राष्ट्रहित प्रधान की महती आवश्यकता
मेरा देश बदल रहा है। आगे बढ़ रहा है, ये वाक्य केवल एक सरल वाक्य नहीं बल्कि एक ऐसा आश्वासन है जो मुझे और मुझ जैसे असंख्य राष्ट्र-प्रेमियों को आश्वस्त और आशान्वित रखता है। वैचारिक एवं राजनैतिक मतभेदों के बीच इस देश में तीन राज्यों (छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान) में एक साथ कमल का खिलना नि:संदेह देश की सर्वप्रिय पार्टी की विजय के साथ उनके समर्थकों की भी जीत है। भारतवर्ष के मुखिया माननीय प्रधानमंत्री के सफल नेतृत्व का हार्दिक -अभिनन्दन करते मतदाताओं ने सिर्फ एक पार्टी और विचारधारा को ही नहीं चुना अपितु राष्ट्रहित चुना। ये सदी परिवर्तन की सदी है। यहाँ से धर्म -संगत राजनीति का शंखनाद होगा। राम -राज्य की परिकल्पना पुनर्जीवित हो रही है। राम -लला का मंदिर सज रहा है। अहा !! अभूतपूर्व क्षण है ये इस सदी का!
ये पढ़ते हुए लग रहा है ना कि ये लेख सत्तारूढ़ पार्टी का खालिस यशगान होगा? क्या आपको अस्वीकार है सत्ता का यशगान? अगर हाँ, तो हमें आपत्ति होनी चाहिए सत्ता के यशगान से किन्तु नियोजित -कार्य योजना, कार्य -शैली, ज़मीनी स्तर का परिश्रम, जन -संपर्क और लोकतंत्र को आशान्वित रखने वाली नेतृत्व -क्षमता और शक्ति की प्रशंसा भी हमें मुक्त कंठ से करनी चाहिए। और ये काम करता है वो सहिष्णु, धर्मनिरपेक्ष, संवेदनशील भारतीय विचारक जो ना तो पूर्णत: वामपंथ के खेमे का समर्थक है ना ही दक्षिण पंथ के आगे दंडवत है। मैं कई बार ये महसूस करती हूँ कि हम सब भारत के एक विभाजित समाज में जी रहे हैं। और ये विभाजन रेखा हमारे सामने अदृश्य होकर भी एक खाई बनकर खड़ी है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स इसका सर्व-श्रेष्ठ उदाहरण है। साहित्य जगत का पारिस्थितिक तंत्र तो सर्व- विदित है ही ।
इस समाज का विभाजन दो विभिन्न विचारधाराओं के साथ -साथ अहम और निजी स्वार्थ पे टिका है। इस सदी में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया पे इस समय सबसे अधिक प्रहार होते है। दर्शकों या जनता ने अपने-अपने अखबार और समाचार चैनल्स अपनी विचारधारा के अनुरूप चुन लिए हैं। एक पगडण्डी को खाई बनाने की भूमिका संचार के किस माध्यम ने निभाई और क्यूँ निभाई ये सर्व -विदित है पर भारतीय समाज ने ऐसा होने दिया ये सबसे ज़्यादा कष्टप्रद है।
दक्षिण-पंथ और वाम पंथ के बीच रहते लोग इस त्रासदी को सबसे अधिक झेलते हैं। इस मध्य मार्ग पे खड़ा वो वर्ग जो विचारक है, लेखक है, शिक्षाविद है, कलाकार है सबसे ज़्यादा पशोपेश में है। उसे इस मध्य मार्ग से लगातार ठेला जाता है। उसके सुझाव, प्रतिक्रियाएं दोनों पंथों द्वारा नकारी जाती हैं। बारम्बार उसे ये समझाया जाता हैं कि तुम्हें अपना खेमा चुनना होगा। यह अस्वीकृत वर्ग सही मायनो में बुद्धिजीवी है। वो दोनों तरफ के अन्धानुराग और अतिवाद को आत्मसात करता है और अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। फिर भी ये वर्ग अपने पैर जमाने हेतु ज़मीन खोजता है। साहित्य जगत का पारिस्थितिक तंत्र तो इस कदर विभाजित हो चुका है कि विचारधारा सर्वोपरि हो गयी है और लेखन कहीं दूसरे पायदान पे खड़ा है।
इस समाज का विभाजन दो विभिन्न विचारधाराओं के साथ-साथ अहम और निजी स्वार्थ पे टिका है। अगर हम और आप इस बात को समझने और स्वीकारने लगे तो समाज को दो खंडों में विभाजित करती खाई शायद फिर एक सकरी पगडण्डी में तब्दील हो जाए जिसे आसानी से पार किया जा सके। क्या हम एक ऐसे समाज का निर्माण करने में कभी सफल हो सकेंगे जहाँ राष्ट्रहित प्रधान हो और व्यक्तिवाद गौण। विचार करें।
संभवत: इस दिशा में चिंतनशील रहकर ही हम भारतीय समाज को सहिष्णु और सरल बनाने का प्रयास कर सकेंगे।
हम, हम हैं
क्यूंकि ये देश है
विचारधाराएं हैं
क्योंकि इस देश में
लोकतंत्र है क्योंकि ये देश है
पर ध्यान रहे कि
खबरें बिकती हैं
जब तक द्वेष है।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)