ग्रीष्म ऋतु का रम्य मास - जेठ

ग्रीष्म ऋतु का रम्य मास - जेठ
डॉ. सुमन चौरे

थर-थराकर कँपती, सहमी-सहमी-सी बहने वाली हवा चिल-चलाकर हलकी होकर उड़ने लगी, सभी ने कहा “ऊँढाळो (गरमी) के दिन आ गए।” फागुन तो रंग गुलाल में भरा फर्र-फर्र होकर उड़ गया, चैत्र है तो गणगौर आराधना, नवरात्रि शक्ति साधना में लीन रहता है। चैत्र में ही रामनवमी है, तो हनुमान जयन्ती, सब भक्ति और भगवान् में रमे रहते हैं, किसी को न ज़मीन गरम लगती, न सूरज के तेज की फ़िकर। लगा वैशाख, तो वहाँ भी लोकपर्व सत्तू-अम्मोस, अक्षय तृतीया, वैशाख पूर्णिमा स्नान, शिवाभिषेक, तो ब्राह्मण भोजन तो पुण्य दान का मास। बचा मास, तो किसने सूरज को देखा, गाँव-गाँव गली-गली विवाहोत्सव, गंगापूजन, मण्डप ही मण्डप ,कब समय मिलता है लोक को कि वह आसमान को देखे। बचा कुचा वैशाख तीरथ यात्रा में लग गया। अब तपेगा ज्येष्ठ या जेठ।

भीषण गरमी का ठीकरा तो बेचारे जेठ मास के माथे पर ही फूटेगा। बात यह है, कि जिसके पास काम नहीं उसे ही लगता है घाम, उसे ही लगती है गरमी। यहाँ तो किरसाण को ही सब काम खेती-बाड़ी, बरसात के काम जेठ में ही करना रहता है। जैसे ही जेठ का महिना आता है, वैसे ही मुझे अपने गाँव की कुआवाळई किरसाण माँय की याद आती है, वह जेठ मास की इतनी तारीफ करती थी, कि लगता था कि सच में जेठ मास खेती किरसाणी का उत्तम मास है। इस मास में लोक पर्व भी बहुतेरे आते हैं। गंगा दशहरा, निरजला, सजला ग्यारस, डोडवळई अम्मोस, बड़ पुन्नव, आदि सब त्योहार जेठ को भी रम्य बनाते हैं। जेठ में सूर्य रोहिणी नक्षत्र में आता है तब नव-तपा लगता है। नवतपा में हीं सूरज धरती को तवे-सा तपा देता है। नदियों की कमर पतली हो जाती है। छोटे-छोटे नदी-नाले अपने अस्तित्व को बचाने में लगे रहते हैं। लोकमान्यता कि नव तपा में जितना अधिक सूरज तपता है, उतनी ही अच्छी वर्षा होती है। जब कभी नवतपा के नौ दिन के बीच पानी आ जाता है, तो कहते हैं कि रोहेणSनंS अण्डा गाळ दिया। अर्थात नव तपा में पानी गिरने से वर्षा आगमन में विलम्ब हो जायगा।

मध्यप्रदेश के लोकसांस्कृतिक-भोगोलिक प्रदेश के निमाड़ की लोकभाषा निमाड़ी मे ज्येष्ठ को जेठ महिना कहते हैं। जेठ ने मेरी स्मृति में एक परम्परा और चमका दी। जेठ में निमाड़ तो बहुत ही तपता है। ‘जेठ’ शब्द के साथ ही निमाड़ की एक लोक परम्परा मुझे याद आ रही है। ज्येष्ठ को जैसे निमाड़ में जेठ कहते हैं, ऐसे ही परिवार में बड़ा भाई छोटे भाई की पत्नी का जेठ कहलाता है। निमाड़ में जिस बेटी का विवाह होता है, अगर उस परिवार में उसके पति का बड़ा भाई अर्थात् बहू का जेठ (ज्येष्ठ भ्राता) है, तो उस बेटी को मायके वाले उसके ससुराल जेठ मास में नहीं भेजते हैं। ऐसी लोक मान्यता है कि जेठ भी जेठ जैसा ही तपता है। ससुर तो पिता का भाव रखता है, किन्तु बड़ा बेटा यानी जेठ परिवार को नियम-संयम-मर्यादा में बाँधे रखना चाहता है। इसी अनुशासन के कारण संभवत: यह परम्परा बनी है। वैसे निमाड़ में घूँघट जैसी परम्परा नहीं है, फिर भी ससुर की अपेक्षा जेठ का ज़रा ज्यादा ही मान-सम्मान और लाज का ध्यान रखा जाता है।

