अंग्रेजी हथियार और हत्यारे - अपनैं देसा कुसंग आहि बदेसा
पिछला 'वज्रपातÓ - 'भारत में लॉर्ड मैकाले का प्रेत: साँस लेत बिनु प्राणÓ अंग्रेज़ी दासता के प्रमाणों की प्रस्तुति पर केन्द्रित था। ध्यातव्य है कि भारत की समस्याओं के कई स्तर हैं। उनमें प्रमुख है- भाषा और विचार। विचार अर्थात् ज्ञान। किसी भी देश को भीतर-भीतर खोखला करने के लिए उसकी भाषा को 'दोयमÓ बना देना और उसकी ज्ञान-परम्परा को पुरातनपन्थी या कालबाह्य या प्रतिगामी करार देकर उस पर परदेशी विचारों को थोपना पर्याप्त होता है। इस महादेश को अतिक्रमित करने वालों ने इन दोनों स्तरों पर विशेष और प्रचण्ड कार्य किया है। हम अनिवार्य भाषा (कम्पल्सरी लैंग्वेज) के रूप में अंग्रेज़ी और द्वितीय भाषा (सेकण्ड लैंग्वेज) के रूप में अपनी मातृभाषाएँ पढ़ते ही आ रहे हैं। अर्थात् देशी भाषाओं को 'दोयम दर्जेÓ का ही माना गया है। हमारी सरकारों ने उसी दोयम नीति को साग्रह ग्रहण कर आगे बढ़ाया है। वर्तमान पीढ़ी अत्यन्त सहज भाव से कह रही है कि उन्हें मातृभाषाएँ नहीं आतीं। वह बात-बात में 'फ़कÓ ध्वनि उच्चरित कर इसका प्रमाण देती रहती है। यह मैकालियन गुरुत्वाकर्षण का तीव्रतम प्रभाव और भाषाई साम्राज्यवाद (ग़ुलामी) का ज्वलन्त उदाहरण है। और, भारतीय समाज उस ग़ुलामी में आनन्दित है। वैचारिक दृष्टि से भी वही स्थिति है। साम्प्रतिक भारतीय शिक्षा जगत् में पश्चिमी विचार हावी हैं और पश्चिमी सन्दर्भों का अमर्यादित प्रचलन है। बुद्धिजीवी प्राय: उन्हीं विचारों पर कुलांचे भरने लग जाते हैं। वैसे, मैं व्यक्तिगत रूप में पदाक्रान्त भारत में साम्राज्यवाद की दीर्घावधि को 'संघर्ष का युगÓ मानता रहा हूँ, किन्तु भाषा एवं विचार की दृष्टि से भारत ग़ुलाम बना हुआ है, यह मानने के लिए बाध्य हूँ। न मानने का कोई विशेष कारण भी दृष्टिगोचर नहीं होता।
उपरोक्त दोनों समस्याओं (भाषा व विचार) को तीव्रतर बनाने में एक तीसरी समस्या का योगदान है, वह है, राष्ट्रद्रोही (गद्दार)। भारत को प्राय: बाहरी शत्रुओं की अपेक्षा भीतर के स्वार्थान्ध एवं बेईमानों (नमकहरामों) ने चोट पहुँचायी है। विक्रम चन्द्र के उपन्यास 'सेक्रेड गेम्सÓ पर आधारित वेब सीरीज़ में एक दृश्य है, जिसमें एक माफिया अपने दल में 'अन्यÓ को ग्रहण कर कार्य आरम्भ करने से पूर्व उसके सामने नमक प्रस्तुत कर देता है। अर्थात् यदि उसने नमक चख लिया, तो वह गद्दारी नहीं कर सकता। बावजूद इसके यदि वह गद्दारी करता है, तो उसे सज़ा-ए-मौत दी जाती है। इस दृष्टि से अन्डरवर्ल्ड ईमानदारों की दुनिया प्रतीत होती है। जबकि वास्तविक जीवन में न जाने कितने ही लोग इस महादेश को खण्डित करने का सुनियोजित प्रयास कर रहे हैं। देशान्तर्गत ऐसे बेईमानों और राष्ट्रद्रोहियों के लिए कोई कह भी नहीं सकता - 'देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को।Ó कालिया की भाँति राष्ट्रद्रोही भी नहीं कहते कि 'सरदार! मैंने आपका नमक खाया है, सरदार!