भारतीय वैचारिक अधिष्ठान का अनुधावन
इस महादेश को प्रत्येक स्तर पर राष्ट्र और राष्ट्रीयता की समझ रखने वाले नेतृत्व की आवश्यकता है। ऐसा कहने के अनेक कारण हैं। पहला है - दैशिक भाव (मूल) से भिन्न विभेदक दृष्टि। और, दूसरा, अपनी अर्थात् स्व एवं स्वत्व (राष्ट्रीय) की परम्परा से विमुख नवसृजित अस्मिताओं के निर्माण व अंगीकार की दृष्टि। ऐसी दृष्टियों से राष्ट्र की बृहत्तर संकल्पना खण्डित होती है और राष्ट्रीयता का अपेक्षाकृत लोप होता जाता है। ध्यातव्य है कि ऐसी दृष्टियां इस महादेश के वैचारिक अधिष्ठान से नितान्त मेल नहीं खातीं। यद्यपि यह महादेश आततायियों से पदाक्रान्त होता रहा है, किन्तु भारतीय लोक मन में उस वैचारिक अधिष्ठान का कदापि पूर्णतया लोप नहीं हो सका है। आप पूछेंगे कि इस महादेश का वैचारिक अधिष्ठान (मूल मन्त्र) क्या है? तो, बुद्धि पर बल दिये बिना ही उत्तर मिलेगा - 'सर्वे भवन्तु सुखिन:।Ó विश्व के अन्य किसी भी देश (राष्ट्र) के पास इस कोटि का वैचारिक अधिष्ठान उपलब्ध नहीं है, जो सर्वार्थ में सर्वातिशायी हो और सर्वमांगल्य की भावना से आपूरित हो। इस कोटि के वैचारिक अधिष्ठान की अनुपलब्धता के कारण प्राय: विस्तारवादी दृष्टि के देश अथवा धर्मावलम्बी लोग नाना प्रयोजनों से, अन्य देश एवं लोगों पर आक्रमण व अतिक्रमण करते रहे हैं। भारत ऐसे आक्रमणों एवं अतिक्रमणों का प्राय: शिकार होता रहा है, किन्तु भारतीयों ने अपने उक्त वैचारिक अधिष्ठान का अनुसरण करना कदापि नहीं छोड़ा।
प्रसंगवधान से एक प्रसंग उल्लेखनीय है। इस महादेश के उक्त वैचारिक अधिष्ठान के आलोक में ही सम्पन्न 'विभाजन की विभीषिकाÓ विषय पर आयोजित एक गोष्ठी में मुझे अपनी बात रखनी थी और मैंने अपना वक्तव्य, जैसा कि विकराल कोरोना महामारी काल से प्राय: करने लगा हूँ, 'सर्वे भवन्तु सुखिन:Ó के साथ आरम्भ किया था। वक्तव्य पूर्ण होने के उपरान्त ज्ञात हुआ कि सभागृह में उपस्थित श्रोताओं को व्याख्यान में उल्लिखित पक्ष नूतन एवं चित्त को जाग्रत करने वाले लगे, किन्तु कुछेक ने अत्यन्त चयनात्मक दृष्टि से कहा कि 'किन्तु, मन्त्रोच्चारण से व्याख्यान आरम्भ करने का कोई औचित्य प्रतीत नहीं हुआ।Ó मेरा दृढ़ मत है कि औचित्यानुसन्धान एवं स्थापन की यह दृष्टि अपने ही वैचारिक अधिष्ठान से कूच कर जाने (शिफ्ट) की स्थिति की ओर इंगित करती है। वास्तव में, सभी के सर्व शुभ एवं कल्याण की कामना से अधिक विशेष (सार्थक) कुछ नहीं हो सकता, किन्तु वर्तमान सूचना-सम्पन्न संसार में स्व-ज्ञानात्मक सन्निवेशन का मार्ग प्राय: अवरुद्ध होता जा रहा है। इसी निहितार्थ को दृष्टिगत रखते हुए ऊपर 'राष्ट्र और राष्ट्रीयता की समझ रखने वाले नेतृत्व की आवश्यकताÓ को केन्द्र में रख कर कथन किया गया है। यह निर्विवाद कथन है कि परम्परानुगामिता से व्यक्ति में राष्ट्र (दैशिक संस्कृति) का बृहत्तर बोध विकसित होता है। परम्पराशील