राष्ट्रीय शिक्षा नीति का कार्यान्वयन
शिक्षा का उद्देश्य तथ्यों का नहीं, बल्कि मूल्यों का ज्ञान कराना है।
-विलियम एडवर्ड्स डेमिंग
नई शिक्षा नीति 1968 और 1986 का लक्ष्य शिक्षा के क्षेत्र में समता और समानता को बढ़ावा देना था। शिक्षा नीति 1968 में जहाँ शैक्षिक ढांचे में सुधार पर जोर था; वहीं, 1986 की शिक्षा नीति में शैक्षिक असमानताओं का उन्मूलन चिंता के केंद्र में था। इसके विपरीत नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 अधुनातन शैक्षिक साधनों और नवोन्मेष के माध्यम से समावेशन और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देती है। जुलाई 2020 से लागू की गयी यह नीति मुख्यत: उच्च शिक्षण संस्थानों में महत्वपूर्ण सुधारों और विनियमन ढाँचे के सरलीकरण की बात करती है। यह सार्वजनिक और निजी संस्थाओं के लिए एक समान, संतुलित एवं संवेदनशील नियमन की प्रस्तावना करने के साथ-साथ शिक्षा क्षेत्र में लाभरहित निजी भागीदारी को भी प्रोत्साहन देती है। लेकिन यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि नयी नीतियां शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को प्रोत्साहित करने वाली न हों। लूट की खुली छूट वाली व्यवस्था में प्रतिभा पलायन और प्रतिभा मर्दन होता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य के प्रति समर्पित है। समृद्ध और उन्नत भारतीय ज्ञान परंपरा की सूक्ष्म समझ, गांधीजी एवं पंडित दीनदयाल उपाध्याय के दृष्टिकोण से अभिप्रेरित एवं आत्मनिर्भर भारत की आकांक्षा से लैस यह शिक्षा नीति विविध शिक्षण-अधिगम सिद्धांतों का सामंजस्यपूर्ण समावेशन है। यह जीवनोपयोगी सैद्धांतिक ज्ञान को अपनाते हुए सामाजिक मूल्यों के साथ बहुभाषावाद को प्रतिष्ठापित करती है। इसने पिछले तीन वर्षों में एक उल्लेखनीय परिवर्तन की पूर्वपीठिका तैयार करते हुए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नवाचार और पुनरुद्धार की शुरुआत की है। हालांकि, ये सुधार और बदलाव अभी अपनी शैशवावस्था में ही हैं। इसलिए समुचित वित्तपोषण, देखभाल और दिशा-निर्देशन के अभाव में अभिप्रेत की प्राप्ति संदिग्ध होगी।
इसके अंतर्गत पिछले तीन वर्षों में निम्न आवश्यक तत्वों पर ध्यान दिया गया है-
* हर विद्यार्थी के लिए निष्पक्ष एवं समावेशी शैक्षिक वातावरण का निर्माण।
* प्रत्येक छात्र के हितों, आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने वाले एक सर्वसुलभ और बहुमुखी बुनियादी शैक्षिक ढाँचे का निर्माण।
* महाविद्यालाओं और विश्वविद्यालयों की ढाँचागत क्षमता का क्रमिक विकास।
* विनियमन व्यवस्था में संगठनात्मक परिवर्तन करते हुए एकीकृत व्यवस्था- उच्च शिक्षा आयोग और राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन का गठन।
* एक व्यापक, संस्कारपरक, कौशल आधारित और अंत:विषयी (इंटरडिसिप्लिनरी) शिक्षा प्रदान करने हेतु व्यापक पाठ्यक्रम परिवर्तन।
* बहुभाषावाद को प्रोत्साहित करते हुए मातृभाषा विशेष रूप से भारतीय भाषाओं में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का संचालन। अभियांत्रिकी, चिकित्सा और प्रबंधन जैसे विषयों की पाठ्य-सामग्री भी हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में तैयार की जा रही है।
* कौशल परक व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देने के हेतु व्यावसायिक संस्थान खोलने पर विशेष बल दिया जा रहा है। चिकित्सा शिक्षा संस्थान इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।
* राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन के लिए 50 हजार करोड़ की राशि आवंटित की गई है। इसके माध्यम से गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान को प्रोत्साहन देना और शोध को समाज और उद्योग जगत से प्रत्यक्षत: जोड़ने की कोशिश की जा रही है।
* गुणवत्तापूर्ण दूरस्थ और मुक्त शिक्षा को बढ़ावा देते हुए सकल नामांकन अनुपात (त्रश्वक्र) को निरन्तर बढ़ाया जा रहा है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने के परिणामस्वरूप समावेशी शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए कई तरह के प्रयास किये जा रहे हैं, जैसे- अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट (्रक्चष्ट), जिसमें उच्च शिक्षा संस्थान (॥श्वढ्ढह्य) छात्रों द्वारा प्राप्त क्रेडिट्स को डिजिटल रूप में जमा कर रहे हैं। छात्र त्रिवर्षीय ऑनर्स प्रोग्राम या चतुर्वर्षीय ऑनर्स प्रोग्राम, अनुसन्धान के साथ चतुर्वर्षीय ऑनर्स प्रोग्राम का चयन कर रहे हैं। इसके साथ ही, वे प्रोग्राम के किसी भी वर्ष में प्रवेश लें या छोड़ सकते हैं। उन्हें अध्ययन अवधि के अनुसार प्रमाण-पत्र दिया जाएगा। अब उनका समय, श्रम और संसाधन निष्फल नहीं जाएगा। उच्च शिक्षा में बहु-प्रवेश और निकास प्रणाली के साथ-साथ बहुविषयक पठन-पाठन भी अकादमिक बैंक ऑफ़ क्रेडिट (्रक्चष्ट) के माध्यम से पूरा किया जा रहा है।
शिक्षा के माध्यम के अलावा भारतीय भाषाओं, कला और संस्कृति को भी प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। कई उच्च शिक्षण संस्थान क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ स्थानीय भाषा को शिक्षण का माध्यम बना रहे हैं। इससे वंचित वर्ग- दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाओं के लिए नई संभावनाओं के द्वार खुल रहे हैं। अध्ययन - अध्यापन में अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व ने इन वर्गों की वंचना को कई गुना बढ़ाते हुए उसे स्थायित्व प्रदान किया है। औपनिवेशिक पाठ्यचर्या ने भारतीय मेधा को कुंठित करते हुए अपनी जड़ों से काट डाला था। अब स्थानीयता और अंतरराष्ट्रीयता का समन्वयन करते हुए जिम्मेदार और जागरूक नागरिक बनाने पर जोर दिया जा रहा है।
प्रतिभा पलायन और पूँजी प्रवाह को रोकने के लिए नामी-गिरामी विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर भारत में खोले जा रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है।
हालांकि, सभी वर्गों को समान अवसर प्रदान करने के लिए वित्तीय सहायता, विशेष ऋण, छात्रवृत्तियां और पुरस्कार आदि सुनिश्चित किये जाने चाहिए। इसी प्रकार शिक्षकों को अपनी शिक्षण विधियों को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रशिक्षण और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। सूचना-तकनीक यंत्रों और माध्यमों से शिक्षण और अधिगम प्रक्रिया को अधिक प्रभावी, समावेशी और सरल बनाया जा सकता है। नवाचार और नवोन्मेष ही शिक्षा परिदृश्य का वर्तमान है। आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आलोक में प्रत्येक संस्थान को एक ऐसे सुन्दर उपवन के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की रोशनी में क्षमता, प्रतिभा, आकांक्षा और संभावना के बहुरंगी फूल खिल सकें।
