डिप्टी कलेक्टर पद त्यागकर आँदोलनकारी बने, स्वतंत्रता के बाद पहला भारत रत्न सम्मान
रमेश शर्मा
भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास ऐसे विविध सेनानियों से भरा है जिन्होंने अपने स्वर्णिम जीवन स्तर का परित्याग करके आँदोलनकारी बने और जेल गये। डॉ. भगवान दास ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्होंने डिप्टी कलेक्टर के पद से त्यागपत्र देकर आँदोलन में भाग लिया और जेल गये।
उनकी गणना देश के महान दार्शनिकों में होती है। स्वतंत्रता के बाद देश का पहला भारत रत्न सम्मान उन्हीं को प्राप्त हुआ और जब 1955 में भारत रत्न की यह उपाधि उन्हें प्रदान की तो तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रोटोकाल तोड़कर उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। ऐसी महान विभूति डॉ. भगवान दास का जन्म 12 जनवरी 1869 को काशी के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। पिता माधवदास एक संपन्न व्यवसायी होने के साथ अपने समय के प्रसिद्ध साहित्यकार भी थे और किशोरी देवी शिक्षा और आध्यात्म दोनों के वातावरण से जुड़ीं थीं। वे इतने कुशाग्र थे कि मात्र अठारह वर्ष की आयु में एम. ए. कर लिया था। महाविद्यालयीन शिक्षा के साथ उन्होंने वैदिक, पौराणिक साहित्य, दर्शन शास्त्र की भी शिक्षा ली थी।
लेखन और चिंतन कार्य उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही आरंभ कर दिया था। 1890 में उनकी नियुक्ति संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में डिप्टी कलेक्टर के पद पर हो गई। उनके परिवार की पृष्ठभूमि अति संपन्न और प्रतिष्ठित थी उस पर डिप्टी कलेक्टर का पद। इससे उनके जीवन स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है। उन दिनों का डिप्टी कलेक्टर बहुत रुतवे और प्रभाव वाला होता था। फिर भी वे अपने सेवाकाल में असामान्य रहे। इसका कारण अंग्रेज सरकार द्वारा भारतीयों के प्रति तिरस्कार भाव। उन्होंने अंग्रेजों की मानसिकता में भारत और भारतीयों के दमन और शोषण का षड्यंत्र देखा और मुक्ति के उपाय सोचते। इसके साथ वे इस बात से भी विचलित होते कि भारतीयों में चेतना और आत्मगौरव का अभाव था। उन्होंने भारतीयों के इस मानसिक पिछड़ेपन की स्थिति से मुक्त करने का संकल्प किया और 1899 में शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया। अपनी सेवाकाल में उनका परिचय ऐनी बेसेन्ट से हो गया था। ऐनी बेसेन्ट यूरोपीय नागरिक थीं पर उनके मन में भी भारतीय जनों के मानसिक विकास का भाव था। डॉ. भगवान दास जी भारतीय समाज में स्वभाषा, स्वाभिमान और स्वराष्ट्र भाव का जागरण करना चाहते थे। उनकी चर्चा ऐनी बेसेन्ट से हुई और काशी में हिन्दु संस्कृति आधारित शिक्षण संस्था आरंभ करने का संकल्प लिया। डॉ. भगवान दास जी ने ऐनी बेसेन्ट के सहयोग से 1899 में सेन्ट्रल हिन्दू कालेज की नींव रखी। अपनी सेवाकाल में उनकी नियुक्ति प्रयागराज में भी रही। उस दौरान उनका परिचय पं. मदनमोहन मालवीय जी से हुआ। जो समय के साथ प्रगाढ़ होता गया। मालवीय जी भी इस संस्था के संस्थापक सदस्य थे। समय के साथ डॉ. भगवान दास जी का रुझान आध्यात्म की ओर गया और उन्होंने इस संस्था का कार्यभार 1914 में मालवीय जी को सौंप दिया। मालवीय जी ने इस संस्था को विस्तार दिया और भारत भर के हिन्दू संस्कृति के कुछ समर्थकों से सहयोग लेकर इस संस्था को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का स्वरूप ग्रहण दिया। जिसका विधिवत शुभारंभ 1916 में हुआ। डॉ. भगवानदास काशी हिंदू विश्वविद्यालय के भी संस्थापक सदस्य और इस काशी विद्यापीठ के कुलपति भी बने। 1921 में ही उन्होंने हिन्दी के प्रचार के लिये गठित संस्था में भी सहभागी बने और भारत भर में हिन्दी सम्मेलन किये। 1940 तक वे काशी विद्यापीठ के विकास विस्तार तथा हिन्दी के प्रचार में लगे रहे। इन उन्नीस वर्षों में उन्होंने केवल यही दो कार्य ही नहीं किये उन्होंने वेदान्त के सिद्धांतो को सरल भाषा में प्रस्तुत किया और समाज को समझाया कि संसार के सभी दर्शनों का मूल भारतीय संस्कृति और दर्शन है। कुलपति रहते हुये ही उन्होंने 1921 के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और गिरफ्तार किये गये। वे चूँकि डिप्टी कलेक्टर रह चुके थे इसलिये उन्हें उनकी पसंद पर ही काशी विद्यापीठ में ही कारावास की अवधि में नजरबंद रखा गया। कारावास की अवधि का यह एकांतवास उन्होंने आध्यात्मिक साधना में और वेदान्त अध्ययन में गुजारा। कारावास की इस अवधि के बाद वे अपने वाह्य कर्म कर्तव्य में तो सक्रिय रहे पर उनके भीतर विरक्ति का भाव भी जागा और उनके लेखन साहित्य में वेदान्त का अद्वैत भाव भी झलकने लगा कारावास अवधि पूरी कर डॉ. भगवान दास जी एक ओर तो हिन्दी एवं विद्यापीठ के प्रचार विकास में लगे और दूसरी ओर साहित्य रचना में। कारावास अवधि के बाद उनके प्रचार अभियान में स्वतंत्रता के लिये सामाजिक जागरण भी जुड़ गया। स्वदेशी और स्वभाषा के अभियान के साथ 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आँदोलन में सहभागी बने और गिरफ्तार हुये ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)