सुधार की अनंत यात्रा अब भी जारी
वोटर इज किंग, इलेक्टेद मैन इज सर्वेंट ऑफ़ पब्लिक ( मतदाता राजा है, चुने गए व्यक्ति सेवक हैं। लेकिन सारे चुनाव सुधारों और अदालती निर्णयों के बावजूद राजनीति में अपराधीकरण से मुक्ति नहीं मिल पाई है। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को इस बार मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव में प्रत्याशी बनाने में विभिन्न राजनीतिक दलों ने कोई संकोच नहीं किया है। राजनीति के अपराधीकरण का असली कारण यह है कि पहले पार्टियां और उनके नेता चुनावी सफलता के लिए कुछ दादा किस्म के दबंग अपराधियों और धनपतियों का सहयोग लेते थे। धीरे-धीरे दबंग और धनपतियों को स्वयं सत्ता में आने का मोह हो गया। अधिकांश पार्टियों को यह मज़बूरी महसूस होने लगी। पराकाष्ठा यहाँ तक हो गई कि नरसिंह राव के सत्ता कल में एक बहुत विवादास्पद दबंग नेता को राज्य सभा में नामांकन तक कर दिया गया। ऐसे दादागिरी वाले नेता येन केन प्रकारेण किसी न किसी दल से चुनकर राज्य सभा तक पहुंच जाते हैं। दुनिया के किसी अन्य लोकतान्त्रिक देश में इतनी बुरी स्थिति नहीं मिलेगी। कुछ अफ्रीकी देशों में अवश्य ऐसी शिकायतें मिल सकती हैं, लेकिन दुनिया तो भारत को आदर्श रूप में देखना चाहती है। इस सन्दर्भ में हर लोक सभा या विधानसभा चुनाव में इवीएम मशीनों को लेकर न केवल कुछ पार्टियां और नेता संदेह पैदा करने की कोशिश करने लगे हैं। यदि वे विजयी हो रहे होते हैं, तो उन्हें मशीन ठीक लगती है और पराजय की हालत में मशीन में गड़बड़ी, हेराफेरी के आरोप लग जाते हैं। यहां तक कि मीडिया में कुछ विशेषज्ञ या पत्रकार भी शंका करते हैं। यह बेहद दुखद स्थिति है, क्योंकि इससे गरीब, कम शिक्षित मतदाता ही नहीं शहरी लोग भी मतदान को अनावश्यक और गलत समझने लगते हैं जबकि तकनीकी पुष्टि देश के नामी आईटी विशेषज्ञ कर रहे हैं। चुनाव सुधार अभियान के दौरान ऐसी अफवाहों पर अंकुश के लिए भी कोई नियम कानून बनना चाहिए। वैसे भी किसी चुनाव को अदालत में चुनौती का प्रावधान है। लोकतंत्र में आस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए व्यापक चुनाव सुधार और एक देश एक चुनाव के विचार पर जल्द ही सर्वदलीय सहमति से निर्णय होना चाहिए।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 में कुल 2,534 उम्मीदवारों में से 472 (19 प्रतिशत) उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। जिन उम्मीदवारों ने नामांकन पत्र के दौरान दिए गए घोषणा पत्रों में खुद ही अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों का जिक्र किया है, उनकी संख्या 291 (11 प्रतिशत) है। कांग्रेस के 230 उम्मीदवारों में से 121 (53 प्रतिशत) ने अपने हलफनामे में आपराधिक मामले दर्ज होने का जिक्र किया है। वहीं 61 (27 प्रतिशत) ने गंभीर आपराधिक मामले दर्ज होने की बात मानी है। बीजेपी के 230 उम्मीदवारों में से 65 (या 28 प्रतिशत) ने खुद ही अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों को स्वीकार किया है। वहीं 23 (10 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ दर्ज गंभीर आपराधिक मामलों की जानकारी दी है। आम आदमी पार्टी के 66 उम्मीदवारों में से 26 (39 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जबकि 18 (27 प्रतिशत) ने अपने हलफनामों में गंभीर आपराधिक मामलों के बारे में बताया है। बसपा के 181 उम्मीदवारों में से 16 (9 फीसदी) ने आपराधिक रिकॉर्ड घोषित किया है, जबकि 16 (9 फीसदी) के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। यहाँ तक कि कुछ ने धारा-376 के तहत बलात्कार से संबंधित केस दर्ज होने की जानकारी दी है। इसके अलावा 10 उम्मीदवारों ने अपने हलफनामे में हत्या (आईपीसी धारा-302) से संबंधित मामलों की घोषणा की है, और 17 उम्मीदवारों ने हत्या के प्रयास (आईपीसी धारा-307) से संबंधित मामलों की घोषणा की है।
