समतामूलक संकल्प के अभिनंदनीय प्रणेता

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गुरु प्रकाश

जीवंत सभ्यता होने के नाते हमने अपने लंबे देशकाल में सामाजिक सुधारों की असंख्य परंपराओं का अवलोकन किया है। बिंदेश्वर पाठक भी ऐसी परंपरा के पोशक थे जो समरसता के अर्थात सामाजिक समेकन विचार पर आधारित थी। स्वच्छता अभियान को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने के लिए उन्हें आरंभ में अपनी ब्राह्मण बिरादरी और कुटुम्ब में ही धिक्कार एवं दुरदुराहट का सामना करना पड़ा। बाकी की बात तो छोड़िए उनके अपने ससुर ही लंबे समय तक ये सोचते रहे कि उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह जिससे किया वह उनके खानदान के शायद उपयुक्त नहीं था। इस सबसे बेपरवाह डा. पाठक अपने लक्ष्य के संधान में पूरे मनोयोग से लगे रहे। अंतत: उन्होंने सुलभ इंटरनैशनल जैसे समाजोपयोगी एवं समरसतापरक संस्था का निर्माण करके अपने आलोचकों को खुद पर गर्व करना सिखा दिया। उनके द्वारा निर्मित सुलभ संस्था आज देश भर में सार्वजनिक शौचालयों की लंबी श्रृंखला चलाकर उनका पर्याय बन गई है। दुनिया में लेखकीय प्रतिभा का सबसे नामी पुरस्कार पाने वाले भारतीय मूल के लेखक वीएस नायपॉल ने अपनी पुस्तक 'एन एरिया ऑफ डार्कनेसÓ में लिखा है कि भारत के लोग हर जगह शौच कर देते हैं। वे अधिकतर रेलवे लाइनों के किनारे शौच करते हैं। इतना ही नहीं वे बैंचों पर भी शौच कर देते हैं, वे पहाड़ों पर शौच कर देते हैं, वे गलियों में शौच कर देते हैं, वे कभी किसी आड़ में शौच करने की भी परवाह नहीं करते। हमने अतीत में सामाजिक रूप में खुले में शौच करने एवं मानव मल को सिर पर ढोने जैसी कुछ अत्यंत बर्बर एवं अमानवीय यथार्थों को लंबे समय तक नजरअंदाज किए रखा। लेकिन डा. पाठक ने उनसे समझौते के बजाए उन दोनों प्रथाओं के विरूद्ध सक्रिय एवं सार्थक अभियान चलाया। उनके जीवन एवं कार्य क्षेत्र का आधार उन लोगों के भाव एवं सोच थे जिनके जेहन में ये बात बचपन से ही बैठा दी जाती थी उनकी तकदीर में सिर पर मानव मल ढोना ही बदा हुआ है। उदाहरण के लिए धारा 370 में संशोधन के पूर्व जम्मू एवं कश्मीर में वाल्मीकियों को स्वच्छता संबंधी कार्यों के अतिरिक्त किसी भी अन्य पेशे को अपनाने की कानूनन अनुमति नहीं थी।

दलितों के बर्बर यथार्थ को बदलने में बिंदेश्वर पाठक जेसे दृढ़निश्चयी व्यक्तित्वों के क्रांतिकारी दखल एवं कार्यों का महती योगदान है। साल 2014 में स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समावेशी विकास लक्ष्यों के तहत स्वच्छ भारत अभियान के जरिए खुले में शौच को समाप्त करने का ऐतिहासिक आह्वान किया था। उस घोषणा का मजाक उड़ाए जाने की स्मृतियां लोगों के जेहन में अब भी होंगी। राजनीतिक नेताओं और अभिजात बुद्धिजीवी प्रतिष्ठानों को लालकिले की शाही प्राचीर से शौचालय की बात करना रास नहीं आया था। शायद पाठक एवं प्रधानमंत्री मोदी ऐसे वैश्विक दृष्टिकोण के वाहक हैं जिसे आरंभ में तो विरोध झेलना पड़ता है मगर अंतत: उससे अविस्मरणीय सामाजिक क्रांति आती है।

आज यूनिसेफ एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अनेक संगठनों ने स्वच्छ भारत मिशन के उन लोगों के जीवन पर घटित हुए परिणामों के अध्ययन के लिए अनेक सर्वेक्षण एवं अध्ययन करवाए हैं जिन्हें बंधुआ जीवन जीने की आदत ही पड़ गई थी। स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च में भारी बचत से लेकर कन्याओं के स्कूलों में दाखिले के आंकड़ों हुई बढ़ोतरी के जरिए स्वच्छ भारत अभियान अपने वांछित लक्ष्य की प्राप्ति में कामयाब होता दिख रहा है।

डा. बिंदेश्वर पाठक को वास्तविक श्रद्धांजलि सभी प्रकार का भेदभाव समाज से मिटाने के लिए देश को एकजुट करना होगा। हम दुनिया की एकमात्र जीवंत सभ्यता हैं और हमें जीवंत बनाए रखने में कबीर से लेकर फुले, अंबेडकर, डा. पाठक तक अनके विभूतियों का अविस्मरणीय योगदान है। जन्मना ब्राह्मण होने के बावजूद दलितों एवं अन्य वंचित वर्गों के लोगों के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर देना न तो कोई अपवाद है और न ही उदाहरण-यह तो महज परंपरा है। डा. पाठक का जीवन संघर्ष नहीं बल्कि समन्वयमूलक दृष्टि का प्रतीक है। पाठक की तरह रचनात्मक एवं समाधानपरक उपायों से सामाजिक भाईचारे के आदर्श चरण में पहुंचने की राह खोजनी चाहिए।

(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

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