चुनावी बॉण्ड और उसकी पारदर्शिता
देश में इलेक्टोरल बॉण्ड्स के माध्यम से होने वाली राजनीतिक फंडिंग काफी समय से विवाद का विषय बनी हुई है। कुछ राज्यों में होने वाले आगामी चुनावों के मद्देनजर एक बार फिर यह विषय चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट में चल रहे इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े अहम मामले में पिछले दिन गुरुवार को सुनवाई पूरी हो गई। चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है, लेकिन सुनवाई के दौरान जिस तरह से इस मसले के अलग-अलग पहलू उभरे हैं वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस दौरान न केवल चुनावी फंडिंग से बल्कि दान देने वाली कंपनियों, दान पाने वाले दलों और इन राजनीतिक दलों को अपने वोट से चुनने वाले वोटरों के अधिकारों से भी जुड़ी अलग-अलग राय सामने आई है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को राजनीतिक दलों को 30 सितंबर 2023 तक इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले चुनावी चंदे का ब्यौरा दो हफ्ते में जमा करने को कहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट को इस मसले पर विचार करने का अधिकार है या नहीं।
बता दें कि अदालत ने साफ किया है कि चुनावी फंडिंग का जो तरीका कार्यपालिका ने बनाया है, वह संविधान की कसौटियों पर खरा उतरता है या नहीं, यह देखना उसकी जिम्मेदारी है और इसी सवाल पर वह विचार करेगी। एक अहम पहलू यह भी सामने आ रहा है कि अपने दान को गोपनीय रखने का कंपनियों का अधिकार ज्यादा महत्वपूर्ण है या राजनीतिक दलों को मिल रही फंडिंग का सोर्स जानने का आम नागरिकों और वोटरों का हक। इस मसले से जुड़े इन तमाम पहलुओं पर सुप्रीम कोर्ट आखिरकार क्या रुख अपनाता है यह तो उसके फैसले से ही पता चलेगा। फिलहाल यह उम्मीद जरूर की जा सकती है कि कोर्ट का आदेश आने वाले दिनों में चुनावी फंडिंग का स्वरूप तय करने के साथ ही चुनाव सुधारों को भी एक नई दिशा देने का काम करेगा। ध्यातव्य है कि आज से पहले भी इस मामले को लेकर सदैव कुछ न कुछ सुधार होता आया है लेकिन सभी सुधार अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे। मालूम हो कि वर्ष 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने इस विवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए उद्योग घरानों पर लगे प्रतिबन्ध को हटाया और कानून बनाया कि कोई भी कार्पोरेट कम्पनी अपने शुद्ध वार्षिक लाभ का पांच प्रतिशत चन्दा राजनैतिक पार्टियों को दे सकती है जो कि सीधे जनता की नजर में रहेगा। इसके बाद के वर्षों में कानून में संशोधन करके इसे लाभ का साढ़े सात प्रतिशत कर दिया गया परन्तु इस दौरान चुनावों को लेकर एक और महत्वपूर्ण घटना 1974 में हुई और इंदिरा गांधी सरकार ने चुनाव कानून में संशोधन कर यह कानून बनाया कि चुनाव में खड़े किसी भी प्रत्याशी पर उसका कोई मित्र या समर्थक संगठन कितना भी धन खर्च कर सकता है। यह खर्च प्रत्याशी के चुनाव खर्च में शामिल नहीं होगा। इस संशोधन के बाद भारत में चुनाव लगातार खर्चीले और महंगे होते गये।
क्या है चुनावी बॉण्ड
चुनावी बॉण्ड एक तरह का प्रतिज्ञात्मक नोट होता है, जिसका महत्व बैंक नोट के समतुल्य माना जाता है। धारक के मांगने पर इसका भुगतान बिना किसी ब्याज के किया जाता है। इसे भारत का कोई भी नागरिक या देश की कोई भी संस्था खरीद सकती है। चुनावी बॉण्ड प्रणाली को वर्ष 2017 में एक वित्त विधेयक के माध्यम से पेश किया गया था। इसे वर्ष 2018 में लागू किया गया। मालूम हो कि केवल वे राजनीतिक दल जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत हैं, जिन्होंने पिछले आम चुनाव में लोकसभा या विधानसभा के लिये डाले गए वोटों में से कम-से-कम एक फीसद वोट हासिल किये हों, वे ही चुनावी बॉण्ड हासिल करने के पात्र होते हैं। वास्तव में चुनावी बॉण्ड कंपनियों, धनी व्यक्तिगत दान कर्ताओं और विदेशी संस्थाओं को अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक शक्ति प्रदान करते हैं। इस प्रकार एक मतदाता एक वोट का सार्वभौमिक मताधिकार कमज़ोर होता है।