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में चुनाव लड़ रहे 953 उम्मीदवारों में से 100 ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए। इनमें से 56 गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं, जिनमें जानबूझकर चोट पहुंचाना, धमकी देना तथा धोखाधड़ी करने से संबंधित आरोप शामिल हैं । विश्लेषण किए गए 953 उम्मीदवारों में से 100 (करीब 10 प्रतिशत) उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। राज्य में चुनाव लड़ रहे प्रमुख दलों में कांग्रेस के 13, भाजपा के 12, जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) के 11 और आम आदमी पार्टी (आप) के 12 उम्मीदवारों ने अपने हलफनामे में अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, सत्तारूढ़ कांग्रेस के 70 उम्मीदवारों में से सात (10 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं, विपक्षी दल भाजपा के 70 उम्मीदवारों में से चार (6 प्रतिशत), जेसीसी (जे) के 62 उम्मीदवारों में से चार ( 6 प्रतिशत) और आम आदमी पार्टी के 44 में से छह (14 प्रतिशत) उम्मीदवारों ने अपने ऊपर गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं। पहले चरण के चुनाव में 223 उम्मीदवारों में से 26 ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए थे, जिनमें से 16 गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं।
राजस्थान में इस बार चुनाव में उतरे 1875 में से 326 उम्मीदवारों (17 फीसदी) पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इससे पहले 2018 के चुनाव में लड़ने वाले 2188 में से 320 उम्मीदवार (15 फीसदी) ऐसे थे जिन पर आपराधिक मामले दर्ज थे। 2023 में किस्मत आजमा रहे 236 उम्मीदवार (13 फीसदी) ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसी तरह 2018 में 195 उम्मीदवार (नौ फीसदी) ऐसे थे जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। । भाजपा के 200 में से 61 उम्मीदवारों (31 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। दूसरे नंबर पर कांग्रेस के 199 में से 47 उम्मीदवार (24 प्रतिशत) दागी हैं। बसपा के 185 में से आठ उम्मीदवारों (4 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। वहीं आम आदमी पार्टी के 86 में से 15 उम्मीदवारों (17 प्रतिशत) पर केस चल रहा है। इसी तरह भाजपा के 61 उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। कांग्रेस के 34 उम्मीदवार गंभीर आपराधिक मामले का सामना कर रहे हैं। बसपा के आठ उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। वहीं आप के 15 उम्मीदवार गंभीर आपराधिक मामले का सामना कर रहे हैं। राजस्थान में चुनाव लड़ रहे कुल उम्मीदवारों में 36 के खिलाफ महिला अपराध से जुड़े मामले दर्ज हैं। एक उम्मीदवार के खिलाफ दुष्कर्म की धारा (आईपीसी 376) में मामला दर्ज है। चार उम्मीदवार हत्या से जुड़े मामलों (आईपीसी 302) का सामना कर रहे हैं। ऐसे ही 34 उम्मीदवारों पर हत्या के प्रयास (आईपीसी 307) से जुड़े मामले चल रहे हैं।
वैसे लोक सभा में भी आपराधिक मामलों से जुड़े सांसदों की संख्या कम नहीं है। तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में पार्टियों से कहा था कि दागी उम्मीदवार खड़े करने के कारण स्पष्ट करें। वर्षों से चल रही बहस और अदालती निर्देशों के बावजूद लोक सभा में दागी यानी आपराधिक रिकॉर्ड वाले सांसदों की संख्या बढ़ती चली गई है। 2004 में दागी प्रतिनिधियों की संख्या 24 प्रतिशत थी, जो 2009 में 30 प्रतिशत, 2014 में 34 प्रतिशत और 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद 43 प्रतिशत हो गई।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सितम्बर 2018 को एक फैसले में निर्देश दिया था कि दागी उम्मीदवार अपने आपराधिक रिकॉर्ड को प्रमुखता से सार्वजनिक करें, ताकि जनता को जानकारी रहे। राजनीतिक दल जिन दागियों को जिताऊ उम्मीदवार बताकर चुनाव मैदान में उतार देते हैं, उनके बचाव में वे न्याय शास्त्र के इस सिद्धांत की आड़ लेते हैं कि आरोपित जब तक न्यायालय से दोषी न करार दिया जाए, तब तक वह निर्दोष ही माना जाए। यह दलील उन मामलों में भी दी जाती है जिनमें उम्मीदवार के संगीन अपराध में लिप्त होने का आरोप होता है। अनेकानेक गंभीर मामलों में सबूतों के साथ चार्जशीट होने पर तो नेता और पार्टियों को कोई शर्म महसूस होनी चाहिए। चुनाव आयोग ने तो बहुत पहले यही सिफारिश कांग्रेस राज के दौरान की थी कि चार्जशीट होने के बाद उम्मीदवार नहीं बन पाने का कानून बना दिया जाये, लेकिन ऐसी अनेक सिफारिशें सरकारों और संसदीय समितियों के समक्ष लटकी हुई हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सांसदों - मंत्रियों आदि पर विचाराधीन मामलों के लिए अलग से अदालतों के प्रावधान और फैसले का आग्रह भी किया, लेकिन अदालतों के पास पर्याप्त जज ही नहीं हैं। असल में इसके लिए सरकार, संसद और सर्वोच्च अदालत ही पूरी गंभीरता से निर्णय लागू कर सकती हैं।
(लेखक पद्मश्री से सम्मानित देश के वरिष्ठ संपादक है)