कर्म छिपे नहीं भभूत लगायो
डॉ. आनन्द पाटील
२३ जुलाई 2023 को प्रकाशित 'वज्रपातÓ - 'आवारा मसीहा नहीं होतेÓ में मैंने यूरोपीय 'लास्ट जनरेशनÓ की निराशा और नकारात्मकता का सन्दर्भावधानपूर्वक उल्लेख किया था। उसी क्रम में कई समसामयिक घटनाक्रमों का सूक्ष्मावलोकन करने से उनके सत्य पक्ष उजागर होने लगते हैं। ऐसी उजागृत स्थिति में प्राय: प्रतीत होता है कि हम संकटग्रस्त समय में जी रहे हैं अथवा जीने के लिए बाध्य होते जा रहे हैं। गोपनीयता संकटग्रस्त है। प्रामाणिकता संकटग्रस्त है। हमारी निजता संकटग्रस्त है। मित्रता संकटग्रस्त है। संवेदनाएँ संकटग्रस्त हैं। दैनन्दिन जीवन में होने वाली बातों में तथ्यात्मकता संकटग्रस्त है। आप सहज भाव से कुछ बोल भी नहीं सकते, क्योंकि वह भी संकटग्रस्त है। विचार एवं प्रतिबद्धता संकटग्रस्त है। यहां तक कि हमारे सम्बन्ध संकटग्रस्त हैं। व्यक्तिगत ही नहीं, अपितु प्रोफेशनल सम्बन्ध भी संकटग्रस्त हैं। जब बात स्वयंसेवी संगठनों की आती है, तो ज्ञात हो कि सांगठनिक एकता संकटग्रस्त है। संगठन में रह कर एकात्म होने का भाव भी संकटग्रस्त है।
यह बात और है कि एकता की भरपूर बातें होती हैं, परन्तु भीतर-भीतर सांगठनिक एकता (मनोभाव) संकटग्रस्त हो चुकी है। जीवन, व्यवहार, सृजनशीलता इत्यादि को नयी धार देने वाली आलोचना संकटग्रस्त है। कहा तो गया था - 'निन्दक नियरे राखिये।Ó वास्तव में उसमें आलोचक की ही बात की गयी थी, परन्तु इधर 'निन्दकÓ में आलोचक नहीं, अपितु अंग्रेज़ी के 'बैक बाइटिंगÓ की क्रियात्मकता मुख्यार्थ बोधक हो चुकी है। परनिन्दा मनुष्य का स्वभाव बन चुका है। क्या संस्था (शैक्षिक) और क्या संगठन, परनिन्दा से अन्य के प्रति विद्यमान 'अनन्यत्वÓ को ध्वस्त कर स्व-स्थापना का मार्ग सुदृढ़ करने का यत्न हो रहा है। अब 'निन्दकÓ में 'निर्मल करे सुभायÓ का भाव तिरोहित हो गया है। आलोचक मर गया है।
यह भी कि प्राय: 'ज्ञानÓ की बातें होती हैं, परन्तु ज्ञान कपोलकल्पित तथ्यात्मकता (फैब्रिकेटेड फैक्ट्स) का शिकार होकर संकटग्रस्त हो चुका है। वह इस प्रकार विस्तार पा गया है कि 'बाल की खाल खींचनाÓ में ध्वनित अर्थ आशय का अतिक्रमण कर निराशय हो चुका है। निराशयता की ऐसी अतिक्रमित स्थिति में अष्टावक्र के टेढ़े-मेढ़े शरीर पर हँसने वाली सभा का ध्यान हो आता है। जनक की ज्ञान सभा में अष्टावक्र द्वारा प्रस्तुत 'चमार प्रसंगÓ पुन: उपस्थित होता है। कुल मिलाकर ध्यान रहे कि ज्ञानी व्यक्ति के गुणों में वाक् संयम और निश्छल (सन्त) व्यवहार को महत्वपूर्ण माना जाता है। वाक् संयम का अभाव अज्ञानता सूचक माना जाता है और छल पूर्ण व्यवहार धूर्तता को निरूपित करता है, परन्तु दुर्भाग्य कि इधर लोग चतुराई (चतुर) को ज्ञान (ज्ञानी) समझने के भ्रम से ग्रसित हो चुके हैं।
बातों ही बातों में 'शीलÓ की भरपूर बातें होती हैं, किन्तु ध्यान रहे कि वह भी संकटग्रस्त है। अब 'शीलं परमं भूषणंÓ केवल उद्धरण-उदाहरण मात्र के लिए उपयोगी रह गया है। लोग औरों से सुशील अर्थात् चरित्रवान (गुणवान) होने की अपेक्षा करते हैं और औरों की शील-केन्द्रित 'निन्दाÓ करते हैं (आलोचना नहीं); कदापि आत्मनिरीक्षण एवं आत्मालोचन नहीं करते। लाभ-लोभ (भोग) का गणित निरन्तर शील (संस्कार) का अतिक्रमण करता जा रहा है। ऐसे में, 'संस्कारÓ शब्द चर्चा में आते ही शील को ओढ़ने वालों को उस शब्द से ही चिढ़ होने लगती है। वे समाजोचित मर्यादाओं का उल्लंन करके