सम्यक प्रवृत्ति की भाषा है हिंदी
हिन्दी का एक शब्द है,'सहकर्मी प्रेरणाÓ। यानि हम जिसके साथ काम कर रहे हैं, उनकी अच्छी आदतों को प्रेरणास्वरूप ग्रहण करना। यह शब्द सोशल मीडिया के प्रचलित उन सैंकड़ों चलन को बताता है, जिससे कि हिंदी की वर्तमान स्थिति समझी जा सकती है। निश्चय ही पहले की तुलना में हिंदी भाषा के प्रयोग को अधिक विस्तार मिला है सोशल मीडिया के मंचों पर। हिंदी भाषा ने विगत कुछ वर्षों में इस मंच पर खुद को विस्तृत किया है। इसका प्रमाण फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर उपस्थित हिंदी है। यह तो हम सब जानते हैं कि आज सभी कुछ पॉपुलर कल्चर के प्रभाव में है। फिर भाषा पर भी इसका असर आना लाजमी है। सोशल मीडिया पर लिखी या प्रस्तुत की जाने वाली हिंदी के संदर्भ में इस असर को भी देखा जा सकता है। फिर बात आती है कि सहकर्मी प्रेरणा का केंद्र कहाँ है? ये हैं मीडिया की शब्दावली में कहे जाने वाले मीडिया इंफ्लुएंसर्स। ये लोग इसके केंद्र में हैं, जो सहकर्मी प्रेरणा के स्रोत बन रहे हैं हिंदी भाषा के प्रयोग में। विशेष कर युवाओं में। ये इंफ्लुएंसर्स हिंदी को विस्तृत कर रहे हैं। हाँ, विकसित कितना कर रहे हैं, यह अलग विषय है। क्योंकि इनकी भाषा परिवर्तित हिंदी है, लेकिन सिकुड़ी हुई शब्दावली की हिंदी नहीं। क्योंकि हिंदी की जो सम्यक प्रवृत्ति है, वह इस बात की छूट नहीं देती।
हिंदी भाषा पर समय- समय पर विमर्श होते रहे हैं। कभी क्षेत्र भाषा के संदर्भ में तो कभी माध्यमों की प्रकृति को जोड़ कर देखने के संदर्भ में। आज जब हिंदी दिवस को हम मना रहे हैं तब हिंदी की मूल प्रवृत्ति पर भी बात होनी चाहिए। आजादी के बाद संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया तब से आगे के समय में इस तिथि को हिंदी दिवस मनाने की शुरुआत हुई। हिंदी के माथे राजभाषा का ताज सज चुका था अब इसके आगे का सफर लोगों के द्वारा औपचारिक प्रयोग की ओर था। हालांकि हिंदी भाषा शुरू से जनसमूह की भाषा रही है। लेकिन इसे सोशल मीडिया की औपचारिक भाषा बनने के लिए एक लंबा सफर तय करना पड़ा है। सोशल मीडिया, जिसकी भाषायी प्रवृत्ति संक्षिप्तीकरण की है, हिंदी को अलग तरीके से प्रभावित किया है। सूचना के इस तेज बहाव में हिंदी भाषा में कई तरह की भाषाओं का समावेश हुआ, बावजूद इसका संक्षिप्तीकरण नहीं हो पाया। यह इस भाषा की शक्ति ही है। ज्ञात हो कि भाषामात्र भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं है बल्कि ज्ञान को संचित करने, संबंधित देश के ज्ञान -विज्ञान के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता को जानने का प्रभावी एवं उपादेय साधन है। हिंदी की सम्यक प्रवृत्ति को इस संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। विश्व की हर भाषा में देश-काल, परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होते हैं, जिस परिवर्तन की पहली सीढ़ी भाषा के शब्द होते हैं। प्रत्येक भाषा का शब्द भंडार समय के साथ घटता-बढ़ता रहता है। कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो प्रचलन से बाहर हो