गुरु : जीवन का शिल्पकार

गुरु : जीवन का शिल्पकार
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व्याप्ति उमड़ेकर

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

अज्ञान रूपी अहंकार को हटाकर ज्ञान रूपी अंजन की शलाका से जो नेत्रों को खोलता है, वह गुरु होता है। गुरु कृपा प्राप्त हो जाने से अर्जुन सव्यसाची बन जाता है । गुरु की कृपा वह है जो प्राप्त हो जाए तो ,परमात्मा स्वयं जीवन रूपी रथ का सारथ्य स्वीकार कर , विजय तिलक भाल पर लगा देता है । गुरु की कृपा यशद्वार की कुंजी है। इसका उदाहरण है अर्जुन का जीवन। किंतु आखिर क्यों केवल अर्जुन जैसे ही विरले लोगों को गुरु कृपा प्राप्त होती है। यह समझने के लिए एक दृष्टि डालते हैं , कुरुक्षेत्र के समरांगण में जहां कृष्ण अर्जुन को गीता ज्ञान दे रहे हैं।

लोकोत्तर शूरता और श्रेष्ठ धनुर्धर होने के बाद भी अर्जुन के चरित्र की प्रमुख विशेषता थी ,विनय शीलता। गीता में अर्जुन एक पूर्ण भक्त और आदर्श शिष्य का उदाहरण है ।अर्जुन शिष्य है ना कि छात्र । छात्र वह है ,जो अपनी बौद्धिक जिज्ञासा को शांत करने तक शिक्षक का महत्व स्वीकारता है। किंतु शिष्य वह होता है ,जो समर्पण और पूर्ण निष्ठा के साथ अहंकार शून्य होकर गुरु से ज्ञान प्राप्ति का अभिलाषी हो। अर्जुन वही अहंकार शून्य शिष्य है, जो अपने संदेहों का समाधान करने के लिए मधुसूदन के मार्गदर्शन का अभिलाषी है।

दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में अर्जुन कहते हैं -

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌

अंतर्मन के द्वंद में उलझा अर्जुन उचित अनुचित के संदेहो से भरा हुआ है ।दिग्भ्रमित होने की स्थिति में वह अत्यंत विनयशीलता के साथ श्री कृष्ण के समक्ष विनती करता है ,परामर्श हेतु उचित मार्गदर्शन हेतु, जिसका वह अनुसरण कर सके। उनकी इसी विनय शीलता से श्रीकृष्ण प्रभावित थे।

युद्ध के पूर्व जब दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही श्री कृष्ण से सहायता मांगने गए थे। तब श्रीकृष्ण निद्रा की स्थिति में लेटे थे । दंभ से भरा दुर्योधन उनके सिरहाने आसन पर बैठ गया , जबकि अर्जुन श्री चरणों के समक्ष नम्रता पूर्वक बैठ गया। श्री कृष्ण ने आंखें खोली तो उन्होंने अर्जुन को ही सर्वप्रथम देखा अतः उसे है पहले मांगने का अधिकार दिया। एक और नारायणी सेना तथा दूसरी और केवल निःशस्त्र श्री कृष्ण में से किसी एक को चुनने का अवसर दिया ।अर्जुन ने तुरंत श्री कृष्ण को अपने पक्ष में मांगा। दुर्योधन संख्या बल से युक्त नारायणी सेना को पाकर खुश था, वह अकेले श्री कृष्ण के महत्व को नहीं समझ पा रहा था।

अर्जुन की इसी विनम्रता से प्रभावित श्री कृष्ण ने युद्ध में अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार लिया था ,और जिसके सारथी स्वयं श्रीकृष्ण हो उसे कौन है, जो पराजित कर सकेगा । श्री कृष्ण ने ना केवल कुरुक्षेत्र के रण में अर्जुन की विजय पताका फहरा दी, बल्कि उसके अंतर्मन में निहित समर का भी अंत कर दिया। एक सच्चे गुरु की खोज जितनी कठिन है ,इससे अधिक कठिन है एक सच्चा शिष्य बनना।

अहंकार युक्त, वृथाभिमान से युक्त व्यक्ति को ना कोई उचित गुरु प्राप्त होता है और ना ही वह ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता भी रखता है ।उसका खोखला अभिमान उसे किसी भी प्रकार का ज्ञान और मार्गदर्शन स्वीकार करने भी नहीं देता ।केवल आंतरिक विनम्रता की स्थिति में ही गुरु अपने ज्ञान की वर्षा से शिष्य की ज्ञान पिपासा शांत कर सकता है। गुरु शिष्य का संबंध गुरु के प्रति शिष्य की भक्ति और पूर्ण विश्वास पर ही अवलंबित है।

गीता के अठारहवें अध्याय के अठहत्तरवें श्लोक में लिखा गया है कि जहां योगेश्वर कृष्ण जैसे मार्गदर्शक गुरु हो ,जो समस्त संदेहों को हर ले और अर्जुन जैसा भक्ति भाव युक्त शिष्य हो ,जो अपने गुरु के प्रति समर्पित हो । वहीं सफलता ,विजय तथा आत्मानुशासन का अचल सिद्धांत भी है।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥


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