल बढ़ाना समय की मांग
इजराइल पर हमास के हालिया हमलों और गाजा में इजराइली जवाबी हमले ने दुनिया भर में राष्ट्रों की कमजोरी और नागरिकों की सुरक्षा के बारे में बहस छेड़ दी है। ये संकट हमास के आतंकवादी हमलों से नागरिकों को सावधान करने और उनकी रक्षा करने में इजराइली राष्ट्रीय खुफिया, सशस्त्र बलों और सरकार की विफलता की ओर इशारा कर रहे हैं। इस संघर्ष का दूसरा पक्ष यह दर्शाता है कि हमास जैसे आतंकवादी संगठन को खत्म करने के लिए प्रभावी जवाबी हमला करने के लिए इज़राइल जैसे एक अच्छी तरह से प्रेरित, प्रशिक्षित और पूरी तरह से आधुनिक सशस्त्र बलों की आवश्यकता है। भारत के रक्षा थिंक टैंक और सरकार को ऐसे संकट से मिले सबक पर विचार करना चाहिए और भविष्य में हमारे विरोधियों द्वारा ऐसे किसी भी दुस्साहस से अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय रक्षा रणनीति विकसित करनी चाहिए और सशस्त्र बलों को पूरी तैयारी और उच्चतम मनोबल के साथ रखना चाहिए।
राष्ट्रीय सुरक्षा में एक स्थिर राजनीतिक माहौल, तेज़ आर्थिक विकास और मजबूत सैन्य तैयारी शामिल है। स्वतंत्रता के बाद पिछले सात दशकों से भी अधिक समय में हमारे देश ने सशस्त्र बलों में लोगों और सरकार का अत्यधिक विश्वास देखा है और सशस्त्र बलों ने राष्ट्रीय संकट की सभी स्थितियों में अपने नागरिकों की सर्वोत्तम अपेक्षाओं को पूरा किया है। सरकार ने भारतीय सशस्त्र बलों को किसी भी स्थिति से निपटने के लिए तैयार रहने में सक्षम बनाने के लिए धन, ऊर्जा और समय खर्च किया है। सेनाओं के मनोबल को ऊंचा रखने वाला सबसे बड़ा कारक किसी भी सरकार द्वारा उनके हितों और कल्याण का ध्यान रखने में विश्वास है। जब एक सैनिक बोलता है, तो एक राष्ट्र को कम से कम सुनना चाहिए और अनसुलझे मुद्दों की ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि सशस्त्र बलों के मनोबल पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है। कुछ लंबित मुद्दे जो आज तक अनसुलझे हैं -
भूतपूर्व सैनिकों का पुनर्वास- भारतीय सशस्त्र बलों से हर साल लगभग 60000 सैनिक सेवानिवृत्त होते हैं और ये पूर्व सैनिक 35 से 45 वर्ष की आयु वर्ग के होते हैं। वह एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित, स्व-प्रेरित और उच्च अनुशासित कार्यबल है । सरकार को इस क्षेत्र में बहुत कुछ करना है क्योंकि उनके पुनर्वास में शामिल एजेंसियां उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं । अधिकांश अनुभवी सैनिक अभी भी सुरक्षा सेवाओं के लिए चुने जाते है या बेरोजगार हैं ।
पेंशन विसंगति- वर्ष 1973 में, केंद्र सरकार ने 'वन रैंक वन पेंशनÓ को समाप्त कर दिया और एक सैनिक की पेंशन को अंतिम आहरित वेतन के 70 प्रतिशत से घटाकर 50 प्रतिशत कर दिया और सिविल कर्मचारियों के अंतिम आहरित वेतन के 30 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर सैनिकों के बराबर कर दिया गया। उसके बाद किसी भी सरकार ने सैनिकों के साथ हुए इस घोर अन्याय को सुधारने के बारे में कभी नहीं सोचा और अब तक इस अतार्किक निर्णय का कोई औचित्य या तर्क भी नहीं दिया गया है।
समयमान वेतन, पेंशन और भत्तों में विषमताएं और असमानता वर्ष 2008 में यूपीए सरकार द्वारा विभिन्न पुलिस संगठनों और सशस्त्र बलों के बीच वेतन और पेंशन और भत्तों में असमानताएं लाने और बढ़ाने का अंधाधुंध निर्णय लिया जो आज तक जारी है । यह सशस्त्र बलों में व्यापक असंतोष का विषय है। सभी सिविल सेवाओं और पुलिस अधिकारियों के लिए शीर्ष स्तर पर ओआरओपी की मंजूरी के साथ-साथ भारतीय पुलिस सेवा सहित सभी सिविल सेवाओं के लिए 'नॉन-फंक्शनल अपग्रेडÓ (एनएफ) जिसे 'नॉन-फंक्शनल फाइनेंशियल अपग्रेडेशनÓ (एनएफएफयू ) भी कहा जाता है, की मंजूरी दी गई। इस फैसले ने सशस्त्र बलों और सिविल सेवाओं के बीच अधिक विषमता और असमानता बढ़ा दी तथा वेतन, पेंशन और भत्तों को अधिक भेदभावपूर्ण बना दिया। ऐसी स्थिति से सशस्त्र बलों के मनोबल, सेवा प्रोटोकॉल, एकजुटता और राष्ट्रीय सुरक्षा पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। एनएफ के गंभीर दीर्घकालिक प्रभावों के बावजूद बाद की भी सभी सरकारों ने नजरअंदाज कर रखा है। एनएफ मुद्दे का अब केंद्र सरकार द्वारा शीर्ष न्यायालय जहां केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को भी एनएफ प्रदान कर दिया गया में भी विरोध किया जा रहा है।
