भारतीय संस्कृति ऐसी भायी कि यहीं की माटी में रच बस गईं विदुषी एनी बेसेंट

भारतीय संस्कृति ऐसी भायी कि यहीं की माटी में रच बस गईं विदुषी एनी बेसेंट
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शिवकुमार शर्मा

थियोसोफिकल सोसायटी के काम के सिलसिले में विदुषी एनी बेसेंट इंग्लैंड से 1893 में भारत आई थी। भारतीय संस्कृति का सौरव-गौरव दिल को ऐसा भाया कि वे यहीं की होकर रह गईं। भारत की माटी में रच-बस कर आधी से अधिक जिंदगी समाज सेवा, भारत के राष्ट्रीय जागरण और स्वाधीनता आंदोलन को समर्पित कर दी। उनका भारत प्रेम जग जाहिर है। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि भारत के युगों पुराने ज्ञान को दुनिया भर में फैलाने की जरूरत है जिसके लिए भारत को स्वाधीन होना जरूरी है। औपनिवेशिक शासन में भारतीयों की दुर्दशा से दुखी होकर उन्होंने राष्ट्रवाद की भावना जगाने तथा विदेशी सत्ता से मुक्ति की लड़ाई के लिए मानस तैयार करने का कार्य किया। वह भारतीय मूल की नहीं थी परंतु भारतीयों के हक की लड़ाई लड़ने वाली शख्सियत के रूप में इतिहास में उनका नाम अनंत काल तक दर्ज रहेगा। उनका मत था कि 'विश्व के महान धर्मों का लगभग 40 वर्षों तक अध्ययन करने के बाद मैंने पाया कि कोई भी धर्म हिंदू धर्म की तरह न तो उत्तम है,न ही वैज्ञानिक है, न आध्यात्मिक हैं और न ही उनका दर्शन श्रेष्ठ है। आप जितना अधिक हिंदू धर्म को जानेंगे, आप और अधिक प्यार करेंगे। आप जितना समझने की कोशिश करेंगे उतना ही मूल्यों को गहराई तक जानेंगे। बगैर हिंदुत्व के भारत का कोई भविष्य नहीं है।Ó

प्रसिद्ध लेखिका, प्रभावी वक्ता, राजनेता व समाज सुधारक एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को क्लेफम टाउन लंदन में हुआ था। उनकी माता एमिली मॉरिस और पिता विलियम वुड (चिकित्सक) थे। एनी वुड 5 वर्ष की थी तभी पिता का देहांत हो गया आर्थिक संकट के चलते मॉं ने अपनी सहेली एलन मैरियट को पढ़ाई के लिए सौंप दिया। उनके साथ रहकर फ्रेंच और जर्मन भाषण सीखी। मां के दिए संस्कारों से मजबूत आत्मिक विकास हुआ।1867 ई.में एक पादरी से विवाह हुआ जिनसे दो संताने एक बेटा और बेटी हुईं। वैचारिक मतभेद के चलते 1874 ई.में वैवाहिक संबंध टूटे। कानूनी लड़ाई में दोनों बच्चे पति को देने पड़े। उन्होंने दुखी होकर कहा 'यह अत्यंत अमानवीय कानून है जो बच्चों को उनकी मां से अलग करवा दिया। मैं अपने दुखों का निवारण दूसरों के दुखों को दूर करके करूंगी और सब अनाथ एवं असहाय बच्चों की मां बनूंगीÓ। समय की मार ने चिंतन को मजबूर किया, अंतत: ईसाई धर्म से मोहभंग हो गया। 1877में चार्ल्स ब्रेड- लाफ के साथ स्वतंत्र रूप से प्रवचन शुरू किया 'नेशनल रिफॉर्मरÓ पत्र की सह संपादक बनी। महिला मताधिकार, मजदूर संघ और राष्ट्रीय शिक्षा तथा परिवार नियोजन जैसे मुद्दों पर लेखनी चली।'द लॉज ऑफ़ पापू- लेशनÓनामक किताब लिखी इसी समय लंदन यूनिवर्सिटी से विज्ञान के लिए डिग्री प्राप्त की। उनकी दोस्ती आगे नहीं चली परंतु ईश्वर वादी बन गई। चार्ल्स वेवस्टर लीडबियर से मुलाकात हुई ,वेअतींद्रियदर्शी बताते थे। एनी ने भी अभ्यास किया, जिसके अनुभवों के आधार पर आगे चलकर 'आकल्ट केमिस्ट्रीÓनामक प्रमुख पुस्तक लिखी। आइरिस लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ भेंट हुई फेबियन समिति की सदस्यता ग्रहण की। 1890 में हेलेना ब्लाबटस्की से मुलाकात हुई थियो- सोफिकल सोसाइटी में शामिल हुईं। मैडम ब्लाबटस्की की मृत्यु के बाद एच.एस.आल्काट अध्यक्ष बने। 1893 में शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में थियोसोफिकल सोसाइटी का प्रतिनिधित्व किया वहां उन्होंने स्वामी विवेकानंद के भाषण सुने। भारत आई, काशी में संस्कृत पढ़ी। गीता का अनुवाद किया। उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक पुस्तकें लिखी भारतीय संस्कृति शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर 48 ग्रंथों की रचना की। लुसिफर, द कॉमन व्हील, द न्यू इंडिया समाचार पत्रों का संपादन भी किया। निर्धनों की सेवा में आदर्श समाजवाद देखा। अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, के पक्ष में थी। बहु विवाह को नारी गौरव का अपमान और समाज के लिए अभिशाप मानती थी। थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष 1907 में बनी, यह जिम्मेदारी जीवनभर संभाली। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। सत्याग्रह में शामिल हुईं, होम रूल लीग की स्थापना की।1913 में महिलाओं के लिए वसंता कॉलेज की स्थापना की तथा 1920 में केंद्रीय हिंदू कॉलेज की स्थापना में मदद की। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के लिए उन्हें 'डॉक्टर ऑफ लेटर्स की उपाधि से विभूषित किया गयाÓ। अनेक संस्थाओं के माध्यम से भारत की समुन्नति के लिए के लिए जीवन समर्पित किया। उपचार के दौरान 20 सितंबर 1933 को 86 को अड्यार, चेन्नई में देहांत हो गया। उन्हें मेमसाब नहीं अम्मा कहलाना पसंद था, अमर अम्मा के भारत प्रेम को शत शत नमन।

(लेखक महिला बाल विकास विभाग म.प्र.में संयुक्त संचालक है)

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