Ó और न राष्ट्रवादी सरकार ही गद्दारों को कहती है, 'अब गोली खा।Ó फिर, कहने और करने में बहुत अन्तर भी है। यह इस देश की सुविधाजनक राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रमाण है कि जो कहा जाता है, वह किया नहीं जाता। बल्कि इसके विपरीत गद्दारों को पाल-पोस कर बड़ा किया जाता है। तुष्टिकरण की राजनीति से कौन परिचित नहीं है? जिसे भी पाँच वर्षों का कार्यकाल मिलता है, वह सोचता है कि ये पाँच वर्ष अव्यवधानपूर्ण निकल जायें, बस! ऐसे ही विचारों से देश का बेड़ा गर्क होता रहा है।
इतिहास में यह रेखांकित है कि मैकाले 10 जून 1834 को भारत आया था। भारतीय शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन करने के बाद उसने 1835 में शिक्षा नीति लागू कर दी थी। 1834 से 1838 तक, केवल चार वर्षों में उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बदल दिया था। उसका दृढ़ मत था कि अंग्रेज़ी शिक्षा से भारत में एक ऐसा वर्ग पैदा होगा, जो रक्त और रंग से भले ही भारतीय हो, परन्तु रुचि, विचार और दिमाग़ से अंग्रेज़ी तथा अंग्रेज़ों का ग़ुलाम होगा। कहना न होगा कि यह प्रकारान्तर से फलीभूत हुआ है। भारतद्रोही हर जगह फल-फूल रहे हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अकारण ही नहीं कहा था - 'भीतर भीतर सब रस चूसै। हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै॥ जाहिर बातन में अति तेज। क्यों सखि सज्जन नहिं अंगरेज॥Ó दो मत नहीं कि अंग्रेज़ी को अपनी भाषा और अंग्रेज़ों को उद्धारक मानने वाला एक वर्ग भारत में विद्यमान है और निरन्तर फल-फूल रहा है। और, कबीरा भाव से कह रहा है -'बाल न बांका करि सकै, जो जग बैरी होय।Ó इधर एक दशक से भारत में पूर्ण बहुमत वाली राष्ट्रवादी सरकार है। माने, यथेष्ट परिवर्तन की शक्ति सरकार को प्राप्त है। आगामी आम चुनाव भी अब सिर पर हैं। अर्थात् भारतीय राष्ट्रवाद के दस वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। यद्यपि यह सुखद है कि 2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी है, किन्तु क्या-कुछ बदला है, सभी जान रहे हैं। अंग्रेज़ी के साथ-साथ पश्चिमी विचार-दृष्टि फल-फूल रही है। गद्दार हैं कि गम्भीर भाव मुद्रा में निरन्तर हल्ला बोल ही रहे हैं। वे 'बाल न बांका करि सकैÓ भाव से कर्मरत हैं। हिन्दी की लोकोक्ति, 'उल्टा चोर कोतवाल को डाँटेÓ, वाली स्थिति बनी हुई है। और, सरकार की स्थिति बतौर कबीर 'कहा किया हम आयके, कहा करेंगे जाय। इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय।Ó- बनी हुई है।
