हिंदी हमारी आत्मा

हिंदी हमारी आत्मा
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डॉ. साधना बलवटे

न जाने क्यों मुझे लगता है कि हिंदी माह और श्राद्धपक्ष का आपस में कोई न कोई संबंध अवश्य है। बेवजह या मात्र संयोग से ही तो श्राद्ध पक्ष हिंदी मास में या हिंदी दिवस श्राद्ध पक्ष में नहीं आते होंगे ना? अक्सर पितृ पक्ष और हिंदी पखवाड़ा आपस में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि हिंदी पखवाड़ा मना रहे हैं यह श्राद्ध कर रहे हैं। वैसे भी पितृ और हिंदी दोनों एक ही स्थिति से गुजर रहे हैं। पुरखे और हिंदी दोनों ही सितंबर के महीने में बड़ी जोर से याद आते हैं, दोनों ही एक पखवाड़े तक जमे रहते हैं पुरखे तो पूर्णिमा से अमावस के बीच संतुष्ट होकर विदा हो जाते हैं। किंतु हिंदी अपने सम्मान की भूख में माह तक पसर जाती है। श्राद्ध में कौओ की और हिंदी दिवस पर साहित्यकारों की मांग में उछाल किसी भूचाल की तरह आता है। कौए तो दिन में एक आध श्राद्ध जीमने के बाद मुंह नहीं मारते, किंतु हिंदी का साहित्यकार तो हिंदी के दस-बारह सम्मान जीम के भी संतुष्ट नहीं होता। भला सम्मान की भूख इतनी जल्दी कैसे खत्म हो सकती है। कॉन्वेंट स्कूलों में भी हिंदी के शिक्षक साल भर में एक ही बार काम के लगते हैं। इसीलिए हिंदी को दिवस से सप्ताह तक सप्ताह से पखवाड़े तक, पखवाड़े से मास तक नियोजित तरीके से खींच लिया जाता है। शॉल, श्रीफल, प्रशस्ति, जीमते-जीमते और भाषणों की डकार लेते-लेते भी भाषणों की भूख और रहीम के 'बिन पानी सब सूनÓ वाली पानी की प्यास, बुझती ही नहीं। चातक की तरह फिर ताँकने लगता है अगले हिंदी दिवस की ओर।

साहित्यकारों और कौओ में एक अंतर यह भी है कि कौए बड़े घमंडी होते हैं, जैसे ही उन्हें पता चलता है कि उनकी पूछ परख बढ़ने वाली है, उनमें एटीट्यूड आ जाता है। वह दृश्य पटल से गायब होकर अपनी महत्ता का प्रदर्शन करने लगते हैं इस मामले में साहित्यकार सच्चा धार्मिक होता है वह अपने श्रद्धालुओं को कभी नाराज नहीं करता फिर हिंदी तो उसकी मां है उसके श्राद्ध भोज में..... क्षमा कीजिए सम्मान समारोह में वो अकड़ कैसे दिखा सकता है। यद्यपि वह भलीभांति जानता है कि, वो हिंदी की बारात में नहीं आया है, उसे भी हिन्दी की तरह ही कभी कभार ही भाव मिलता है। फिर वह कौओं की तरह मूर्ख थोड़े ही है जो ऐसा स्वर्ण अवसर हाथ से जाने दें और समय पर ढूंढे-ढूंढे न मिले। वह तो हिंदी का पंडित है जो वर्ष भर (शॉल श्रीफल) खीर पूड़ी की प्रतीक्षा करता है और मिलते ही टूट पड़ता है।

भला अपने दक्षिणापूर्ति करते यजमान की अवमानना वो कैसे कर सकता है। सितंबर के माह में तो वह खाता भी हिंदी है और करता भी हिंदी है 30 दिनों में इतनी हिंदी कर चुका होता है कि फिर बाकी साल करने की इच्छा ही नहीं होती। कुछ को तो इतना अजीर्ण हो जाता है कि मुँह का स्वाद बदलने के लिए 2 अक्टूबर का भाषण भी अंग्रेजी में तैयार करते हैं गांधी जी अवर फॉदर ऑफ नेशन ......मानदेय के लिफाफों में बंद फॉदर ऑफ नेशन के वजन के बराबर ही हिंदी अपना वजन बढ़ा पाती। एक महीने की खुराक उसे कब तक कुपोषित होने से बचा सकती है। जो लोग गयाजी में अपने पितरों का अंतिम पिंड दान नहीं कर पाते, वे प्रतिवर्ष तर्पण करने को मजबूर होते हैं। आखिर कब तक हम हिंदी का तर्पण करते रहेंगे इससे अच्छा तो हम उसे गयाजी में छोड़ आए। कम से कम पुनर्जन्म तो ले लेगी। किंतु हम सब जानते हैं हिंदी हमारी आत्मा है और आत्मा मर नहीं सकती। जीवन रक्षक प्रणाली पर पड़ी हिंदी नवजीवन के लिए महामृत्युंजय यज्ञ की प्रतीक्षा कर रही है। ऊँ त्रयम्बकं यजामहे .....।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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