अरब सागर की लहरों से तूफान ला पाएगा इंडिया!

अरब सागर की लहरों से तूफान ला पाएगा इंडिया!
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उमेश चतुर्वेदी

भोजपुरी में एक कहावत है, पेड़ पर कटहल, होठ पर तेल। हिंदी में कुछ इसी तरह की कहावत है, सूत-न कपास, जुलाहों में ल_म-ल_ा। सवाल यह है कि इन दोनों कहावतों को अभी याद करने की वजह क्या है? वजह है देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में विपक्षी गठबंधन इंडिया की होने जा रही बैठक, जिसमें तय होगा कि नरेंद्र मोदी की चरम लोकप्रियता को आगामी लोकसभा चुनावों में चुनौती देने की अगुआई कौन करेगा? राजनीतिक परंपरा के मुताबिक, यह तय है कि जो अगुआई करेगा, अगर खुदा-न-खास्ता अगले आम चुनाव में विपक्षी गठबंधन को जनता ने मौका दे दिया तो वही देश की भी अगुआई करेगा। यानी प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार होगा। दिलचस्प यह है कि हालिया सर्वेक्षणों में अब भी नरेंद्र मोदी अजेय बढ़त बनाए हुए हैं। राजनीति और राजनेता अपनी सीमाओं को जितना जानती है, दूसरे कम ही जानते हैं। कहना न होगा कि मोदी की इस लोकप्रियता को विपक्षी गठबंधन और उसके नेता भी जानते हैं। लेकिन राजनीति एक तरह से संभावनाओं का खेल भी है, इसीलिए विपक्षी गठबंधन के नेता अपना-अपना नाम आगे करने के लिए दबाव की राजनीति करना शुरू कर चुके हैं।

इसमें दो राय नहीं है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर विपक्षी गठबंधन इंडिया बना है। हालांकि इसकी पहली बैठक पटना में आयोजित करने का प्रस्ताव ममता बनर्जी ने दिया था। पहली बैठक में ही अपना-अपना वर्चस्व साबित करने के लिए सियासी दांवपेच खूब चले गए। दूसरी बैठक शिमला में होनी थी, लेकिन हुई ताजा-ताजा कांग्रेस के हाथ लगे राज्य कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में हुई। इस बैठक में कांग्रेस ने जिस तरह जबरदस्ती मजमा लूटने और पूरे गठबंधन पर अपनी पकड़ दिखाने की सफल कोशिश की, उसका नतीजा अब दिखने लगा है। मोदी विरोधी दलों को एक मंच पर लाने की अगुआई करने वाले नीतीश कुमार को अब शायद लगने लगा है कि लालू और कांग्रेस ने उनके खिलाफ चक्रव्यूह रच दिया है और उसमें वे फंस सकते हैं। इसीलिए अपनी लाज बचाने को लेकर उन्होंने ऐलानिया कहना शुरू कर दिया है कि वे संयोजक नहीं बनना चाहते। हालांकि उनका जनता दल यू विपक्षी गठबंधन पर दबाव बनाने की कोशिश में अब भी जुटा है, ताकि संयोजक का दायित्व नीतीश को ही मिल सके।

राजनीति में दोस्तियां और दुश्मनियां हालात पर निर्भर करती हैं। तकरीबन साथ-साथ राजनीति शुरू करने वाले लालू यादव और नीतीश कुमार भले ही इन दिनों दोस्त हों, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अगर नीतीश ने बगावत नहीं की होती तो लालू यादव की सर्वशक्तिमान समझी जाने वाली बिहार की सत्ता हाथ से नहीं निकलती। लालू भले ही अभी नीतीश के साथ हों। लेकिन वह अतीत को भूले नहीं हैं। इसलिए दोस्ती और वक्त पड़ने पर पटखनी देकर दुश्मनी निभाने के खेल में लालू अब भी जुटे हुए हैं। पटना बैठक में उन्होंने प्रत्यक्षत: राहुल गांधी को शादी का सुझाव देकर दरअसल कांग्रेस को इशारा कर दिया कि वह गठबंधन की अगुआई करे।

लालू कांग्रेस का अहसान नहीं भूले हैं, जिसकी वजह से साल 2000 में बिहार में उनकी सरकार बहाल हो सकी थी। अगर कांग्रेस राज्यसभा में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को सहयोग कर दी होती तो शायद लालू और राष्ट्रीय जनता दल के क्षरण की शुरूआत हो जाती। लेकिन कांग्रेस ने वाजयेपी सरकार की बजाय लालू का साथ दिया था। लालू उस अहसान और नीतीश की बगावत का बदला एक साथ चुका रहे हैं। लालू ने मुंबई बैठक के पहले बयान दिया है कि तीन-चार राज्यों का एक संयोजक होगा, जो लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे की बातचीत की अगुआई करेगा। इस तरह से लालू ने एक तरह से नीतीश कुमार की राह में बड़ी वाली बाधा खड़ी कर दी है। नीतीश को पता है कि वे भाजपा गठबंधन के साथ नहीं हैं, जहां सिर्फ और सिर्फ उनकी ही चलती थी। इसीलिए वे मायूसी में संयोजक ना बनने का बयान दे रहे हैं।

