कैसे समझें गीता को
श्रीमद्भगवद् गीता सनातन धर्म का प्रमुख ग्रंथ है परन्तु इसकी विशेषता है कि यह किसी एक धर्म, संप्रदाय, पंथ या मजहब तक सीमित नहीं है। यह ईश्वर के मुख से निकला वह गीत है जो सभी मानवों के लिए एक समान उपयोगी है। इसीलिए अलग-अलग देशों, धर्मों, भाषाओं के विद्वानों ने गीता पर सैकड़ों टीकाएँ लिखी हैं। गीता में सभी शास्त्रों का निचोड़ है इसलिए इसे सर्वशास्त्रमयी कहा गया है । गीता के माहात्म्य में कहा गया है कि सभी उपनिषद गाय हैं जिन्हें गोपाल नन्दन ने अर्जुन रूपी बछड़े के लिए दुहा है और यह दूध रूपी अमृत ही गीता है जिसका सुधीजन पान करते हैं। कोई भी मत तब तक सनातन नहीं माना जाता जब तक कि वह तीन ग्रंथों जिन्हें प्रस्थानत्रयी कहते हैं, पर पुष्ट न हो जाए। इन तीन ग्रंथों में उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र के अलावा गीता शामिल है।
गीता केवल मृत्यु के बाद परलोक की बात नहीं करती वह तो इसी जीवन को चेतना के उस स्तर पर जीने की कला बताती है जिससे संसार में सुखपूर्वक रहते हुए अभी और यहीं निर्वाण प्राप्ति हो सकती है (अभितो ब्रह्मनिर्वाणं 5.26)। कोई अपनी रुचि और स्वभाव के अनुसार कर्म करना चाहे, ज्ञान चाहे, भक्ति चाहे या कोई अन्य मार्ग पर चलना चाहे, इन सभी के लिए गीता मार्ग बताती है। गीता कहती है कि इनमें से कोई भी एकांगी नहीं हैं। जीवन इन सब के समन्वय से ही चलता है। जीवन के इस सत्य को जानकर जीवन भगवन्मय हो जाता है और व्यक्ति ईश्वर के हाथ का यंत्र बन जाता है (निमित्तमात्रं भव सब्यसाचिन 11.33)। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि इतना महत्वूर्ण ग्रंथ होने के बाद भी अधिसंख्यक लोग गीता से अनभिज्ञ हैं। वे गीता को पूजाघर में रखते हैं, श्रद्धा से पूजते हैं परन्तु गीता को लेशमात्र भी नहीं जानते हैं। जब तक जानेंगे नहीं तब तक कैसे उससे प्रेम करेंगे और जब तक प्रेम नहीं करेंगे तब तक कैसे उसे अपने जीवन में अपनाएँगे ?
ऐसी धारणाएं बन गई हैं कि गीता संस्कृत में है, अत्यंत कठिन है, रोचक नहीं है, प्रत्येक श्लोक आपस में असम्बद्ध है आदि-आदि। यह धारणाएँ टूटती जाएंगी जब आप इस दिशा में पहला कदम रखेंगे। यह पहला कदम यह है कि आप गीता के प्रति श्रद्धालु हो जाएँ। यह प्रारंभिक विश्वास करें कि ईश्वर की यह वाणी मेरे कल्याण के लिए है। तभी आप गीता के लिए अपने अंतर को खोल पाएँगे। पहले शब्द से ही शंकालु हो जाने पर बौद्धिक ऊहापोह में उलझ जाएँगे और गीता आपके भीतर प्रवेश ही नहीं कर पाएगी। गीता में कहीं भी यह कट्टरता नहीं है कि उसे मानना जरूरी है। पूरी गीता सुनाने के बाद श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कह दिया था जैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर (यथेच्छसि तथा कुरु 18.63)। इसलिए गीता से आगे चलकर जो अनुभव मिलेंगे वह स्वयं आपकी दिशा तय करेंगे। प्रतिदिन नियम से गीता के कम से कम 11 श्लोकों का पाठ करें। उनका हिन्दी अनुवाद भी पढ़ते जाएँ परन्तु अभी अर्थ की बहुत चिन्ता न करें केवल सस्वर उच्चारण का आनन्द लें।
गीता और इसी जैसे अन्य ईश्वरीय ग्रंथ केवल पुस्तक नहीं हैं। यह जाग्रत देवता हैं जो प्रार्थना करने पर अपना अर्थ साधक पर प्रकट कर देते हैं। इसलिए श्लोक पाठ के साथ-ही-साथ प्रत्येक श्लोक को देवस्वरूप मानकर उससे अपना अर्थ देने की प्रार्थना करते जाएँ। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जैसे विज्ञान के नियम सभी को एक समान समझ में आ जाते हैं वैसी स्थिति धर्म के साथ नहीं है। विज्ञान बाह्य है, धर्म आंतरिक है। गुरुत्वाकर्षण का नियम जो भी सीखेगा उसका निष्कर्ष एक सा होगा परंतु गीता में बताए गए नियम आपकी मूल प्रकृति, संस्कार, स्वभाव, आदि के छन्ने से होते हुए ही अंतर में प्रवेश करेंगे। इसलिए हर व्यक्ति उन्हें अपने-अपने तरीके से ग्रहण करेगा या ग्रहण नहीं भी कर पाएगा। इसलिए गीता के अध्ययन के साथ सात्विक जीवनचर्या भी आवश्यक है। इसीलिए व्यवस्थित जीवनचर्या (युक्ताहार विहारस्य 6.17) अपनाने और दैवीय गुणों (16.1,2,3) का अंतर में विकास करने पर गीता जोर देती है।
