भारत केवल नाम नहीं स्वाधीनता का दर्शन है
देश में दो मुद्दों पर बहस तेज है - 'भारत बनाम इंडियाÓ और 'सनातन बनाम सनातन का उच्छेद।Ó राजनीति में यह स्वाभाविक है कि ऐसी बहसों को वोट के मद्देनज़र ही देखा जाए, किंतु इस विमर्श को केवल राजनीति तक सीमित रखना भारत के स्वाधीनता आंदोलन के सपनों और उद्देश्य को सीमित करना होगा। इस बहस के साथ ही हमें भारतीय भाषाओं के पुनरुत्थान और मातृभाषा में शिक्षा को लेकर चल रही चर्चाओं को भी देखना होगा। जब तक इस समूचे विमर्श को स्वतंत्रता आंदोलन के लक्ष्य और उद्देश्य के आलोक में नहीं देखा जाएगा, तब तक 'इंडिया दैट इज भारतÓ इस पंक्ति की स्वीकृति-पूर्व की संविधान सभा की चर्चा के परिप्रेक्ष्य को भी नहीं समझा जा सकेगा। और, जब तक इस चर्चा के परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा जाएगा, तब तक इसके मर्म और महत्व को जानना और स्थापित करना असंभव ही रहेगा। यह तर्क इसलिए कि राजनीतिक चश्मे से सबकुछ नहीं देखा जा सकता और वोट के आधार पर राष्ट्रीय प्रश्नों के समाधान भी निकाले नहीं जा सकते।
'इंडिया दैट इज भारतÓ की स्वीकृति संविधान सभा में हुई व्यापक चर्चा का परिणाम है। उस व्यापक परिप्रेक्ष्य को समझना चाहिए और इस प्रकार की समझ बनाने के लिए सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि भारत के संविधान के प्रस्तावित प्रारूप में 'इंडियाÓ नाम ही रखा गया था। साथ-साथ यह जानना भी जरूरी है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही भारत राष्ट्र और भारत माता की अवधारणा स्पष्ट स्वरूप ले चुकी थी, जिसको स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद और महात्मा गांधी ने अपने-अपने ढंग से पल्लवित किया था। इसको यूँ भी समझ सकते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन भारत की आजादी का आंदोलन था। इंडिया की आजादी का नहीं! इससे आगे यह भी समझा जा सकता है कि यह भारत को इंडिया से आजाद करने का आंदोलन था, जिसकी विशद् दार्शनिक चर्चा महात्मा गांधी ने 'हिंद स्वराज्यÓ में की है। संविधान सभा की बैठकों के दौरान यह विषय प्रखर रूप से उभरकर सामने आया था। वस्तुत: 'इंडिया दैट इज भारतÓ की स्वीकृति एक ऐसे सीन और व्यापक विमर्श का परिणाम था, जिसने आजादी के बाद देश को इंडिया से भारत की ओर बढ़ाने की राह खोली। संविधान सभा की जिन बैठकों में संविधान के अनुच्छेद-1 पर चर्चा हुई, उनका स्वर यह स्पष्ट करता है कि भारत की आजादी के बाद भी हिंद स्वराज या आजाद भारत के भारतीयकरण का प्रश्न अत्यंत कंटकाकीर्ण था। राष्ट्र के नाम और राष्ट्र की भाषा पर हुई बहस इस बात को स्पष्ट ध्वनित कर रही थी कि स्वतंत्र राष्ट्र का संविधान बनाने वाली सभा में ऐसे लोग प्रभावी थे, जो भारत की आजादी के संघर्ष के हिस्सेदार नहीं थे, जो ब्रिटिश राज-व्यवस्था को बिना स्वदेशानुकुलन के ही स्वीकार करना चाहते थे। एक बड़ी संख्या विशेषत: मुस्लिम विधानसभा क्षेत्र के सदस्यों की थी, जो द्विराष्ट्रवाद के आधार पर पाकिस्तान के बन जाने के बाद भी मुसलमान की राष्ट्रीयता और धर्म को लेकर भारत के प्राचीन इतिहास को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रेरणा के रूप में स्वीकार करने के बजाय ब्रिटिश शासन के द्वारा पालित-पोषित तुष्टीकरण के सिद्धांत को ही आगे बढ़ाना चाहते थे। साथ ही, कुछ ऐसे भी सदस्य थे, जो स्वतंत्रता के संघर्षों से जुड़े हुए थे, जो हजार वर्ष की गुलामी से मुक्त भारत को उसके प्राचीनतम नाम और ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासतों के परिप्रेक्ष्य में निर्मित करने के पक्षधर थे।