नीतीश की मायूसी की एक वजह कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति भी है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने का खुले तौर पर बयान देना कांग्रेस की उसी दबाव की राजनीति का संकेत है। 1990 या 1996 या 1998 की कांग्रेस अब नहीं रही, जिसने भाजपा विरोध की राजनीति के नाम पर तत्कालीन गैरभाजपा दलों को समर्थन देकर सरकार बनवाई थी। कांग्रेस अब फ्रंटफुट पर खेलना चाहती है और निश्चित तौर पर उसके नेता कांग्रेस के पहले परिवार के प्रौढ़ युवा राहुल गांधी हैं। वह नीतीश का साथ ले तो सकती है, लेकिन वह उन्हें प्रधानमंत्री नहीं स्वीकार कर सकती। वैसे नीतीश ने हाल के दिनों में जितनी बार राजनीतिक पलटियां मारी हैं, उससे उनकी साख कमजोर हुई है। अब 2005 या 2010 या कुछ हद तक 2015 के नीतीश नहीं रह गए हैं, जिनके साख की तूती बोलती थी। इसलिए अब उनको लालू भी आंख दिखा सकते हैं और कांग्रेस भी।

इस पूरी कवायद में ममता बनर्जी का हावभाव जिस तरह बदलता नजर आ रहा है, उससे लगता है कि वे मोदी की विरोधी तो बनी रहेंगी, लेकिन उन्होंने देश का प्रधानमंत्री बनने के संदर्भ में अपनी सीमाएं समझ लीं है। इसीलिए अब वे बंगाल पर फोकस कर रही हैं और चाहती हैं कि राज्य में भाजपा विरोधी मोर्चे में उनके साथ सीपीएम भी आए और कांग्रेस भी। कांग्रेस ऐसा कर भी सकती है। अपने स्थानीय नेतृत्व के विरोध को ताक पर रखकर राष्ट्रीय राजनीति के लिए उसका ऐसा करना मजबूरी भी है। बहरहाल अब ममता के कदमों से नहीं लगता कि वे संयोजक बनने की कतार में खुद को दिखाना भी चाहती हैं। इसलिए मुंबई बैठक में उनकी ओर से कोई क्रांतिकारी टाइप विचार या कदम शायद ही दिखें।

जिन शरद पवार की पहल पर मुंबई में बैठक होने जा रही है, खुद वे ही अभी भ्रम और दुविधा में दिख रहे हैं। वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि उनके भतीजे अजीत पवार ने उनका साथ छोड़ दिया है। शरद पवार कभी अजीत के भाजपा के साथ जाने को उनका रणनीतिक कदम बता रहे हैं तो कभी उसे विद्रोह बता रहे हैं। इंडिया गठबंधन में वे अभी हैं, लेकिन यह भी सच है कि वे एनडीए और इंडिया की ताकत को भांप रहे हैं। जिधर ताकत दिखेगी, पवार उधर ढुलक सकते हैं। यह बात और है कि भाजपा उनका साथ लेना चाहेगी या नहीं, यह इस तथ्य पर निर्भर करेगा। इसलिए पवार को लेकर ना तो इंडिया निश्चिंत है और न ही एनडीए। हालांकि शरद पवार मुंबई बैठक में खुद को केंद्र में रखने की भरपूर कोशिश करेंगे। अगर उनका दल एकजुट होता तो वे इसमें कामयाब भी हो सकते थे। लेकिन फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा।

इंडिया में शामिल क्षेत्रीय दलों की स्थिति भी ताकत भांपने की कवायद जैसी ही दिख रही है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का दिल्ली के अखबारों में हिंदी में विज्ञापन जारी करना एक तरह से भाजपा की ओर हाथ बढ़ाने की कोशिश भी हो सकता है। इस कदम से लगता है कि स्टालिन बड़े कैनवस पर भाजपा को अपना विरोधी नहीं साबित करना चाहते। इन्हीं उलटबांसियों से मुंबई बैठक का दिलचस्प होना संभव होता नजर आ रहा है। इस बैठक में इंडिया में शामिल दलों के अंतर्विरोध सामने जरूर आएंगे और यह भी तय है कि कांग्रेस अपनी अगुआई की तरफ एक और मजबूत कदम बढ़ाते नजर आ सकती है। मुंबई अरब सागर के किनारे है। ऐसे में सवाल यह उठना लाजिमी है कि क्या इंडिया अपनी बैठक के जरिए अरब सागर की लहरों में ऐसा तूफान लाने में कामयाब हो सकता है, जिसके चलते एनडीए की सत्ता धाराशायी हो सके...इसके लिए कम से कम बैठक तक तो इंतजार करना ही होगा। (लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)

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