भारत के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक, दिल्ली विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (एनईपी) के कार्यान्वयन में अग्रणी भूमिका है। यह कई अंतरराष्ट्रीय समझौता ज्ञापनों, सहयोगी सम्बन्धों को धरातल पर उतार रहा है। यह वसुधैव कुटुंबकम् की भावना के साथ-साथ सर्वजनीनता और सार्वभौमिकता को साकार करने की दिशा में निर्णायक पहल कर रहा है। विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों के साथ की जाने वाली रणनीतिक साझेदारियाँ ही पारस्परिक आदान-प्रदान के माध्यम से शिक्षण परिदृश्य को गतिशील और समृद्ध बना सकती हैं।
बहुविषयक और अंतरविषयक अनुसंधान और पठन-पाठन को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक विश्वविद्यालयों ने कई बहुविषयक कार्यक्रमों की शुरुआत की है, जैसे बी.ए (ऑनर्स) इन लिबरल आर्ट्स और एम.ए. इन इंटरडिस्प्लिनरी स्टडीज़। यह कार्यक्रम छात्रों को विभिन्न विषयों का अध्ययन एक साथ करने की अनुमति देते हैं। साथ ही, विचार-विमर्श, समस्या-समाधान क्षमता और संवाद कौशल विकसित करने के उद्देश्य से डिज़ाइन किये गये हैं। ये 21वीं सदी की आवश्यकताओं और चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए बनाये गये हैं। विश्वविद्यालयों में इन्नोवेशन सेंटर, इन्क्यूबेशन सेंटर, स्टार्ट-अप फंड, उद्यमोदय फाउंडेशन,विश्वविद्यालय फाउंडेशन और रिसर्च पार्क आदि की स्थापना जैसी महत्वपूर्ण पहल की जा रही हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सकल घरेलू उत्पादन का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करने का संकल्प व्यक्त किया गया है। अभी इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकी है। विश्व की पाँचवीं अर्थव्यवस्था भारत में जीएसटी द्वारा निरन्तर बढ़ते कर-संग्रहण ने शिक्षा-व्यय में गुणात्मक वृद्धि की आवश्यकता और संभावना को रेखांकित किया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उपरोक्त बिंदुओं के क्रियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा ढाँचागत सुविधाओं का अभाव है। ढाँचागत सुविधाओं के विकास और शिक्षा की सर्व-सुलभता की दिशा में बहुत अधिक काम करने की आवश्यकता है। शिक्षा बजट बढ़ाकर ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए आवश्यक भौतिक ढांचा तैयार किया जा सकता है। हेफा (उच्च शिक्षा अनुदान एजेंसी) द्वारा उच्च शिक्षण संस्थाओं को दिया जा रहा ऋण अनुपयुक्त और अपर्याप्त है। शिक्षा राज्य के प्राथमिक दायित्वों में से है। उसे निजी क्षेत्र के हाथ में नहीं छोड़ा जाना चाहिए। पर्याप्त सरकारी निवेश के अभाव में उच्च शिक्षा तंत्र की हालत भी क्रमश: वैसी ही हो जाएगी जैसीकि सन 1990 के बाद से प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की दशा हो गयी। केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा (ष्टश्वञ्ज) ने भी दूरवर्ती, ग्रामीण और वंचित वर्गों के छात्रों को गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक शिक्षा तंत्र से दूर ही किया है। साथ ही, कोचिंग तंत्र को प्रोत्साहित किया है। इसकी विसंगतियों को भी दूर किये जाने की आवश्यकता है।
निष्कर्षत: पिछले तीन वर्षों में देश के उच्च शिक्षा तंत्र में महत्वपूर्ण बदलाव हुआ है। लेकिन यह बदलाव पर्याप्त नहीं है। सार्वजनिक शिक्षा- तंत्र को छात्रोन्मुखी,शोध-केंद्रित, कौशलाधारित,सर्वसुलभ और नवाचारी बनाकर ही भारत को एक ज्ञान अर्थ-व्यवस्था (विश्वगुरु) और विश्व शक्ति बनाया जा सकता है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं)