इंदौर की विश्ववंदनीय संस्कृति प्रिय मातोश्री अहिल्याबाई

इंदौर की विश्ववंदनीय संस्कृति प्रिय मातोश्री अहिल्याबाई
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सुनील गणेश शंकर मतकर

पुण्यश्लोका लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर ने अपने तप, त्याग और तेज की दिव्य प्रभा से भारतीय इतिहास एवं भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित कर आलोकित किया है। उनमें अपूर्व स्वार्थत्यागी भाव था, वे महान शिवोपासक थीं। प्रजापालक के रूप में प्रजाहिकारिणी, राजमाता से लोकमाता के उनमें ओतप्रोत गुण थे। इतने विपुल गुण होते हुए भी उनमें राजा जनक के समान निश्चितता, धर्म के लिए धन, ध्येय के लिए राज्यपद, ये महत्वाकांक्षाएं भी थी। राजकाज की दक्षता का गुण भी उनमें विद्यमान था। प्रजावत्सल माता, शत्रु के लिए भय का स्थान, दीन-दुखियों, उपेक्षितों को आश्रय, उपासना की एकनिष्ठ देवता, विद्वानों, साहित्यकारों का आधार आदि गुणों की अहिल्याबाई प्रत्यक्ष मूर्ति थीं। भारतीय संस्कृति में देवी अहिल्याबाई का अजर-अमर ऐसा अमूल्य योगदान है। ऐसी महान भारतीय नारीरत्न के चरित्र से संपूर्ण राष्ट्र नतमस्तक होकर गौरवान्वित होता है। लोकमाता अहिल्याबाई ने भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्वों-ईश्वर भक्ति, समता व स्वतंत्रता का व्यावहारिक जीवन में उपयोग कर यह सिद्ध किया कि देश में शांति और सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए सैनिक शक्ति या आतंकवाद उतना लाभदायक नहीं होता, जितना समता और मानव जाति के जीने के लिए मौलिक अधिकारों को स्वीकार करना होता है। जब कोई धर्म, जाति, संप्रदाय अन्य धर्म जाति संप्रदाय को कुचलने की भावना जागृत कर अपने वर्चस्व का अधिकार बताने का प्रयत्न करता है तो उस समय देश में अराजकता एवं अशांति हो जाती है। अहिल्याबाई ने अपने राजनीति की कार्य कुशलता द्वारा तथा प्रजा को पुत्र के समान व्यवहार को अपनाकर भारत की तत्कालिक युद्धजन्य परिस्थितियों के अशांत वातावरण में शांति स्थापित कर भारतीय संस्कृति की अस्मिता को संजोये रखने का पूर्ण प्रयास किया।

