23 जून बलिदान दिवस पर विशेष : विभाजन के विरोधी थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी

23 जून बलिदान दिवस पर विशेष : विभाजन के विरोधी थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी
जवाहर प्रजापति

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी ही नहीं, एक महान शिक्षाविद्, देशभक्त, राजनेता, सांसद, अदम्य साहस के धनी और सहृदय और मानवतावादी थे। भारत के राष्ट्रवादी महापुरूष डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के विचारों में संपूर्ण भारत दिखता था। वे सम्पूर्ण भारत को एक रूप मानते थे। डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन संबंधी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अंतर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया।


डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी अपने 52 वर्ष के जीवनकाल में और उसमें से भी 14 वर्ष के राजनीतिक जीवनकाल में वे स्वतंत्र भारत के प्रथम सरकार में कैबिनेट मंत्री के पद पर पहुंचे। ज्ञातव्य है कि इस मंत्रीमण्डल में उन्हीं लोगों को लिया गया, जिन्होंने आजादी दिलवाने में प्रमुख भूमिका निभाई और उस समय देश को बचाने के लिये विचार और भावनाओं में जिनके साथ पूरा देश खड़ा था। ऐसे लोगों को प्रमुख जिम्मेदारियां दी गई। डॉ. मुखर्जी के देशभक्ति पूर्ण विचारों से सहमत होकर उन्हें देश के प्रथम राजनीतिक नायकों की श्रृखंला में शामिल किया, लेकिन बाद में पाकिस्तान में हुए हिन्दुओं के नरसंहार के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नेहरू से मतभेद हो गये और उन्होंने केन्द्रीय मंत्रीमण्डल से अपना त्याग पत्र सौंपकर हिन्दूहितों की रक्षार्थ सम्पूर्ण सुख सुविधाओं का परित्याग कर और इस बीड़ा को पूरा करने में पूरे प्राण-पण से जुट गये। इससे पहले डॉ. मुखर्जी पश्चिम बंगाल और पूर्वी पंजाब के अस्तित्व में आने के पीछे एक सक्रिय ताकत के रूप में उभरे। जिसे पूरे राष्ट्र ने स्वीकार किया। कैबिनेट मंत्री का पद छोड़ने के बाद उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में स्थापित हो गई।

डॉ. मुखर्जी ने अल्प आयु में ही बहुत बड़ी राजनैतिक ऊँचाइयों को पा लिया था। भविष्य का भारत उनकी ओर एक आशा भरी दृष्टि से देख रहा था। उस समय लोग यह अनुभव कर रहे थे कि भारत एक संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है। उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के साथ भारत के विभाजन की पूर्व स्थितियों का डटकर सामना किया। देशभर में विप्लव, दंगा-फंसाद, साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के लिए भाषाई, दलीय आधार पर बलवे की घटनाओं से पूरा देश आक्रान्त था। उधर इन विषम परिस्थितियों में भी डटकर, सीना तानकर ‘एकला चलो’ के सिद्धान्त का पालन करते हुए डॉ मुखर्जी अखण्ड राष्ट्रवाद का पावन नारा लेकर महासमर में संघर्ष करते रहे। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट की गई। उस समय कांग्रेस का नेतृत्ववृंद सामूहिक रूप से आतंकित था। मुस्लिम लीग की हर मांग को पूरा कर उससे छुटकारा पाना चाहता था। लोग आशंकित और भयभीत थे। किन्तु डॉ श्यामाप्रसाद जी उस माहौल में चट्टान की तरह अडिंग डटे रहे। वे अकेले एक मात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने अपने पुरूषार्थ से देश हित की वाणी को मुखर किया, और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का विरोध किया।

जनसंघ की स्थापना

ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षडयंत्र को एक दल विशेष के नेताओं ने अखण्ड भारत संबंधी अपने वादों को ताक पर रखकर विभाजन स्वीकार कर लिया। तब डॉ मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खंडित भारत के लिए बचा लिया। गांधी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खंडित भारत के पहले मंत्रिमण्डल में शामिल हुए, और उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गई। संविधान सभा और प्रांतीय संसद के सदस्य और केंद्रीय मंत्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिंतन के साथ-साथ अन्य नेताओं से मतभेद बने रहे। उन्होंने राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया, और शीघ्र ही अन्य राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनाई जो कि विरोधी पक्ष में सबसे बडा दल था। उन्हें पं. जवाहरलाल नेहरू का सशक्त विकल्प माने जाने लगा। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ। जिसके संस्थापक अध्यक्ष, डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी रहे।

संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को प्रथम लक्ष्य रखा। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि राष्ट्रीय एकता की शिला पर ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। देश के राष्ट्रीय जीवन में इन तत्वों को स्थान देकर ही एकता स्थापित करनी चाहिए। क्योंकि इस समय इनका बहुत महत्व है। इन्हें आत्म सम्मान तथा पारस्परिक सामंजस्य के साथ सजीव रखने की आवश्यकता है। है। डॉ मुखर्जी जम्मू काश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू काश्मीर का अलग झंडा था, अलग संविधान था, वहाँ का मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री कहलाता था। डॉ मुखर्जी ने जोरदार नारा बुलंद किया कि - एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें। संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की थी। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उदे्दश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालीन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपनी दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू काश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया। 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। वे भारत के लिए शहीद हो गए, और भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया जो हिन्दुस्तान को नई दिशा दे सकता था।

अब तक यह रहस्य ही है कि डॉ. मुखर्जी की मृत्यु कैसे हुई। क्या उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं कराई गई? अथवा यह चिकित्सकीय हत्या थी? पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. बी.सी. राय और डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की श्रद्धेय माताजी श्रीमती योगमाया देवी ने मामले की व्यापक जांच कराने और सारे तथ्य सामने लाने की मांग पंडित नेहरू से कई बार पत्र व्यवहार किया। इतनी बड़ी ऐतिहासिक त्रासदी घटित हो चुकी थी और जांच का एक आदेश तक जारी नहीं किया गया था। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की हत्या निसंदेह एक राजनीतिक हत्या थी, जिसे तत्कालीन सरकार ने ठण्डे बस्ते में डाल दिया।

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी आज भले ही हमारे बीच में नहीं हैं, परन्तु उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किया वह एक देशभक्त ही कर सकता है। वे आज भी विचारों के रूप में हमारे बीच जिन्दा हैं।

(लेखक भाजपा के प्रदेश सह मीडिया प्रभारी हैं)

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