होकर आधुनिक नहीं हुआ जा सकता, ऐसी धारणा वादों में घिरी वैचारिकी का भ्रामक प्रस्थान बिन्दु है। परम्पराशील होने का अर्थ कठमुल्लापन से ग्रस्त होना नहीं है। भारतीय वैचारिक अधिष्ठान परम्पराशील होकर भी आधुनिक होने का सुगम मार्ग दर्शाता है। उस वैचारिक अधिष्ठान का विस्तार 'श्रीमद्भगवद्गीताÓ में भी स्पष्ट है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सन्देश में सम्पूर्ण समन्वयात्मक दृष्टिकोण के साथ-साथ निष्काम कर्मयोग को प्रकारान्तर से रेखांकित किया है। समन्वयात्मक होने का अर्थ है - अनेकान्तमय होना और अनेकान्तमय का अर्थ है - सर्वे भवन्तु सुखिन:।
ध्यान दीजिए कि 2014 और 2019 में भाजपा की हिन्दुत्व की (तथाकथित) सरकार बनने के बावजूद सर्वातिप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कामना की कि 'मुसलमान युवाओं के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कम्प्यूटर हो।Ó ऐसा कहते-करते हुए उन्होंने राष्ट्र की बृहत्तर रूपरेखा प्रस्तुत की थी। ऐसा करते हुए उन्होंने परंपराशील होकर आधुनिक होने का निहितार्थ भी सहज ही समझा दिया था। जबकि अत्यन्त स्पष्ट था कि प्राय: मुसलमान समुदाय ने अपने साम्प्रदायिक कठमुल्लापन के कारण भाजपा के विपक्ष में और अ-राष्ट्रीय धारा के दलों के पक्ष में मतदान किया था। यदि बहुमत वाली भाजपा चाहती, तो प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार के तन्त्र में हिन्दुओं को हरसम्भव छूट देती और अपने कथित विरोधियों को नाकों चने चबवाती, किन्तु उसने सबको साथ लेकर चलने की बात कर अपने वैचारिक अधिष्ठान को पुन:स्थापित किया। संघ के सरसंघचालक भी प्राय: भारत की एकता एवं अखण्डता को सुनिश्चित करने के लिए सभी भेदाभेदों से ऊपर उठने की बात करते रहे हैं। संघ भी प्राय: अनेकान्तमय दृष्टि से ही सेवा कार्य सम्पन्न करता रहा है। यह बात और है कि सच्चे अर्थों में कठमुल्लापन से ग्रस्तों ने भाजपा एवं संघ को 'असहिष्णुÓ करार देने का काम सतत किया है, किन्तु राष्ट्र और राष्ट्रीयता की समझ रखने वाली भाजपा तथा संघ ने प्राय: अत्यन्त सूझबूझ के साथ सबको साथ लेकर चलने का अद्भुत कार्य किया है। जबकि वर्तमान नैरेटिव के युग में, नैरेटिव गढ़ने-चलाने वाले, देश में भिन्न-भिन्न स्तरों पर अराजक (अ-राष्ट्रीय) स्थितियाँ निर्मित करने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे अ-राष्ट्रीय तत्वों के पीछे भारत को खण्ड-खण्ड करने की कामना करने वाली शक्तियों का होना प्रमाणित हुआ है। यह भी स्पष्ट है कि उनकी ओर से बहुत बड़ी, बहुरूपी पूँजी कार्यरत है।
हमें जानना-समझना होगा कि मोदी के नेतृत्व वाली हिन्दुओं की (तथाकथित) पक्षधर सरकार यह भलीभाँति जानती है कि केवल हिन्दुओं को साथ लेकर चलने से राष्ट्रहित की सिद्धि नहीं हो सकती। वीर सावरकर एवं संघ ने इसी दृष्टि के साथ भारत विभाजन को नकारा था और इसी दृष्टि से अखण्ड भारत का स्वप्न संजोया है। इसलिए बृहत्तर दृष्टि धारण कर हमें समझना होगा कि केवल किसी एक जाति, लिंग, धर्मानुयायियों के एकत्रीकरण से राष्ट्र नहीं बन सकता। केवल ब्राह्मणों, मराठों एवं दलितों का एकत्रीकरण भी वह नहीं कर सकता। मुसलमानों के एकत्रीकरण से बने देश की स्थिति हम भलीभाँति देख रहे हैं। यदि ब्राह्मण केवल ब्राह्मण को ही चाहने लगे, जबकि ऐसा है नहीं, क्योंकि ब्राह्मणों में ही आपस में ठनी हुई है। मैंने पिछले 'वज्रपातÓ में उन तथ्यों को रेखांकित किया है और दलित केवल दलित को ही चाहने लगे, तो कोई सकारात्मक स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकती। जबकि यह मानसिकता समाज में व्याप्त हो रही है, जो कि घातक है। सम्भवत: इसी सोच का भयावह परिणाम है कि पुरुष, पुरुष को और स्त्री, स्त्री को चाहने लगी है। हम जानते हैं कि दो पुरुष मिल कर वंश का विस्तार नहीं कर सकते। उसी प्रकार, दो स्त्रियों का संसर्ग वंशदीप प्रज्ज्वलित नहीं कर सकता। इस सत्य के बावजूद समाज में समलैंगिकता उफान मार रही है। समलैंगिकों का यह एकत्रीकरण, ब्राह्मण-ब्राह्मण, दलित-दलित, मराठा-मराठा, मुसलमान-मुसलमान का अपने ही निहितार्थों में रूपान्तरण है। इनमें से कोई भी अपनी अस्मिताई दृष्टि से सकारात्मक समाज (राष्ट्र) का निर्माण नहीं कर सकता। ऐसी सर्वार्थ साम्य-रूपी एकता एवं अस्मिता पूर्णत: वायवीय है। ऐसी कल्पना जब यथार्थ रूप में प्रकट होती है, तब उनके वीभत्स (विकृत) रूप दृश्यमान होते हैं। वास्तव में, ऐसी कुण्ठाओं से ग्रस्त लोग अपनी अतृप्त तृष्णाओं के फेर में फँसे हुए लोग हैं। 'आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँÓ में प्रयुक्त 'आदमीÓ में जबकि भाईचारे का भाव सन्निहित है, किन्तु वही 'आदमीÓ गोविन्दा अभिनीत फ़िल्म 'पार्टनरÓ के संवाद - 'दो-दो गेÓ के रूप में लिंगसूचक हो जाये, तो अनर्थ ही होगा। ऐसे 'आदमीÓ सुदृढ़ समाज (राष्ट्र) का निर्माण नहीं कर सकते। अपने लिंग, जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र इत्यादि से ऊपर उठ कर ही राष्ट्र का निर्माण सम्भव है। अपने विलोम के साथ सहजात भाव रखने से ही मानवता जीवित रह सकती है। यह किसी भी समाज एवं राष्ट्र के लिए शाश्वत सिद्धान्त है। इसके लिए संस्कृत के सुभाषित का ध्यान कर स्व-सुधार करना होगा- 'परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा। आत्म्य्वाच्यं न जानाति जानन्नपि च गुह्यते।Ó कहना न होगा कि औरों की कमियों की आलोचना करने की अपेक्षा स्वयं में सुधार करने के उपक्रम से ही सुमंगल की ओर बढ़ा जा सकता है। अपने राष्ट्रीय वैचारिक अधिष्ठान का अनुधावन करते हुए सर्वमंगल की कामना करने से ही राष्ट्र का एकत्व भाव फलीभूत हो सकता है। (क्रमश:)
(लेखक अखिल भारतीय राष्टवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)