यह स्पष्ट है कि मैकालियन अंग्रेज़ी के गुरुत्वाकर्षण ने भारतीयों के गुण और ज्ञान का कचरा कर दिया है। जो अंग्रेज़ी के पक्षधर हैं, उनकी अंग्रेज़ी अत्यन्त बेढंगी होने के बावजूद उन्हें बेढंगेपन पर ही गर्व है। कभी प्रसिद्ध शायर एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर रह चुके रघुपति सहाय उर्फ फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा था - 'भारत में केवल ढाई आदमी अंग्रेज़ी जानते हैं ; पहले स्वयं फ़िराक़ हैं। दूसरे हैं, राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन और शेष आधे हैं (जवाहरलाल) नेहरू।Ó यह कथन अंग्रेज़ी में ही है। और, यह उसका भावानुदित रूप है। यह कथन किसी भी प्रसंग में कहा गया हो, किन्तु भारत में तत्कालीन अंग्रेज़ी की स्थिति को प्रतिबिम्बित करता है। अंग्रेज़ी की स्थिति का ही अनुमान लगाना हो तो एक और प्रसंग का उल्लेख किया जा सकता है। कहा जाता है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. ए. एन. झा ने कश्मीर में आयोजित एक अंग्रेज़ी सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण में नेहरू के अंग्रेज़ी लेखन में कमियां निकाली थीं। इस घटना से कू्रद्ध पत्रकारों ने अगले दिन डॉ. ए. एन. झा को 'बायरोनिक प्रोफेसरÓ कहते हुए उनकी अंग्रज़ी को 'पहेलीÓ करार दिया था। माने, डॉ. ए. एन. झा ने नेहरू के अंग्रज़ी ज्ञान को आधा-अधूरा बताया, तो पत्रकारों ने झा की अंग्रेज़ी को 'बायरोनिकÓ कह कर उसे अनबोध्य करार दिया। यहाँ इन प्रसंगों का उल्लेख इस आलोक में कि भारत में अंग्रेज़ी की जड़ों को दृढ़तर बनाने के नानाविध प्रयासों के बावजूद तब भी वह भारतीय चित्त की अभिव्यक्ति का साधन न बन सकी थी। और, आज तक नहीं बन सकी है। जबकि अंग्रेज़ी को लादने के कारण भारत की पीढ़ियाँ अपनी ज्ञान परम्परा से विलग होती गयी हैं। अंग्रेज़ी अर्थात् पश्चिमी दृष्टि। और, अकादमिक एवं साहित्य जगत् आज तक पश्चिमी दृष्टि से ही भारत को देख रहा है। जापान, कोरिया, रुस इत्यादि तथा इजराइल जैसे अत्यन्त छोटे, किन्तु स्वावलम्बी देश ने अंग्रेज़ी से मुक्त होकर अपनी भाषा को प्राधान्य दिया और उसे प्रत्येक दृष्टि से सक्षम बनाया। आज ऐसे देश स्व-भाषा के आग्रह के कारण विश्व पटल पर विशिष्ट पहचान रखते हैं।
'एक भारत, श्रेष्ठ भारतÓ का अभियान भाषा और विचारों के स्वत्व बोध से ही पूर्ण हो सकता है। स्वभाषा के स्वत्व बोध को भुला कर भारत कदापि श्रेष्ठ नहीं हो सकता। बतौर रामविलास शर्मा - 'जो भारत की जलवायु में पला है, उसे भारत की भाषा और संस्कृति अपनानी होगी, उसे भारत की ही महत्ता का स्वप्न देखना पड़ेगा। भारतीय भाषाओं को अभारतीय ढाँचे में ढालने की चेष्टा पुरानी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति का एक अवशिष्ट चिह्न है, हम उससे किसी प्रकार समझौता नहीं कर सकते। जिस तरह हम भारत की भूमि से अन्न-जल ग्रहण करते हैं, उसी तरह उसकी भाषा भी। जब हम देश से प्रेम करना सीखेंगे, तब उसकी भाषा से भी प्रेम करेंगे। न हम देश-प्रेम में किसी से समझौता करना चाहते हैं, न भाषा-प्रेम में। देश-प्रेम और भाषा-प्रेम दो अलग वस्तुएँ नहीं, एक हैं।Ó (भारत की भाषा-समस्या, पृ. 25) यह भाव प्रत्येक भारतीय को आत्मसात करना होगा।
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)