भारतीय चिंतन और नारी

भारतीय चिंतन और नारी
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डॉ.चारुशीला सिंह

दुनिया के कुछ भागों में यह विश्वास प्रचलित है कि जब परमात्मा ने मानव को उत्पन्न किया तो मानव ने स्वयं को एकाकी पाकर परमात्मा से साथी मांगा, परमात्मा ने वायु से शक्ति, सूर्य से गर्मी, हिम से शीत,पारे से चंचलता, तितलियों से सौंदर्य और मेघ गर्जन से शोर लेकर स्त्री की रचना की। स्त्री पुरुष की शरीरार्ध और अर्धांगिनी मानी गयी। श्री और लक्ष्मी के रूप में वह मनुष्य के जीवन को सुख और समृद्धि से दीप्त और पुंजित करने वाली कही गयी। उसका आगमन पुरुष के लिए शुभ, सौरभमय और सम्मानजनक था। वैदिक और उत्तर वैदिक काल से ही ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिसमें नारी की अभ्यर्चना की गई है, प्रकृति स्वरूपा नारी को परमेश्वर की शक्तियों के रूप में स्थान मिला है। विद्या, विभूति और शक्ति की क्रमश: सरस्वती, लक्ष्मी एवं पार्वती या दुर्गा के रूप में सर्वत्र पूजा होती है। उस काल में नारियों 'मन्त्रद्रष्टाÓ ऋषि के रूप में दिखाई देती हैं। उपनिषद काल में गार्गी तथा मैत्रेयी जैसी नारियाँ प्रतिष्ठित हैं जिनके शास्त्रीय ज्ञान के आगे विद्वान ऋषि भी ठहर नहीं पाते। वैदिक काल में आचार्य शिष्य को 'मातृ देवो भवÓ कहकर पहले माता की पूजा का उपदेश देते हैं बाद में पिता तथा आचार्य की।

महान आचारशास्त्री एवं धर्म वेत्ता मनु ने लिखा है 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताÓ प्राचीन काल से ही स्त्री यज्ञों और उत्सवों में भाग लेती रही है। वैदिक स्त्री स्वाधीन है, वह युद्ध में भाग लेती है, वह पुरुष के सामने स्वाभिमानी है। वह देवोपासक है लेकिन पूर्णतया मर्यादित भी। वह सुंदर वस्त्र और आभूषणों को धारण करती है। वह स्वतंत्र है पर उचित अनुचित का पूरा भान है उसे। नारी का योगदान भारतीय समाज में सर्वत्र व्याप्त है। चाहे संतुलन की बात हो या न्याय की दृष्टि डालने पर अनेकानेक उदाहरण मिल जाते हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था की इकाई परिवार है जो पूर्ण ही नहीं होता नारी के बिना। स्त्री के बिना मकान घर नहीं बन सकता ऐसी उपयोगिता है भारतीय चिंतन में स्त्री की।

हिन्दू समाज में नारियों की सम्मानजनक स्थिति है। कोई भी धार्मिक कार्य बिना पत्नी के सम्पन्न नहीं होता। पुरुष अपूर्ण है, गृह की शोभा, सम्पन्नता स्त्री से मानी जाती है। नारी स्नेह, सौजन्य की प्रतिमा है, त्याग व समर्पण की मूर्ति है। नारी का अपमान मानवता का सबसे बड़ा अपराध है। स्त्री के बिना न उत्सव है न परिवार, न प्रथाएं न सामाजिक संतुलन। स्त्री और भारतीय संस्कृति को केंद्र में रखकर देखें तो अनेकानेक योगदान दृष्टिगत होते हैं नारियों के। भारतीय ज्ञान परम्परा की संवाहक रही है स्त्री। इतना ही नहीं त्रैलोक्य जननी कही गई है नारी। भारतीय दर्शन, संस्कृति, परम्पराओं में नारी को पुरुषों से भी ऊँचा स्थान दिया गया है। नारी देवी है, वह माँ भी है, बहन भी है और पुत्री भी। पराई स्त्री को माता कहा गया है। 'मातृवत् परदारेषुÓ इतने उच्च स्थान पर भारतीय वाङ्गमय में स्थापित है नारी।

वस्तुत: नारी की स्थिति में गिरावट दर्ज होती है मध्यकाल आते - आते । वह भोग - विलास की वस्तु बनकर रह गई। मुसलमान आक्रमण कारियों ने हिन्दुस्तान की परम्पराओं, मान्यताओं एवं समाज को कुचल दिया, विदेशी आक्रमणकारियों की वासनात्मक दृष्टि से बचने के लिए परदा प्रथा का चलन शुरू हुआ। मध्यकालीन कुरीतियों में सतीप्रथा, बाल - विवाह,परदा-प्रथा तथा विधवाओं को हेय दृष्टि से देखना आदि प्रमुख कहा जा सकता है। इतना ही नहीं संतों एवं सिद्ध कवियों ने भी नारी के प्रति अत्यंत कटु दृष्टिकोण अपनाया, मध्यकाल के साहित्यकारों ने नारियों की खूब खिल्ली उड़ाई। तत्कालीन परिस्थितियाँ ही इन समस्याओं के मूल में रहीं, अत: हम कह सकते हैं कि मुगलकाल हर ओर से नारी के लिए अधोदशा का काल रहा।

समय परिवर्तनशील होता है हमेशा एक जैसा नहीं रहता, आधुनिक काल ने पुन: नारियों को मजबूत किया है। सती प्रथा, बाल-विवाह, विधवाओं के प्रति हेय दृष्टि जैसी कुरीतियाँ लगभग समाप्त हो चुकी हैं। भारतीय संविधान में नारियों को नर के समान ही सभी अधिकार प्राप्त हैं। भारत मातृशक्ति आराधक देश है। सारी विद्याएँ माता हैं, गंगा भी माता हैं। प्राचीन काल में नारी, शिक्षित, विदुषी, कर्तव्यपरायण होती थी। अध्यात्म और लोकाचार के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी पुरुष से कम नहीं थी। गार्गी, अपाला, अरुन्धती के साथ-साथ सावित्री जैसी स्त्री भी थी जो अपने सौभाग्य के लिए यमराज के सामने अड़ जाती है और न सिर्फ अड़ती है अपितु असंभव को संभव करते हुए पति के प्राण वापस लाती है। ऋषि आश्रम हो या राजमहल, कंगाल हो या धनवान की कोठी, नारी यत्र तत्र सर्वत्र पूज्य थी।

उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में हम कह सकते हैं कि नारी दुष्ट मर्दन में चण्डी है तो संग्राम में कैकेयी, श्रद्धा में शबरी है तो सौन्दर्य में दमयन्ती, सुगृहिणी में सीता है तो अनुराग में राधा, विद्वता में गार्गी है तो राजनीति में लक्ष्मीबाई तुल्य है। यहाँ कण-कण में शक्ति की उपस्थिति को महसूस किया जाता है और सम्मान भी दिया जाता है। इसलिए आवश्यकता है कि नारी आधुनिकता की विसंगतियों के बीच भी विवेकवान बनी रहे। अपने स्वरूप के अनुरूप कर्तव्यों का ज्ञान और उनके पालन की क्षमता विकसित करे तभी वह मानव को मंगलमय लोकदर्शन करा सकेगी। निश्चय ही वह दिन अब दूर नहीं है।

(लेखिका साहित्यकार, कवयित्री एवं शिक्षिका हैं)

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