अपने उज्ज्वल चरित्र को अहिल्याबाई ने यथार्थ रीति से भारतवर्ष ही नहीं, विश्व के सम्मुख उपस्थित कर अपने कुल, समाज, भारत देश और समस्त मानव जाति को अपनी ईश्वर भक्ति, सत्कार्य और अपनी पवित्रता से एवं परमार्थ पूर्ण रूप से दृष्टिगोचर करवाया। उन्होंने समर्थ रामदास स्वामी की इन पंक्तियों को अपने पवित्र जीवन में सार्थक किया है- 'जिसने परमार्थ ज्ञान प्राप्त किया है, उसने अपना जन्म यशस्वी किया। सज्जनों का कर्तव्य यही है कि परमार्थ करके इस नश्वर शरीर का यशस्वी करते हुए अपने पूर्वजों का उद्धार हरिभक्ति से करे।Ó संत रामदास स्वामी की इन्हीं पंक्तियों को अहिल्याबाई ने जीवन में अपनाकर ईश्वर भक्ति द्वारा अपना तन-मन-धन राष्ट्र को समर्पित किया और परमार्थ में ही सदैव कार्यरत होती रहीं। प्रत्येक मानव के चरित्र के तीन बल होते हैं- शरीरबल, बुद्धिबल और आत्मबल। चरित्र के बल की इन तीनों शक्तियों को अहिल्याबाई ने संपादित कर भारतीय संस्कृति का रक्षण किया। उन्होंने अपने बुद्धिबल से दरबार में नियमित रूप से बैठकर प्रतिदिन के झगड़े निपटाए और आत्मबल से अजरता-अमरता प्राप्त की। मानवजाति का अभ्युदय अहिल्याबाई के कार्यकाल में तथा पूर्वकाल में भी युद्धों से होता रहा, जो अस्थायी है और ईश्वर भक्ति एवं परमार्थ अपनाकर दूसरा चिरस्थायी शांति का मार्ग होता है। इसी मार्ग को अहिल्याबाई ने ईश्वर भक्ति एवं परमार्थ के कार्यों को निष्ठा, लगन व परिश्रमपूर्वक कर संपूर्ण देशभर में अपने विद्वान कारभारियों द्वारा सम्पन्न करवाया। उनका जीवन गंगा की तरह पवित्र एवं सूर्य के समान स्वयं प्रकाशित है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि समाज में मनुष्य का स्थान जन्म से नहीं, किन्तु उच्च चरित्र से होता है। उन्होंने राज्य की संपत्ति का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए नहीं किया। गरीबों की, दीन-दुखियों की तथा समाज के उपेक्षितों की सेवा करने में ही उन्होंने ईश्वर का स्वरूप देखा। परम्परागत प्राप्त अपनी खासगी संपत्ति के 16 करोड़ रुपयों का उन्होंने अपने राज्य में ही नहीं, देश के समस्त चार धार्मों, सप्तपुरियों, बारह ज्योतिर्लिंगों के जीर्णोद्धार कार्यों में तथा देश के प्रमुख तीर्थस्थलों पर घाट, मंदिर, अन्न क्षेत्रों, तालाब, सड़कें तथा छायादार वृक्षों का निर्माण पर्यावरण संतुलित होने हेतु कराने में खर्च किए। अहिल्याबाई का यह वचन प्रसिद्ध है : यह सब मेरा नहीं है, तेरा तुझको ही अर्पित करती हूं। इन्हीं ईश्वरीय भक्ति से उन्होंने राजकरण, समाजकरण द्वारा मानव जाति की पशु-पक्षियों की, जीव-जंतुओं की सेवा की। उन्होंने राजनीति के साथ धर्म का समन्वय किया और यह सिद्ध कर दिखाया कि किस प्रकार धर्म की सहायता से राजनीति कल्याणकारी हो सकती है।

इसी उद्देश्य से उन्होंने शिव उपासना की और अपना होलकर राज्य शिवार्पित किया। उनके राज्य के हर आदेश पर हुजुर श्री शंकर आर्डर लिखा रहता था। उनके प्रामाणिक चित्रों पर भी उनके दायरे हाथ की पहली उंगली शिवलिंग पर चढ़े हुए बेलपत्र पर रहती दिखाई देती है। इसका यह अभिप्राय है कि प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य तीन तापों के नाश करने वाले भगवान देवाधिदेव महादेव श्री शंकर को साक्षी रखकर करना चाहिए। लोकमाता अहिल्याबाई के चित्र को देखकर हमें जीवन को ऊंचा उठाने की ही प्रेरणा मिलती है। भारतवासियों के लिए अहिल्याबाई के इस चित्र को देखकर संस्कृति के रक्षक के रूप में पहचाना जाता है। इस चित्र के पीछे भारतीय संस्कृति का गौरव ही छिपा हुआ है।