निमाड़ में लोगों को घाम सहने की आदत है। वर्षा के पहले खेती की पूरी तैयारी जेठ महीने में ही की जाती है। हमारे घर भी बड़ी खेती थी, जिसमें फल्ली, मूँगफल्ली का बहुत बड़ा रकबा रहता था। बीज तो कोठी में बन्द रहते थे; किन्तु मूंगफल्ली के बीच के लिए मूँगफल्ली बोनी से कुछ पहले ही फोड़ी जाती थी। फल्ली फोड़ने में बड़ी सावधानी रखनी होती थी। दाने ज्यादा दिन पुराने होंगे तो ख़राब जो जायँगे इसलिए जेठ में ही आठ-दस दिन बड़े पैमाने पर यह काम होता था। फल्ली फोड़ने का काम महिलाएँ ही करती थीं। चार-छ:-आठ महिलाएँ, अपने साथ एक-एक चपटा पत्थर और एक-एक लकड़ी का हत्था लेकर आती थीं। पत्थर पर फल्ली को खड़ा रखा जाता था और उसके मुँह पर हत्थे से धीमी मार दी जाती थी। छिलका दो फाकों में विभक्त हो जाता था, फिर बड़ी सावधानी से दाना निकाला जाता था। ये काम सधे हुए नाज़ुक हाथों से ही हो सकता था। पूरे दाने एकसाथ निकालकर फिर उसमें से दानों की छटाई होती थी। दाना कमज़ोर न हो, न मरा हो, न टूटा हो, वह दाना सुन्दर सुडौल होना चाहिए जो उम्दा पौधा तैयार कर सके। बीज छँटाई के अवसर पर उस समय महिलाएँ कितनी सावधानी और ध्यान रखती थीं, पसीने में तर भले ही हो जायँ किन्तु पल्लू से दूर से हवा लेतीं थीं। पीने का पानी भी उठकर दूर जाकर पीती थीं ताकि दाने को पानी ना लग जाय। बीजाई के दाने को सुरक्षित रखने के लिए बड़े कड़े नियम होते थे। इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी काम करते-करते सिखाए जाते थे।