गोपनीयता बनाम पारदर्शिता
सरकार ने साफ किया है कि प्रणाली को पूरी तरह गोपनीय बनाया गया है। ध्यातव्य है कि इसमें केंद्र सरकार को भी दानदाता की जानकारी नहीं होती है। केंद्र सरकार ने इस संबंध में एसबीआई के चेयरमैन के पत्र का भी उल्लेख किया जिसमें योजना को पूरी तरह से गोपनीय रखने और किसी से भी कानून में दी व्यवस्था के अलावा जानकारी न साझा किये जाने की बात कही गई थी। यह भी कहा कि गोपनीयता भंग होने पर फुट प्रिंट सृजित होंगे और अगर कोई गोपनीयता का उल्लंघन करता है तो वह विश्वास भंग करने के अपराध का भागी होगा। बहरहाल, ये बात सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से गोपनीयता को लेकर कोर्ट के सवालों का जवाब देते हुए कही थी। सुनवाई पूरी होने के बाद अंत में सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट से यह भी कहा कि उनका सुझाव है कि अगर कोर्ट चाहता है और संतुष्ट होता है तो वह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की जगह रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को चुनावी बॉण्ड जारी करने वाला बैंक बना सकते हैं। बहरहाल यह भी सुझाव विकल्प के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या चुनावी चंदे को छिपाना भ्रष्टाचार और अपारदर्शी व्यवस्था को बढ़ावा नहीं देता? उल्लेखनीय है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले अज्ञात चंदे की वैधानिकता और इसकी जानकारी नागरिकों से छिपाना सूचना के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है, जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। मालूम हो कि संविधान के कुछ अनुच्छेद जैसे अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार , अनु. 19 स्वतंत्रता का अधिकार और अनु. 21 जीवन जीने और स्वतंत्रता का अधिकार के उल्लंघनों से संबंधित हैं। ये अनुच्छेद इतने अहम हैं कि इसके तहत सुनवाई देश को उम्मीद बंधाती है। हालांकि केंद्र की दलील है कि किसी पार्टी को कौन कितना चंदा देता है, यह जानने का हक अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत नागरिकों को नहीं है। खैर हमें याद रखना चाहिए कि राजनीतिक दलों को मिलने वाला दान, मंदिर की पेटी में दिया गया गुप्त दान के समतुल्य नहीं है। भले ही ये बॉण्ड स्टेट बैंक से खरीद कर दिए जाएं जिनमें दानदाता का रिकार्ड हो और इसे भारत का ही कोई नागरिक या समूह खरीदे। इस गुप्त दान से केंद्र तथा राज्य चलाने वाली पार्टियां सरकार में आती हैं, जिन पर वह आगे मेहरबान हो सकती हैं। गौरतलब है कि ऐसे मामले 2018 से ही उजागर होने लगे थे। जब बैलेंस सीट में दरिद्र लगने वाली कुछेक दानदाता कंपनियां करोड़ों के बॉण्ड खरीद रही थी।
बहरहाल, याचियों में रिकार्ड पर कई नाम गिनाए हैं। उनका एक डर यह भी है कि अगर दानदाताओं का खुलासा न हुआ तो भले ही राजनीतिक पार्टियां चंदे की ऑडिट रिपोर्ट चुनाव आयोग को पेश करती हों लेकिन दान देने में वे लोग भी शामिल हो सकते हैं जो अवैध गतिविधियों में लिप्त हैं। फिर जब सरकार वित्तीय भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति पर चल रही है, जो बेहद सराहनीय है पर उसकी प्रक्रियागत खुलेपन की यह कोशिश तब बेकार हो जाती है, जब वह दान के स्रोतों को छिपाकर रखना चाहती है। याचियों की अपेक्षा जायज है कि सरकार चुनाव आयोग और नागरिक संगठन के आकलन से सहमत हो और दानदाताओं का खुलासा करे ताकि चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता बनी रहे। नतीजन सरकार को तो इनकम टैक्स रिटर्न के जरिए सब कुछ पता चल जाता है लेकिन अन्य दलों को यह नहीं पता चलता कि सत्ताधारी दल को किसने कितना दान दिया है, यानी कि पारदर्शिता बिल्कुल भी नहीं रहती। अत: पारदर्शिता को बनाए रखने पर विचार कर एक ऐसी व्यवस्था तैयार करनी होगी, जो जीवंत लोकतंत्र को परिभाषित करती हो।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)