ईश्वर को साक्षी रखकर अपना कार्य करना ही धर्म का मुख्य लक्षण है। अहिल्याबाई ने इसी आदर्श को सदैव अपने सम्मुख रखा। पत्नी, पुत्र, सास, ससुर, कन्या, दामाद, प्रपौत्र सब एक-एक करके अहिल्याबाई को अकेली छोड़ गए थे। कुल 23 मृत्यु का तांडव उन्होंने अपने 70 वर्षीय जीवन में देखा, पर वे इतने भयानक दुखों से विचलित नहीं हुईं। उनके समक्ष ससुर मल्हारराव होलकर द्वारा छोड़ा गया विशाल होलकर राज्य था। देशभर में युद्धजन्य स्थितियों से बलशाली हर राजा दूसरे कमजोर राजाओं के राज्य को हड़पना चाहता था। लुटेरों, डकैतों का चारों ओर उत्पात था। ऐसे समय अहिल्याबाई ने बड़ा धैर्य रखा। धर्म से प्रजा को सुखी किया और विश्व के सामने एक महान आदर्श उपस्थित किया। वैभव सम्पन्न होते हुए भी त्यागमय, साध्वी समान जीवन व्यतीत किया और अपने देश की प्राचीन संस्कृति को नष्ट होने से बचाया। मुगलों के आक्रमण द्वारा ध्वस्त किए गए देश के चारों ओर के ज्योतिर्लिंगों के शिव मंदिरों का जीर्णोद्धार किया। हैदराबाद के इमाम, टिपू और राज-रजवाड़ों में राजपूत, मराठा, ब्राह्मण पेशवाओं से अपने पत्र व्यवहार द्वारा समता एवं स्वतंत्रता का संदेश देकर संपूर्ण राष्ट्र को स्वधर्म की रक्षा का संस्कृति का समता का बंधुत्व का पाठ पढ़ाकर संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोया। राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता का महान कार्य किया। लुटेरे डाकुओं एवं आपराधिक जातियों का हृदय परिवर्तन कर उनका सामाजिक कल्याण किया। उद्योग को महेश्वर राजधानी से प्रोत्साहित किया। हैदराबाद के मुस्लिम पिंजारा बुनकरों को महेश्वर में लाकर इस उद्योग के लिए बसाया। देश के हिंदी, मराठी, संस्कृत एवं अन्य भाषाओं के साहित्यकारों को अपने दरबार में आमंत्रित कर सम्मानित किया। एक साधारण नारी ने भारतीय संस्कृति को पुनरुजीवन प्रदान किया। धन्य है अहिल्यामाता ऐसा मराठई कवि मोरोपंतजी ने अपने काव्य में लिखा, जो आज भी उनकी पंक्तियां गाई जाती है-

देवी अहिल्याबाई झालीस जगतत्रयात तू धन्या।

न न्यायधर्म निरता अन्या कलिमाजी ऐकिली कन्या।।

इस प्रकार इस कलियुग की यह अहिल्या न्याय, धर्म, राजनीति के कार्यों से इस विश्व में में धन्य है। ये शब्द सार्थक होते हैं। दान, धर्म में और हिंदुओं के मंदिरों के लिए ही उन्होंने अपनी संपत्ति नष्ट की ऐसा कुछ इतिहासकारों ने उन पर आरोप भी लगाया है, किन्तु अहिल्याबाई ने अपने राज्य की अर्थात दौलत की फूटी कौड़ी भी दान-धर्म या मंदिर निर्माण में खर्च नहीं की। अपने खासगी में मिले धन से उन्होंने सर्वधर्म समभाव द्वारा हिंदू धर्म के पवित्र मंदिरों का जीर्णोद्धार तो किया ही, साथ ही तीर्थ स्थानों पर यात्रियों के लिए निवास, भोजन व पेयजल की उत्तम व्यवस्था हेतु तालाबों का निर्माण कर घाट एवं अन्नक्षेत्रों, धर्मशालाओं का निर्माण भी किया। मुसलमानों के परिस्थानों एवं दरगाहों, मस्जिदों का भी जीर्णोद्धार कर इनकी व्यवस्थाओं के लिए मुफ्त में पंडित/मौलवियों के जमीनें इनाम में दी। अहिल्याबाई ने गौरवपूर्ण भारतीय संस्कृति व इतिहास को नष्ट होने से बचाया तथा किए गए लोककल्याणकारी महान कार्यों से देश की सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ता की, जो भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में सदैव अंकित रहेगा।

(लेखक रंगमंच से जुड़े प्रसिद्ध कलाधर्मी हैं)

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