भी शीलवान होने का दावा करते हैं। इधर कहते तो हैं - 'गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागौ पायÓ, किन्तु अवसर पाते ही गुरु को ही लत्तमलत्ता और जूतमजुत्ता करने से नहीं हिचकते (चूकते)। ऐसा प्रतीत होता है, मानो सब कुछ तात्कालिक हो चुका है - गोपनीयता तात्कालिक है। प्रामाणिकता तात्कालिक है। सम्बन्ध तात्कालिक हैं। मित्रता तात्कालिक है। संवेदनाएँ तात्कालिक हैं। संवाद तात्कालिक है। विचार एवं प्रतिबद्धता तात्कालिक है। सब कुछ एकदम तात्कालिक! सबको सब कुछ एकदम तत्काल चाहिए। भूल जाते हैं कि तत्काल में बहुत कुछ कालग्रसित हो जाता है। इसलिए सनातन में तत्काल और तात्कालिकता के लिए कदापि कोई स्थान नहीं है। सब शनै:-शनै: घटित होता जाता है, गत्यात्मक होकर भी स्थिर एवं नियन्त्रित। सनातन में कछुए का पूजा जाना अकारण नहीं कहा जा सकता। किन्तु, समकालीन समय के शीलसम्पन्नों को भला कौन सनातनता समझाये?
ध्यान रहे कि शीलाचारिता एवं सदाचारिता (संस्कार) को भयंकर भोगवाद (तात्कालिकता) ने ग्रस लिया है। एक क्षण में पति मानने वाले, अगले ही क्षण उसे पतित बनाने की योजना क्या रच देते हैं, अपितु उसे पतित बना कर छोड़ देते हैं। इस कथन से स्त्रीवादियों को आपत्ति हो सकती है, किन्तु आप सुधी पाठक किसी घटना के साथ सम्बन्ध स्थापन किये बिना, इसमें अनुस्यूत सार-सार को ही ग्रहण करेंगे, ऐसा विश्वास है। इतना अवश्य ध्यान रहे कि समकालीन संकटग्रस्त समय में सब कुछ 'तत्काल प्रभाव से लागूÓ हो रहा है। इसलिए लगता है कि अब 'दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते। टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।Ó - में अभिव्यक्त भाव शनै:-शनै: तिरोहित होता जा रहा है। जीवन की वह धार भोंथरी होती जा रही है। यह भी एक संकट ही है।
कुल मिलाकर कहना न होगा कि चर्चित शीलाचारिता वास्तव जीवन में दम तोड़ रही है। एकता निज हितार्थ उपकरण (टूल) बनती जा रही है, प्रहारक और संहारक बन रही है। झण्डे को एजेण्डे में लपेट कर डण्डे चलाये जा रहे हैं। न वाणी में सौम्यता है, न व्यवहार में शालीनता, किन्तु शीलाचारिता का सतत आग्रह किया जा रहा है। ऐसे समय में मुझे न जाने क्यों अपनी चिन्तनधारा से विपरीत बाबा चिन्ताधारा में सगोत्रीय दीख पड़ते हैं। उनकी कविता जिस भी प्रसंग अथवा सन्दर्भ में लिख गयी होगी, मुझे समकालीन समय में बृहत्तर दृष्टि देने वाली प्रतीत होती है। उन्होंने लिखा है - रहा उनके बीच मैं! था पतित मैं, नीच मैं/ दूर जाकर गिरा, बेबस उड़ा पतझड़ में/ धँस गया आकण्ठ कीचड़ में/ सड़ी लाशें मिलीं/ उनके मध्य लेटा रहा आँखें मीच मैं/ उठा भी तो झाड़ आया नुक्कड़ों पर स्पीच मैं!/ रहा उनके बीच मैं!/ था पतित मैं, नीच मैं!
यह स्व-मन का सन्तोष है कि वर्तमान संकटग्रस्त समय में स्व का मूल्यांकन करते हुए स्व को इस स्थिति में खड़ा करने से एक दायित्वबोध जागृत होने लगता है। हाँ, यह भी ध्यान रहे कि हमारा दायित्वबोध भी संकटग्रस्त हो चुका है। आज जब गोपनीयता, प्रामाणिकता, निजता, मित्रता, विचार, विश्वास, प्रतिबद्धता, मानवीय सम्बन्ध, संवाद एवं संवेदनाएँ संकटग्रस्त हो चुकी हैं और सब कुछ तात्कालिक (भोग्य) होता जा रहा है, तो लगता है कि इस संकटग्रस्त समय से बच कर निकलने का कोई तो मार्ग होगा? मैं नित क्षण उस मार्ग का पथिक बनने का आकांक्षी हुआ जाता हूँ।
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)