ओआरओपी एक रैंक एक पेंशन -ओआरओपी का अर्थ है कि समान रैंक से सेवानिवृत्त होने वाले सशस्त्र बल कर्मियों को उनकी सेवानिवृत्ति की अलग अलग तारीख के बावजूद समान सेवा अवधि के लिए एक समान पेंशन का भुगतान किया जाना चाहिए और भविष्य में पेंशन की दरों में कोई भी वृद्धि स्वचालित रूप से पिछले पेंशनभोगियों को दी जाएगी। इस वास्तविक उद्देश्य वाली ओआरओपी का अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है। सरकार द्वारा दी गई ओआरओपी पांच साल में एक बार वेतन और भत्तों में एकमुश्त वृद्धि की तरह है और वह भी अगर हम वर्तमान स्थिति को देखें तो 2019 का बकाया 2024 तक पूरा भुगतान होने की संभावना है और उसके बाद अगला ओआरओपी पुनरीक्षण देय हो जाएगा। पूर्व सैनिकों और विधवाओं के लंबे विरोध प्रदर्शन, शीर्ष अदालत में मुकदमेबाजी और यहां तक कि सरकार के चुनावी वादों ने भी एक सैनिक की एक औचित्यपूर्ण और संसद में पारित मांग पूर्ण रूप से आज तक नहीं दी गयी।
शॉर्ट सर्विस कमीशन कैडर के लिए सेवा शर्तों में सुधार- शॉर्ट सर्विस कमीशन के पीछे मूल विचार सशस्त्र बलों को युवा बनाए रखना था, 20 वर्ष से अधिक उम्र के अधिकारियों को सैन्य जीवन का अनुभव करने का अवसर देना, साथ ही उन्हें अपनी युवावस्था में हमारी मातृभूमि की सेवा करने और उसके बाद अन्य कॅरियर बनाने की संतुष्टि प्राप्त करने की अनुमति देना था। बाद में इस योजना का उपयोग सेवा की अवधि को सात से चौदह वर्ष तक बढ़ाकर सशस्त्र बलों में अधिकारियों की कमी को दूर करने के लिए किया गया। अधिकारियों की सेवा सात से चौदह वर्ष तक बढ़ा दी गई, लेकिन इसके परिणाम स्वरूप उन्होंने निजी क्षेत्र में अच्छी नौकरी के अवसर खो दिए और उन्हें पेंशन का लाभ भी नहीं मिला। शॉर्ट सर्विस कमीशन को पाँच वर्षों की सेवा रखना उचित होगा ताकि न अधिकारी और न ही सरकार, दोनों तरफ से कोई अतिरिक्त दायित्व नहीं हो । जो लोग दस या चौदह वर्ष तक पद पर बने रहते हैं, उनके लिए सरकार को सेवा की अवधि के आधार पर आनुपातिक पेंशन और संबंधित लाभ का भुगतान करना चाहिए। सरकार को नियमों में ढील देकर सिविल सेवाओं, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में पार्श्व प्रवेश के लिए उनकी सहायता करने पर भी विचार करना चाहिए।
विधवा के अधिकार और पुनर्वास. केंद्र या राज्य सरकार में कानूनी प्रावधान है कि जिस भी सरकारी कर्मचारी की सेवा के दौरान मृत्यु हो जाती है, उसके आश्रित परिवार के सदस्यों में से एक को सरकारी विभाग में अनुकम्पा के आधार पर उपयुक्त नौकरी दी जाती है। यह बात सैनिक पर भी लागू होनी चाहिए और केंद्र या राज्य सरकार दोनों को राजस्थान सरकार की तर्ज पर कानून बनाकर सेवा के दौरान मरने वाले सैनिकों के आश्रितों को अनुकंपा नौकरी देने के लिए कानून बनाना चाहिए।
विकलांगता पेंशन विसंगतियाँ 21 -सितंबर, 2023 को केंद्रीय रक्षा मंत्रालय द्वारा सेवानिवृत्त सशस्त्र बल कर्मियों के लिए पेश किए गए नए विकलांगता पेंशन नियम, विकलांगता पेंशन के लिए पेंशन और पात्रता मानदंडों को फिर से परिभाषित करते हैं और सभी पिछली पात्रताओं को प्रतिस्थापित करते हैं। इन विकलांगता नियमों की पूर्व सैनिकों द्वारा कड़ी आलोचना की गई है और हितधारकों के साथ विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है क्योंकि नए नियमों में अधिकारी प्रशिक्षुओं और कैडेटों को भी पात्र लाभार्थियों की सूची से बाहर रखा गया है और सिविल और रक्षा सेवाओं में समान कारणों से विकलांगता में असमानता है।
यदि जीवन भर अनुशासित रहने वाले पूर्व सैनिकों की बिरादरी ने सेवारत और सेवानिवृत्त कर्मियों से संबंधित लंबित मुद्दों और शिकायतों को उठाने के लिए आंदोलन और विरोध प्रदर्शन का सहारा लिया है, तो निश्चित रूप से यह एक अच्छा संकेत नहीं है। यह विषय सरकार के तत्काल ध्यान देने योग्य है। सशस्त्र बलों का मनोबल की उच्चतम स्थिति में तथा किसी भी स्थिति के लिए तैयार रखने के लिए सरकार जिम्मेदार होती है । सरकार निश्चित रूप से एक सैनिक की इन शिकायतों को सुनने के लिए तत्काल कदम उठाएगी और उनके हितों और कल्याण को सर्वोपरि रखते हुए निर्णय लेगी ।
(लेखक सैनिक कल्याण विभाग जयपुर राजस्थान के पूर्व अतिरिक्त निदेशक हैं)