जेठ महीने में ही हमारे घरों में बरसात की तैयारी भी होती थी। चने-मूँग के पापड़, पापड़ी, बड़ी, तो तेल-पानी के अचार की राई का मसाला तैयार करना। जो भी बीजाई की फल्ली दाने से टूटी-फूटी बीजियाँ होती थीं, उनको तेली के घर तेल निकालने के लिए दिया जाता था। हम भी अपने नौकर के साथ जाते थे, भले ही तपती गलियों पर पैर जले, पर तेली को चेताना हम ज़रूरी काम समझते थे “अचार का तेल है, गंदे हाथ मत लगाना ।” सच पूछो तो घाम में घूमना हमको भी पसन्द था। कुएँ के पास अनार और नीबू के पेड़ पर बैठी चिड़ियाँ तक घाम के मारे चोंच खोलकर सुस्ताती थी, पर घाम उन दिनों हमको अच्छा ही लगता था। वैसे भी निमाड़ में जेठ मास में भी इतने रम्य पर्व होते हैं, कि कौन घाम की तपन की परवाह करे। उस महीने में गंगा दशहरा होता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन नर्मदाजी से भेंट करने गंगाजी आती हैं। सलिए इस दिन के स्नान करने का पुण्य एक साथ ही होता है। हमारे गाँव के लोग पैदल चलकर नर्मदा स्नान करने ओंकार महाराज या खेड़ी घाट, मोरघड़ी और मोरटक्का जाते थे। उनकी यह अटूट आस्था रहती थीकि बिना चप्पल-जूते के पैदल चलकर जाने से स्नान पर्व का पुण्य कई गुना अधिक मिलता है। फिर पहनने वाले कपड़ों की पोटली अपने सिर पर रखते थे, जिसमे पूजा का सामान, तो आटा-दाल रखकर लोग अनवरत गाते-बजाते चल देते थे। लोक गीत की लड़ियों के स्वर टूटते नहीं थे। इसी से तपती धूप में तेज चलते रहने की ऊर्जा भी मिलती रहती थी। टोल के टोल, उनको देखकर, उनके आनन्द को देखकर लगता था, कहाँ है सूरज की तपन या आग उगलती लपटें । सब कुछ सब तरफ आनन्द ही आनन्द दिखाई पड़ता था। लोक मान्यता है कि सूरज जब अपना काम करता है, तो हमें भी अपना काम करना चाहिए। इसी मास की एक ग्यारस को ‘निरजला’ ग्यारस भी कहते हैं। तब भक्त इतनी तपन में भी बिना जला के रहते हैं। दूसरी ग्यारस आती है ‘सजला’ जिसमें आम ही खाकर उपवास करते हैं। जेठ मास की अमावस्या को निमाड़ में ‘डोडवळई अम्मोस‘ करते हैं। इस दिन गाँव की रौनक देखते ही बनती है। दिन उगे से ही जिधर देखो उधर ऐसा दृश्य दिखाई देता है मानों गलियों में हर-भरे पेड़ चल-चलकर आ रहे हैं। डोडवळई अम्मोस को ‘डेडरा अम्मोस‘ भी कहते हैं। ऐसी लोक मान्यता है कि डेडर (मेंढक) जल की देवी हैं। वही वर्षा करायगीं। किशोर बालक अपने शरीर को नीम और पलाश के पत्तों से भरी डालियों से ढँक लेते हैं। मानों वे साक्षात् वृक्ष ही हों। देखने के लिए उनका मात्र आँखों के पास का हिस्सा खुला रहता है। नीम-पलाश से सजे लदे बच्चे ‘डेडरा’ कहलाते हैं। उनकी कमर में एक रस्सी बाँध दी जाती है, करीब दो-तीन गज लम्बी, जिसे पकड़ कर उनके पीछे एक साथी चलता है। वह इन डेडरों को पीछे से रस्सी खींचता है जबकि डेडर आगे चलने की कोशिश करते हैं। ये झटके से आगे-पीछे डोलते हुए आगे बढ़ते हुए दीखते हैं। डेडरों का समूह का समूह चलता है। ये बालक गाँव के हर घर जाते हैं। वे घरों के सम्मुख खड़े होकर गीत गाकर पानी माँगते हैं। छोटी-छोटी पंक्तियाँ गाते हैं, जिसमें स्तुति भी होती है।

दS भाई दS.... धक्को दS....

कोठी मंS नी होयS तो सैणो फोड़ी दS..

दS माँयS दाणाS ओतराजS घणाS

सुपड़ा मंS धाणी, थारी बेटी राणी

दS माँयS पाणी, सुखी रहीज़ लाणी

दS माँयS दाणाS थारो बेटो राणाS

भावार्थ: धक्का दे भाई धक्का दे। हे ममतामयी माँय अगर कोठी में ऊपर दाने नहीं निकालते बन रहे हैं, तो कोठी का सैणा (अनाज भंडारण की बड़ी कोठी के नीचे की अनाज निकालने की खिड़की) फोड़कर दाने दे दे। तू दाने दे, तेरा बेटा बड़ा राणा है। सुपड़े में धानी है, तेरी बेटी रानी है। तेरे द्वारा दिए गए थोड़े से दाने भी हमारे लिए पर्याप्त हैं।

डेडरा बालक और उनके साथी गृहस्वामी की प्रशंसा में ऐसे तुकबंदी गीत गातें हैं, गृहस्वामी उन डेडरों पर कलश से ठंडा पानी डालते हैं। फिर वे डेडरे, डेडर जैसे ही फुदकते हैं। जिनके हाथ में डोर होती है, वे सहयोगी मित्र उन्हें खींच-खींच कर खूब कुदाते हैं। इसके बाद इन डेडरों को अनाज दिया जाता है। इसमें ज्वार, गेहूँ, चोखा, मूँग, चना कोई भी अनाज हो सकता है। पूरे गाँव में प्रत्येक घर में डेडर-डेडरी पानी माँगने जाते हैं। कळ-कळ धरती पर जिधर देखो उधर पानी के रेले-ही रेले दीखते हैं।