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से निकले तथा भारत की समझ रखनेवाले ऐसे सदस्यों ने 15 नवंबर 1948 को संविधान के प्रस्तावित प्रारूप के अनुच्छेद-1, जो देश का नाम केवल 'इंडियाÓ प्रस्तावित करता था, उसका पुरजोर विरोध किया और उस पर चर्चा स्थगित करनी पड़ी थी। एक लंबे अंतराल के बाद 17 एवं 18 सितंबर 1949 को डॉ. अंबेडकर ने एक संशोधन प्रस्तावित किया और उस पर चर्चा प्रारंभ हुई, जिसमें 'इंडिया दैट इज भारतÓ पाठ प्रस्तावित किया गया था। इस अनुच्छेद पर हुई चर्चा में भारत की भवितव्यता और अस्मिता को लेकर जो विचार हुआ, उनसे यह स्पष्ट रूप से ध्वनित होता है कि 'इंडियाÓ नाम गुलामी का सबसे बड़ा चिह्न है। भारत के लोगों को इससे मुक्त होना होगा।
संविधान के लागू होने के बाद से भारत और इंडिया दोनों ही नाम बिना किसी विरोध के प्रयुक्त होते रहे, किंतु आश्चर्यजनक तो यह है कि तमिलनाडु, केरल जैसे राज्यों में भारत, भारतनाडु जैसे नाम इस देश के लिए पारंपरिक रूप से प्रयुक्त होते रहे, वहाँ इसका प्रयोग कम-से-कमतर होता गया और इसके स्थान पर इंडिया नाम ने व्यापक पैठ बना ली। यह इसलिए कि जाने-अनजाने राजनीतिक कारणों से भारतीय भाषाओं में भी भारत के स्थान पर इंडिया का प्रयोग शासन के स्तर पर होने लगा, जो निहायत गैर-जरूरी और प्रतिक्रियावाद का प्रतिफल था। वस्तुत: यह प्रश्न समस्त भारत की अस्मिता का प्रश्न है, जब संविधान में इंडिया अर्थात् भारत नाम स्वीकृत है, तो अर्थत: इस देश का नाम भारत ही है। सभी भारतीय भाषाओं में इस देश को भारत ही कहा जाता है। यदि भारत की राष्ट्रपति अपने को प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया के स्थान पर प्रेसिडेंट ऑफ भारत कहती हैं तो यह राष्ट्र का नाम परिवर्तन नहीं है, अपितु भारत के उस मूल और वास्तविक नाम की स्वीकृति है, जो संविधानसम्मत और इतिहास समर्थित है। नाम परिवर्तन तो तब हुआ था, जब कलकत्ता को कोलकाता, मद्रास को चेन्नई, बेंगलोर को बेंगलुरु, बम्बई को मुंबई किया गया। लेकिन इस देश के जनसमाज ने इन परिवर्तनों को इसलिए स्वीकार किया क्योंकि यह भारतीय संस्कृति,भाषा और परंपरा से समर्थित नाम थे। भारत या इंडिया यह दोनों ही संविधान के द्वारा स्वीकृत वैधानिक नामाभिधान हैं। अत: किसी भी भाषा में भारत लिखा जाना सर्वथा संविधानसम्मत है। यह न तो कोई राजनीति है, न ही कोई षड्यंत्र अपितु औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलकर स्व, स्वबोध और स्वराष्ट्र को स्वाभिमानपूर्वक गुंजारित करना है। पीछे विभिन्न कालखंडों में अंग्रेजों के द्वारा दिए गए भारतीय नगरों के नामों को भारतीय भाषाओं के अनुरूप करने का अभियान दासता के चिन्ह से मुक्ति पाना ही था। तथैव अंग्रेजी भाषा के 'इंडियाÓ को हटाकर 'भारतÓ के प्रयोग को प्रचलन में लाना भी गुलामी की मनोदशा से बाहर निकलकर स्वराज की वैचारिकी पर राष्ट्र को प्रतिस्थापित करने का ही यत्न है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के निवर्तमान कुलपति और प्रख्यात दर्शनशास्त्री हैं)