जाते हैं तो कुछ नये शब्द भाषाओं के शब्द भंडार की अभिवृद्धि करने लगते हैं। यानि परिवर्तन में सबसे पहले शब्द ही प्रभावित होते हैं। कभी पुराने शब्दों का स्थान नए शब्द ले लेते हैं तो कई बार उसी शब्द के अर्थ एक खास परिप्रेक्ष्य में रूढ़ हो जाते हैं। कई बार शब्दों को तोड़-मरोड़ कर संकुचित या छोटा कर दिया जाता है। इसे अंग्रेजी भाषा के 'ब्रोÓ,'सिसÓ जैसे उदाहरणों से समझा जा सकता है, जिसे सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है। भाषा के इस परिवर्तन में मुख-सुख और प्रयत्न लाघव, अज्ञानता तथा अन्य भाषा-भाषी लोगों की भी भूमिका होती है। लेकिन हिंदी भाषा ने इस संकुचन की छूट नहीं दी है। तभी तो सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्विटर, या व्हाट्सएप आदि पर हिंदी में लिखते समय भी अंग्रेजी के संकुचन वाले शब्दों से ही काम चलाना पड़ता है। यह हिंदी की सम्यक प्रवृत्ति ही है कि जहां शब्दों को अपनी सहूलियत के हिसाब से छोटा करने पर अर्थ ही पूरा नहीं हो पाएगा। हालांकि प्रयत्न-लाघव के आधार पर हिंदी भाषा के ढांचागत स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन हो ही जाते हैं। लेकिन ढांचागत परिवर्तन में भी शब्द को सिकोड़ा नहीं जा सकता। बताते चलें कि मुख सुखया प्रयत्न लाघव जिसे कहते हैं, वह शब्द भाषा में जिह्वा या जीभ को बिना अधिक तोड़े-मरोड़े शब्दों के उच्चारण को लेकर प्रयुक्त एक खास क्रिया है जिसमें थोड़ा-सा श्रम करके अधिक कह देना मुख-सुख या प्रयत्न लाघव है। यह मुख-सुख की क्रिया कई बार शब्दों के रूप को बदल देती है तो कई बार वाक्य को छोटा कर देती है। जैसे-यदि किसी से पूछा जाए कि आप कब आए? तो उत्तर मिलता है- अभी-अभी या थोड़ी देर पहले। कोई यह नहीं कहता कि 'मैं अभी-अभी आया हूँ।Ó अथवा 'मैं थोड़ी देर पहले आया हूँ।Ó लेकिन 'अभीÓ शब्द जो यहाँ कहा गया है इसका संक्षिप्तीकरण संभव नहीं। अगर संक्षिप्त कर भी दिया जाए बलपूर्वक तब अर्थ समाप्त हो जाएगा। हालांकि व्यक्ति नामों के साथ शहरी संस्कृति में यह चलन हो रहा है, जो निश्चित रूप से पॉपुलर कल्चर से प्रभावित है। जैसे सागरिका नाम की लड़की का 'सैगूÓ बन जाना या साधना नाम का 'संडूÓ हो जाना। यहाँ बताते चलें कि नाम जो संज्ञा का प्रारूप है वह 'सागरिकाÓ की जगह 'सैगूÓ स्थानांतरित हो गया है, क्योंकि नाम अपने आप में रूढ़ हो जाता है किसी व्यक्ति विशेष के साथ जुड़ कर। लेकिन अगर 'साधनाÓ का जो शाब्दिक अर्थ है वह अर्थ 'संडूÓ नहीं प्रदान कर सकता है। कहने का आशय है कि संपूर्णता हिंदी भाषा की मूल पहचान है। हालांकि भाषा में परिवर्तन होना प्रकृति का नियम ही है। तभी तो इसे बहते नीर से भी जोड़ा गया है। लेकिन उसे सिकोड़ कर तोड़- मरोड़ कर आघात कर उसके मूल स्वरूप को ही बिगाड़ दिया जाए, तब अर्थ प्रभावित तो होंगे ही। आज हिंदी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ रही है, ऐसे में भाषा में सकारात्मक और नैसर्गिक परिवर्तनों को अपनाने और बलात विकृतियों से बचने की आवश्यकता है।
(लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)