गीता पर कुछ प्रमाणिक टीकाओं का अध्ययन कर सकते हैं परंतु इनमें बौद्धिक रूप से उलझने का खतरा भी रहता है। इसलिए इसे दूसरे स्थान पर रखें। जब श्लोकों का पाठ करते-करते कुछ जानकारियाँ होने लगें तब प्रत्येक श्लोक के पृथक अर्थ को अन्य श्लोकों के अर्थ के साथ संगति बैठाएं। पूरे अध्याय का कई बार पाठ करें। फिर एक से दूसरे अध्याय की संगति बैठाएँ। इसके लिए अध्यायों के युग्म बना लें। दो, तीन या अधिक अध्यायों को एक साथ बार-बार पाठ करें। गीता को 1 से 18 अध्याय के बाद उल्टे क्रम में 18 से 1 अध्याय तक पाठ करें। फिर हर अध्याय के प्रथम से अंतिम और फिर अंतिम से प्रथम श्लोक का पाठ करें। अब गीता को समग्रता में देखें। प्रारंभ में ऐसा लगेगा कि गीता विभिन्न मतों, वादों का गुलदस्ता है जिसमें हर तरह का पुष्प है परंतु प्रत्येक पुष्प की गंध, रूप, रंग अलग-अलग है। पर बाद में गीता नदी की धारा लगने लगेगी जिसमें लहरें हैं, भँवर है, प्रपात है परंतु उनके नीचे जल की सतत् धारा प्रवाहित है। यह धारा ही गीता का मूल तत्व है जो सभी का आधार है।
जीवन में किसी भी बड़ी उपलब्धि के लिए धैर्य आवश्यक है। गीता ने धैर्य और धृति को दैवीय गुण मानते हुए बहुत महत्व दिया है। कई बार लोग पूछते हैं कि गीता को जानने का सरल तरीका बताओ। गीता बिल्कुल भी कठिन नहीं है परंतु बगैर श्रद्धा, श्रम, लगन और धैर्य के गीता समझना तो दूर की बात, संसार का कोई भी काम संभव नहीं है। यह ऑनलाइन ऑर्डर नहीं है कि आपने किया और पैकेट डिलीवर हो गया। जन्म-जन्मांतर के कर्मों से हमें इस जीवन में बुद्धि, संस्कार, स्वभाव मिला है। आवश्यक नहीं कि हर किसी की चेतना का स्तर एक सा हो। इसलिए सनातनधर्म में विभिन्न लोगों के लिए मूर्तिपूजा, सकाम यज्ञ, निष्काम यज्ञ, ध्यान आदि कितनी ही विधियाँ बताई गई हैं। मूर्तिपूजा धर्म की पहली कक्षा मानें तो गीता धर्म की पीएचडी है। आपको पहली कक्षा की मेहनत से पीएचडी की डिग्री नहीं मिल सकती। पीएचडी के लिए तो 18-20 वर्ष मेहनत करनी ही होगी।
इसलिए धैर्य रखें। गीता शुरू करें। अपने जीवन को सात्विक व नियमित बनाएँ। अन्य प्रमाणिक ग्रंथों विशेषकर शंकराचार्यकृत तत्वबोध, आत्मबोध, अपरोक्षानुभूति आदि का अध्ययन भी करें। उनके सिद्धांतों पर मनन करें। इसके साथ ही साथ दैनिक पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, त्यौहार आदि को यथावत् रखें। सकारात्मक रहें। सारा संसार ही वासुदेव की लीला है वही कण-कण में व्याप्त हैं (वासुदेव: सर्वमिति 7.19) का निरंतर मानसिक अभ्यास करते रहें। यह भाव रखें कि मैं कर्ता नहीं हूँ संसार का हर कर्म मेरे माध्यम से ईश्वर के लिए हो रहा है। ईश्वर की कृपा के लिए प्रार्थना करते रहें। गीता को केवल पढ़ना नहीं है अपना समग्र आंतरिक और बाह्य जीवन ही उसके अनुरूप ढालना है तब गीता माता अपने अर्थ प्रकट करना शुरु कर देगी। यह समग्र साधना है जिससे संसार में भौतिक प्रगति (अभ्युदय) और आत्मिक कल्याण (नि:श्रेयस) दोनों ही एक साथ मिलते हैं। गीता की सबसे अधिक आवश्यकता युवाओं के लिए है क्योंकि उनके लिए जीवन में उसे उतारने का अवसर है। जीवन बहुत छोटा और अनिश्चित है इसलिए इसे आज और अभी से ही करने का संकल्प लें। गीता माता तो अपना वात्सल्य उड़ेलने के लिए तैयार बैठी हैं, देर है तो हमारी स्वीकृति की।
(लेखक आईएएस अधिकारी एवं धर्म और अध्यात्म के साधक हैं)