बुजुर्गों को भी मिले गरिमापूर्ण जीवन
धर्मराज यह भूमि किसी की नहीं क्रीत है दासी, है जन्मना समान परस्पर, इसके सभी निवासी। यानी सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीकरण, बाधारहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन। रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां आधुनिक होती युवा पीढ़ी के लिए कई सवाल खड़े करती है। तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने वर्तमान दौर में समाज की संरचना को असभ्य, अशालीन, बदसूरत एवं संवेदनहीन बना दिया है। अब रिश्तों का मर्म बस इतना रह गया है कि जरूरत के हिसाब से लोग रिश्ते निभा रहे हैं। जरूरत ख़त्म होते ही घर के बड़े-बुजुर्ग भी बोझ समझे जाने लगे हैं। डिजरायली का मार्मिक कथन है कि, 'यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चाताप।Ó ऐसे में माता-पिता के जीवन को पश्चाताप का पर्याय न बनने दें। आज हर घर की यही कहानी है कि घर के बड़े बुजुर्ग अकेलेपन, तिरस्कार, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा और भय से अपमानित जीवन जीने को मजबूर है। आधुनिकता के इस दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के चलते सामाजिक मूल्यों के बदलते परिवेश में नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आ गया है। एकीकृत जीवनशैली ने बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं खड़ी कर दी है।
संविधान का अनुच्छेद- 21 प्रत्येक मनुष्य को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है, लेकिन जब अपने ही इस अधिकार में बाधक बन जाए तो हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं? ये कोई बताने या समझाने वाली बात नहीं! वैसे हमारे समाज की यह बहुत बड़ी बिडम्बना है कि हम बेटों की चाहत में इतने अंधे हो गए है कि बेटियों को वो प्यार ही नही दे पाते हैं। जिसकी वे असल हकदार होती हैं। आज भी हमारे समाज में पुरुषवादी मानसिकता भरी हुई है। हम आज भी बेटे को कुलदीपक मानते हैं। तो वहीं बेटियों को पराया धन माना जाता है, लेकिन अक्सर यही कुलदीपक अपने ही जन्मदाता को वृद्धा आश्रम छोड़ कर चले आते हैं।
हम आधुनिकता की दौड़ में इतना अंधे कैसे हो रहें कि अपने संस्कारों को ही तिलांजलि देने पर तुले हैं। क्या यही आधुनिकता है, जिसमें अपनों का सम्मान करना ही भूल जाए? ये सच है कि भागदौड़ भरी ज़िंदगी में हम अपने लिए ही समय नहीं निकाल पाते हैं, तो फिर अपनों की जिम्मेदारियों का ख्याल कैसे रखें? लेकिन जिस मां- बाप ने जन्म दिया उसकी जिम्मेदारी से मुंह तो मोड़ नहीं सकते। आज न केवल समाज को जागरूक होने की आवश्यकता है बल्कि बुजुर्गों पर हो रहे अत्याचार पर सरकार को भी कड़े कानून बनाना चाहिए। जिससे हमारे बुजुर्ग भी सम्मानपूर्वक अपना जीवन जी सके। हमें समझना होगा कि हमारे बुजुर्ग हमसे क्या कहना चाह रहे हैं। आज हमने उन्हें सुनने की बजाए अपनी सुनाना शुरू कर दिया है। यही वजह है कि वर्तमाम दौर में समाज में आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। आज हम पुरानी इमारतों को तो सहेजकर रखना चाहते है, लेकिन हमारे घर के बुजुर्गों को बेसहारा छोड़कर आंसू बहाने के लिए छोड़ रहे हैं।
वैसे पिछले कुछ दशकों में हमारे सामाजिक मूल्यों में काफ़ी बदलाव आ गया है, तभी सरकार को साल 2007 में 'माता पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण और कल्याणÓ कानून ही नहीं बनाना पड़ा। बल्कि वरिष्ठ नागरिकों के हितों की रक्षा और सम्मानपूर्वक जीवन के लिए न्यायपालिका को भी कड़े कदम उठाने पड़े। यह वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा के लिए सम्बल तो दे रहा है। बावजूद इसके आए दिन देश के किसी न किसी कोने से माँ बाप पर अत्याचार की खबरें भी आ रही है। इसके लिए सिर्फ सरकार ही नहीं परिवार को भी अपने बुजुर्ग माता पिता की जिम्मेदारी उठानी होगी। उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देना होगा। तभी हमारा वर्तमान और भविष्य सुरक्षित हो सकेगा। वरना जिस तरह से हम अपने माँ बाप को घर से बेघर कर रहे है। कल हमारा भी बुढ़ापा आएगा और हमारे बच्चे भी वही सब देखेंगे और सीखेंगे जो हम आज अपने माता-पिता के साथ कर रहे है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)