डेडरों के अलावा डेडरी भी आती हैं पानी माँगने। छोटी-छोटी बालिकाएँ कवेलू पर गोबर से डेडर (मेंढक) बनाती हैं। एक कवेलू पर चार-पाँच डेडर बनाती हैं। ऐसी बहुत सारी बालिकाएँ अपने सिर पर डेडर वाले कवेलू रखकर पानी माँगने द्वार-द्वार जाती हैं। बालिकाएँ जो गीत गाती हैं, उसमें उनकी चिन्ता दिखाई देती है, कि ‘हमारे खेत तेज धूप से जल गये हैं, हे पानी की देवी डेडर माता तू पानी बरसा।’ गीत है-

डेडर माता पाणी दS ओS

पाणी को पड़ी गयो सेरोS

भीँजई गयो पडोळो

काळा खेतS मंS पीपळई

रसS लगी धारS... साळS सुखेल.

कोदा फुकेळS.. दS ओS माँय टुलेलS दाणाS

भावार्थ: हे पानी की देवी डेडर माता, तू पानी दे। हमारे खेत जल रहे हैं। साल-कोदा, कूटकी सब जल रहे हैं। हे डेडर माता तेरे बोलने से पानी बरसेगा। हमारे खेतों में रसभर वर्षा होगी। हमारी साड़ी भींग जाय, और पीपल का वृक्ष भी जल से नहा लेगा। हे पटलन माय, हमारे घर खाने को दाने नहीं हैं, तू टुलेक (पीतल का बना डिब्बानुमा मापक जिसमें करीब आधा किलो अनाज आता था) दाने दे दे।

डेडरी-डेडरों को सभी घर में से अनाज मिलता है। ऐसा लोक विश्वास है कि पानी माँगने से डेडर माता टर्र-टर्र करती है और वर्षा होने लगती है।

‘डोडबळई अम्मोस’ को ‘वट अम्मोस’ भी कहते हैं। कुछ लोग इस दिन वट की पूजा करते हैं और बड़ी संख्या में वट पूर्णिमा को वट की पूजा की जाती है। विशेषकर यह महिलाओं का सौभाग्य कामना का व्रत है। निमाड़ में ‘वट’ को ‘बड़’ कहते हैं। इसलिए इसे ‘बड़ पुन्नव’ कहते हैं। इसकी कथा सत्यवान सावित्री से संबंधित है।

बरसात की झड़ी लगते ही की किसानों को साँस लेने तक की फुर्सत नहीं रहती है, विशेषकर महिलाओं को। उनका तो काम और भी बढ़ जाता है, सरता में बीज बोने धान-मिर्ची की रोपाई तक। फिर उनकी निंदाई-गुड़ाई का सभी काम महिलाओं की ही सहभागिता से सम्पन्न होता है। ऐसे में, उन्हें अपने पीहर जाने तक का अवसर भी नहीं रहता है। निमाड़ की एक समृद्ध परम्परा है डोडबळई अम्मोस की। इस दिन बेटी को अपने पीहर ‘रस-रोटी’ जीमने का निवता रहता है। निमाड़ की यह परम्परा इतनी अधिक प्रचलन में है कि बूढ़ी महिलायें तक अपने पीहर जीमने जाती हैं। कभी-कभी, कहीं-कहीं बड़ा हास्यास्पद दृश्य उपस्थित हो जाता है। जिन परिवारों में बेटियाँ नहीं होती हैं वहाँ सास-बहू सब अपने पीहर में जीमने चली जाती हैं। अब बचे बिचारे बाप-बेटे। ये पुरुष अपने घर भोजने बनाने में लगे रहते हैं। कारण, बेटियाँ पीहर में आकर भोजन बनाती हैं, तो घर के पुरुष लोग भोजन करते हैं। वैसे निमाड़ में यह भी एक रिवाज है, कि सामान्यत: बेटियाँ गाँव में ही परणावायी जाती हैं, या आस-पास के गाँवों में, ताकि घण्टे-आध घण्टे में सासरे से अपने-अपने मायके पहुँच जायँ। रस-रोटी खाकर डोडबळई अम्मोस मनाकर, महिलाएँ बरसात की, घर भीतर की तैयारियाँ शुरु कर देती हैं।घर में भोजन पकाने का ईंधन चार माह के लिए संरक्षित करना पड़ता था।

