अखण्ड भारत की पश्चिमी प्राचीर के प्रहरी सिन्धु सम्राट दाहिर का बलिदान

अखण्ड भारत की पश्चिमी प्राचीर के प्रहरी सिन्धु सम्राट दाहिर का बलिदान
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डा. सुखदेव माखीजा

स्वदेश वेबडेस्क।

युद्ध से पूर्व राजा दाहिर के कुछ मंत्रियों ने उन्हें भोजपुर राज्य स्थित अपने सम्बन्धियों के यहां सपरिवार चले जाने की सलाह दी परन्तु राजा दाहिर सेन ने अपने प्राणों से अधिक देश रक्षा को महत्व देते हुए कहा कि ''संघर्ष करते हुए यवनों की सैन्य शक्ति को क्षति पहुॅचाना आवश्यक है, अन्यथा यदि बिना युद्ध किए मैंने पलायन किया तो यवन सेना सिन्ध की पूर्वी सीमा को चीरते हुए भारत के पूर्वी क्षेत्र तक पहुॅच सकती ह,ै मेरा बलिदान अरब और भारतीय इतिहास में सनातन धर्म के गौरव के रूप में उल्लेखित रहेगा'' रणभूमि में राजा दाहिर के बलिदान से उनका कथन सत्य सिद्ध हुआ, क्योंकि इस युद्ध में कासिम की सैन्य शक्ति को इतनी क्षति पहुंची कि उसे सिन्ध से आगे बढ़ने का साहस ही नहीं हुआ।

राजा दाहरसेन (663-712)

विक्रम सम्वत की सातवीं शताब्दी के अंतिम दशकों से लेकर आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ईसवी सन् 712 तक अखण्ड भारत की पश्चिमी सीमा पर सबल, सम्पन्न सिन्धु राज्य के हिन्दू शासक भारतीय हिन्दू सम्राज्य के प्रहरी की भूमिका निभा रहे थे। इस अवधि में लगभग तीस वर्ष तक पुस्करण ब्राह्मण राजा दाहिर सेन, यवनों के प्रहारों से देश की इस पश्चिमी प्राचीर की रक्षारत थे। इतिहासकार, थामस लेसमैन, सिन्धु देश आंदोलन के प्रेरक गुलाम मुहम्मद सईद, लेखक शिशिर थदानी तथा ब्लाग लेखक का आशा ललित कुमार के अनुसार आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कट्टरपंथी यजीदी यवनों की प्रताड़ना से त्रस्त होकर पैगम्बर मुहम्मद के वशंज तथा सीरिया के खलीफा के आतंक से पीड़ित शराणार्थीयों ने सिन्ध राज्य के आस पास निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे तथा सिन्ध के हिन्दू मानवीय आधार पर उनकी सहायता करते थे।

इमाम हुसैन को दी थी सहायता

सातवीं आठवीं शताब्दी के मध्य भारत पर हुए लगभग 14 यवन आक्रमणों के प्रसंग में पाकिस्तान मूल के राजनैतिक विश्लेषक तारिक फताह और इतिहासकार शिशिर मित्रा के अनुसार मुहम्मद पैगम्बर के संकट ग्रस्त नवासे इमाम हुसैन की पश्चिम एशिया के प्रवासी ब्राह्मणों ने भी सहायता की थी। इन ब्राह्मणों के वंशज आज भी हुसैनी ब्राह्मण कहलाते है जो नवाज के साथ साथ आरती भी करते हैं। अरबी इतिहास विशेषज्ञों के अनुसार इमाम हुसैन के संदेश पर उनकी सहायता हेतु सिन्ध एवं गुप्त वंश के शासकों ने भी सेनाएं भेजी थी परन्तु उन तक सैन्य सहायता पहुंचने के पूर्व ही कर्बला में अरबी विद्रोहियों ने यातनाएं देकर इमाम हुसैन की हत्या कर दी। उनकी इस शहादत को आज इस्ताम में श्रद्धापूर्वक मान दिया जाता है।

मुहम्मद बिन कासिम ने तीन बार हमला किया

अपने विरोधियों को कुचलने के लिए सीरियाई खलीफा के इराकी प्रशासक अल हजाज ने मुहम्मद बिन कासिम की बागडोर में तीन बार सिन्ध राज्य पर हमला कराया परन्तु राजा दाहिरसेन ने अपने परशियाई मित्रों के साथ तीनों आक्रमण विफल कर दिए। 712 ईस्वी में चैथे आक्रमण के समय, मेद एवं भुट्टा कबीलों के मुखियाओं ने कासिम के प्रलोभन में आकर विश्वासघात कर दिया तथा शारणार्थी अरबों ने भी साथ नहीं दया। परन्तु राजा दाहिरसेन बिना हिम्मत हारे युद्ध भूमि में सात दिन तक संघर्ष करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए। विश्वासघाती कबीलों ने बाद में इस्लाम ग्रहण कर लिया।

युद्ध से पूर्व राजा दाहिर के कुछ मंत्रियों ने उन्हें भोजपुर राज्य स्थित अपने सम्बन्धियों के यहां सपरिवार चले जाने की सलाह दी परन्तु राजा दाहिर सेन ने अपने प्राणों से अधिक देश रक्षा को महत्व देते हुए कहा कि ''संघर्ष करते हुए यवनों की सैन्य शक्ति को क्षति पहुॅचाना आवश्यक है, अन्यथा यदि बिना युद्ध किए मैंने पलायन किया तो यवन सेना सिन्ध की पूर्वी सीमा को चीरते हुए भारत के पूर्वी क्षेत्र तक पहुंच सकती है, मेरा बलिदान अरब और भारतीय इतिहास में सनातन धर्म के गौरव के रूप में उल्लेखित रहेगा'' रणभूमि में राजा दाहिर के बलिदान से उनका कथन सत्य सिद्ध हुआ, क्योंकि इस युद्ध में कासिम की सैन्य शक्ति को इतनी क्षति पहुंची कि उसे सिन्ध से आगे बढ़ने का साहस ही नहीं हुआ।

महारानी लाड़ी देवी ने किया प्रथम जौहर

वीर दाहिर के बलिदान के बाद महारानी लाड़ी देवी ने दो दिन तक दुर्ग की रक्षा की अंत में राजा दाहिर की वीरांगना रानियों एवं सात बहिनों तथा अन्य महिलाओं ने ने अग्नि स्नान करे, देश की प्रथम जौहर परम्परा प्रारम्भ की। कासिम ने दो राजकुमारियों सूर्या एवं परमिल को खलीफा को भेंट हेतु सीरिया भिजवा दिया। बुद्धिमान राजकुमारियों ने खलीफा को भ्रमित करते हुए कासिम पर उनके उपभोग का आरोप लगाया। खलीफा ने कुपित होकर कासिम को बैल की खाल में सिलवाकर सिन्ध से सीरिया बुलवा लिया और फिर सिर काट कर मीनार पर टंगवा दिया। बाद में सच्चाई उजागर होने पर दोनों राजकुमारियों ने भी अपने प्राणों की आहुति दे दी।

बलिदान को याद दिलाना आवश्यक

उल्लेखनीय है कि जिस कासिम ने सिन्ध पर आक्रमण करके भारत में यवन राज्य का मार्ग प्रशस्त किया, सिन्ध की दो वीर राजकुमारियों की बुद्धिमता के कारण सीरिया के खलीफा ने उसी कासिम का सर काटकर मीनार पर टंगवा दिया।विडम्बना यह है कि लगभग 1272 वर्ष बाद 1984-88 में जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने नेतृत्व में जब भारत का एक प्रतिनिधि मण्डल सीरिया की यात्रा पर गया तो भारतीय अधिकारियों और नेताओं ने आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम का शांतिदूत के रूप में उल्लेख किया। समालोचक डाॅ. तारिक फतह एवं शिशिर मित्रा के अनुसार भारतीयों द्वारा इमाम हुसैन की सहायता करने एवं उनक बलिदान का जितना उल्लेख अरबी एवं फारसी में लिखे ''चचनामा'' नमक प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ में है उतना विस्तृत विवरण भारतीय इतिहास के संदर्भों में उपलब्ध नहीं है। अतः धर्म रक्षक सिन्धु सम्राट दाहिर सेन के अमर बलिदान को भावी पीढ़िया से अवगत कराना अति आवश्यक है।


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