समलैंगिक विवाह : भारतीयता की जीत
हम आपको यह भी बता दें कि सुनवाई के समय जहां एक ओर अदालत में समलैंगिक विवाह के पक्ष और विपक्ष में तमाम तरह की दलीलें दी जा रही थीं उसी समय देश के चौक-चौराहों, चौपालों और घर-घर में भी इस मुद्दे पर चर्चा हो रही थी। समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इंकार कर उच्चतम न्यायालय ने वाकई ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। देखा जाये तो अदालत का फैसला भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्पराओं और भारतीयता की जीत है। अदालत का फैसला भारतीय जन भावनाओं की पुष्टि भी करता है साथ ही एक सख्त संदेश उन विदेशी ताकतों को भी देता है जोकि भारत का सामाजिक चरित्र बिगाड़ने की साजिश रच रहे हैं। यही नहीं, हमारे धार्मिक, सामाजिक और नागरिक संगठन भी सराहना के पात्र हैं क्योंकि इन सभी ने संयुक्त रूप से भारतीय वैवाहिक और सामाजिक व्यवस्था को बचाने के लिए न्यायिक लड़ाई लड़ी और उसमें विजयी रहे।
जहां तक उच्चतम न्यायालय के फैसले की बात है तो आपको बता दें कि पांच न्यायाधीशों की पीठ ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इंकार कर दिया। न्यायालय ने यह भी कहा कि इस बारे में कानून बनाने का काम संसद का है। हम आपको बता दें कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिए जाने का अनुरोध करने संबंधी 21 याचिकाओं पर प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने सुनवाई की थी। फैसला सुनाते समय प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि न्यायालय कानून नहीं बना सकता, बल्कि उनकी केवल व्याख्या कर सकता है और विशेष विवाह अधिनियम में बदलाव करना संसद का काम है।
हम आपको यह भी बता दें कि सुनवाई के समय जहां एक ओर अदालत में समलैंगिक विवाह के पक्ष और विपक्ष में तमाम तरह की दलीलें दी जा रही थीं उसी समय देश के चौक-चौराहों, चौपालों और घर-घर में भी इस मुद्दे पर चर्चा हो रही थी। चूंकि आम भारतीय की नजर में समलैंगिकता को एक 'विकारÓ माना जाता है इसलिए तर्क दिया जा रहा था कि यदि समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता मिलेगी तो समाज गलत दिशा में जायेगा। यह भी कहा जा रहा था कि समलैंगिक माता-पिता बच्चों की अच्छी परवरिश नहीं कर पाएंगे।
हम आपको यह भी बता दें कि मामले में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का अनुरोध करने वाली याचिकाएं ''शहरी संभ्रांतवादीÓÓ विचारों को प्रतिबिंबित करती हैं और विवाह को मान्यता देना अनिवार्य रूप से एक विधायी कार्य है, जिस पर अदालतों को फैसला करने से बचना चाहिए। सरकार के ही पक्ष का बार काउन्सिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) ने भी समर्थन किया था। बार काउन्सिल ने उच्चतम न्यायालय में समलैंगिक विवाह मुद्दे की सुनवाई किये जाने पर चिंता जताते हुए कहा था कि इस तरह के संवेदनशील विषय पर शीर्ष न्यायालय का फैसला भविष्य की पीढ़ियों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है इसलिए इसे विधायिका के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। हालांकि बार काउन्सिल के बयान का तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा ने विरोध किया था। यही नहीं, तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी तो समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के पक्ष में पहले से ही खड़े थे। लेकिन ढेरों राजनीतिक पार्टियां, सामाजिक और धार्मिक संगठन आदि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के खिलाफ डटे हुए थे और अब उच्चतम न्यायालय का फैसला सामने आने के बाद सभी उसका हृदय से स्वागत कर रहे हैं।
वैसे जो लोग समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के पक्ष में खड़े थे या अब भी खड़े हैं उन्हें समझना चाहिए कि हिंदू धर्म में शादी केवल यौन सुख भोगने का एक अवसर नहीं है। विवाह द्वारा शारीरिक संबंधों को संयमित रखने, संतति निर्माण करने, उनका उचित पोषण करने, वंश परंपरा को आगे बढ़ाने और अपनी संतति को समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाने जैसे जिम्मेदारी भरे कार्य भी किये जाते हैं। इसके अलावा, यदि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिल जाती तो कल को यह भी हो सकता था कि समलैंगिक संबंध वाले अपने आप को लैंगिक अल्पसंख्यक घोषित कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर देते।
(लेखक स्तंभकार हैं)