कण्डे का छनेरा बनाना एक बड़ा कार्य कौशल का काम होता था। छनेरा के कारण चाहे कितनी ही तेज बरसात क्यों न हो, सूखे कण्डे भोजन पकाने के लिए मिलते ही रहते थे। छनेरा बनाने की विधि, कण्डों को गोलाकार अपनी कमर की ऊँचाई तक जमाकर उन पर पहले घास, फिर पलाश के पत्तों से ढक कर, उन पर तीन परतें गोबरमाटी की चढ़ा दी जाती थी। इससे पूरी बरसात सूखे कण्डे मिलते रहते थे। पहले प्लास्टिक जैसी कोई चीज नहीं हुआ करती थी, जिससे बरसात के पानी से बचाव हो सके। दूसरे, घर की लिपाई-पुताई गोबर-माटी से होती थी। बरसात में पीली मिट्टी की खदानें तो पानी से भर जाती थीं, इसलिए बरसात से पहले सूखी पीली मिट्टी की खदानों से खीड़ों में भरकर लाते हैं, फिर उसे बारीक छानकर उस मिट्टी को भींजकर उनके कण्डे बनाकर सुखा लिए जाते थे। उस माटी को भी ऐसे ही छनेरा बनाकर रखते थे, जिससे सदा मिट्टी सूखी बनी रहे।

जेठ के महीने में बरसात के पहले एक-दो बार बड़ा-बड़ा वाटळ्या (चक्रवात-प्रतिचक्रवात) आते हैं। मुझे आज भी याद है, एक बार इतना तेज वाटळ्या आया था कि पटिलदाजी की टीन की पूरी छत उड़कर धड़ा-धड़ आवाज़ करती दूसरे के घर पर जा गिर पड़ी थी। खलिहान में रखे घास के पूळे ऐसे उड़-उड़ कर जा रहे थे, जैसे कोई तिनके उड़ कर जा रहे हों। एक बार गोल-गोल हवा में हमारा कामगार गुलब्या भाई ऐसा फँसा कि वह बड़ी मुश्किल से निकल पाया था। नाक-कान-मुँह सब दूर धूल भर गई थी। वह हवा के चक्रवात से बहुत दूर तक घिसटता हुआ गया था। फिर तेज बारिश के बाद ही प्रचण्ड चक्रवात शांत हुआ।

उन दिनों इक्के-दुक्के घरों को छोड़कर बाकी सभी घर कच्चे ही हुआ करते थे हमारे गाँव में। घाम की परवाह किए बिना लोग, घरों पर चढ़कर कवेलुओं के छत ठीक कर लेते थे। जिससे बरसात का पानी घर में न टपके। इसको घर छाना कहते थे। ऐसी तैयारी करते समय किसे सूरज का तेज भान रहता था। भले ही कोई कहता रहे, सूरज आग उगल रहा है, घरती तवे-सी तप रही है, हवा गरम लपटों से झुलसा रही है, पर किसान को कहाँ परवाह है, इन सबकी। जैसे ही अपने काम से वह निपट कर ऊपर सिर उठाकर आसमान को देखता था, तो आसमान काले-काले बादलों से सूरज को ढक रहा होता था। तभी लगा ‘बड़ पुन्नव’, वट सावित्री की पूर्णिमा, होते होते निमाड़ में पानी की आमद बादलों के रूप में आकाश पर छा जाती थी। कुआँ वाळई माँय की बातें याद आती हैं, वह कहती थी, “उँढाळो उम्दा, बड़ा उम्दा। जेठ तपSगा ते उम्दा बारिश होय...।“

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