आतंक के पर्याय लाल सलाम पर कैसे लगे लगाम
लगभग दो दशक से अधिक समय से देश के कुछ प्रदेशों छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र एवं पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों के एक निश्चित भू-भाग पर नक्सल विचार धारा के उपद्रवियों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधी चुनौती दे रखी है। जो भारत की आंतरिक सुरक्षा एवं व्यवस्था के लिए संवैधानिक तौर पर गंभीर चिंता का विषय बन गयी है। यह नक्सली अपने आपको मार्क्स, लेनिन एवं माओ की विचारधारा के विशेष उत्तराधिकारी के रूप में प्रदर्शित करते हैं। जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर विकास की मुख्य धारा से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं होता है।
नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से हुई है। जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सन्याल ने 1967 ई.में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत की थी। नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है। नक्सली भौगोलिक रूप से सम्पन्न क्षेत्रों में गरीब आदिवासियों को अपने छद्म एवं कुटिल भावनाओं के आधार पर उनका ब्रेन वाश करके निर्वाचित सरकारों के विरोध में सशस्त्र खड़ा करतें हैं।
यह बहुत ही दुस्साहसिक है कि वह एक प्रकार से सामानांतर सरकार चलाते हैं जहाँ उनका अधिपत्य रहता है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में नक्सल प्रभावित जिलों में कमी भी आयी है और लगभग 50 जिलों तक ही उन्हें सीमित भी कर दिया गया है। लेकिन वह कोई भी अवसर नहीं चूकते अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में दुस्साहसिक घटना को अंजाम दे ही देते हैं। उनके निशाने पर पुलिस और सुरक्षा बल के जवान हमेशा रहते हैं। सरकार से कहीं अधिक उनका ख़ुफ़िया तंत्र मजबूत रहता है। जिसका मुख्य कारण स्थानीय नागरिकों का भय एवं समर्थन दोनों आधार पर नक्सलियों को प्राप्त होता है।
पिछले दिनों में छत्तीसगढ़ के बीजापुर में जवानों पर घात लगाकर हमला करना जिसमें 22 जवानों की निर्मम हत्या कर दी जाती है और एक जवान का अपहरण कर लिया जाता है। नाटकीय घटनाक्रम के बाद हालांकि उस जवान को नक्सलियों के क़ैद से सुरक्षित मुक्त करवा लिया जाता है। किन्तु यह सब घटना चक्र अपने साथ बहुत सारे ऐसे तथ्यों एवं सवालों को भी जन्म दे जाता है जिसे बहुत गंभीरता से केन्द्र सरकार एवं सुरक्षा एजेंसियों को लेना चाहिए।
मूलतः अपने ही देश के स्थानीय नागरिक होने के बावजूद विकास आदि की परियोजनाओं के खिलाफ ग़रीब आदिवासियों को बरगलातें हैं। जिन्हें स्थानीय स्तर पर मिलने वाला राजनीतिक संरक्षण नेताओं के द्वारा प्रदान किया जाता है। यहां भी यह खेल वोट बैंक की राजनीति के लिए होता है। जिसकी वैचारिक ख़ुराक देने वाले अर्बन नक्सल, बुद्धिजीवीयों एवं मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले एक विशेष वर्ग का इनको सदैव अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन रहता है। यह भी एक प्रकार से विडंबना ही है कि जहां इक्कीसवीं सदी में इंसान इतनी तरक्की कर रहा है रहन सहन का स्वरूप बदल रहा है। हर क्षेत्र में प्रगति के नये-नये आयाम गढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर ये नक्सली भोले भाले लोगों को गुमराह कर रहे हैं। आतंक के नये तरीके खोज रहें हैं, स्कूलों, अस्पतालों को नष्ट कर रहे हैं। एक बहुत बड़ी आबादी को हिंसा में झोंक रखा है।
एक लंबे समय से सशस्त्र नक्सली सरकार एवं सुरक्षा बलों को खुली चुनौती दे रहे हैं। सीआरपीएफ, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड, स्पेशल टास्क फोर्स, कोबरा बटालियनों के जवान एवं खुफिया एजेंसियों को निरंतर छकाते हुए गुरिल्ला हमला कर देते हैं। स्थानीय स्तर पर मिलने वाले जन समर्थन की आड़ पर यह सुरक्षा बलों के ऊपर भारी पड़ जाते हैं। ग्रामीणों का सहयोग इन्हें एक ढाल की भांति सुरक्षा कवच प्रदान करता है। जिस कारण से आतंकी एवं एक आम नागरिक के भेद को समझने के लिए सुरक्षा बलों को दोहरी चुनौतियों से गुजरना पड़ता है। हालांकि सरकार ने उनको मुख्य धारा में शामिल करने के लिए सामाजिक संगठनों के माध्यम से अनेक कल्याण कारी कार्यक्रमों का संचालन किया है। जिसके बहुत अच्छे सकारात्मक परिणाम भी सामने आयें हैं। जिसमें भटके हुए आदिवासी नक्सलियों ने समर्पण कर विकास की मुख्य धारा में शामिल हुए है। उन्हें आवासीय योजना के अंतर्गत घर एवं रोजगार भी उपलब्ध करवाया जा रहा है।
सबसे अधिक चिंता की बात विदेशों से मिलने वाली आर्थिक सहायता एवं अत्याधुनिक चलित हथियारों व विस्फोटकों तक उनकी पहुंच का होना यह एक गंभीर ख़तरे का विषय है। विकास कार्यों में बाधा उत्पन्न करना, सड़कों का न बनने देना, स्कूल एवं अस्पतालों का निर्माण न होने देना, रेलवे लाइनों एवं पुल-पुलियों को उखाड़ फेंकना व ठेकेदारों से अवैध उगाही करना एवं खनिज सम्पदा से सम्पन्न क्षेत्रों में अधिक दबाव बनाकर अपना कमीशन बनाना आदि इनके आय का प्रमुख साधन है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इतने सालों में कभी सरकार और नक्सलियों के बीच किसी भी प्रकार के संवाद की कोशिश भी नहीं की गयी है कि आखिर उनकी क्या मांगे हैं और वह क्या चाहते हैं। सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध करना जैसी स्थति और भी दुष्कर होती है। जहां कोई बात करके उसका हल भी न निकाला जा सके। हम कब तक उनको भटके हुए नागरिक के तौर पर देखेंगें। एक लंबा समय निकल चुका है जिसके परिणामस्वरूप अनेक सुरक्षा बलों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी है। आखिर कब तक हम उनकी घर वापसी का इंतजार करेंगे। इतने अथक प्रयासों के बाद भी अगर परिस्थितियां नही बदलती तो बिना समय गंवाए अब दूसरे विकल्पों पर भी ध्यान देना चाहिए।
शहरों में बैठे हुए बौद्धिक नक्सलियों एवं उनके आर्थिक मददगारों पर कड़ा शिकंजा कसना चाहिए। साथ ही सरकारों को दोनो स्तर पर कार्य करना चाहिए। समर्पण कर विकास की मुख्यधारा में शामिल हो या सैन्य कार्रवाई के लिए तैयार हो जाएं। इस प्रकार के देश विरोधी तत्वों पर कठोर से कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। किसी भी प्रकार की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को जड़ से नष्ट करने में विलंब नहीं करना चाहिए, देश की संवैधानिक व्यवस्था व कानून का पालन करवाना केन्द्र एवं राज्य सरकारों दोनों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है।
(लेखक डाॅ. अरविंद दीक्षित, भारतीय विकास संस्थान, मुम्बई के शोध और विकास विभाग के प्रमुख हैं।)