जगत कहत जाकौ अविनासी
ब्रज संस्कृति आस्था,समर्पण और समन्वय की संस्कृति है। यह संस्कृति त्याग, वैराग्य की नहीं प्रेम-अनुराग और जीवन के समस्त रसों से युक्त संस्कृति है। ब्रज संस्कृति ने 'सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाएÓ की भावना के साथ सभी धर्मों जिनमें बौद्ध, जैन आदि प्रमुख है के विचारों को उनके सारतत्व के साथ अपनाया है। ब्रज संस्कृति का वास्तविक स्वरूप उत्सवधर्मी है। यहां जन्म से लेकर मृत्यु तक के हर संस्कार में उत्सव की भावना समाहित रहती है। यहां रहने वाले लोग अभावों को दरकिनार करते हुए पूर्ण उत्साह और उल्लास के साथ उत्सव मनाते है। ब्रजधाम जैसा कोई धाम भूलोक पर नही है। यहां से उठने वाली उत्सवों की धूम-धाम की गूँज में विश्व के कोलाहलों को भुलाने की सामर्थ्य है। यह कहना गलत न होगा कि ब्रज की मूल सांस्कृतिक संरचना गत्यात्मक है। इस गति की एक दिशा शास्त्रीयता से लोक मानस की ओर रही है। देखा जाये तो ब्रज संस्कृति मिश्रित संस्कृति है। इसमें कृषक, गोपालक और वेदेतर लोक संस्कृति का समावेश है।
यूं तो ब्रज में प्रत्येक माह उत्सव मनाये जाते हैं लेकिन भादों मास का अपना महत्व है। इस माह में पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म इतिहास की अविस्मरणीय घटना है। आज से पांच हजार वर्ष पूर्व भी जब भादों की अंधेरी रात अपनी निविड़ कालिमा के साथ छायी हुई थी। उस समय भी भारत में जन, धन, शक्ति थी लेकिन इन सब के साथ एक अकर्मण्यता भी थी। जिसने अपने प्रभाव से सभी को मोहाच्छन्न कर रखा था। तब इस मोह को मिटाने और लोक, नीति और आध्यात्म को समन्वय के सूत्र में पिरोकर 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:Ó का पांचजन्य फूंकने वाले श्रीकृष्ण इस धरा पर अवतरित हुये। वृन्दावन की उपासना राधाकृष्ण के युगल स्वरूप की उपासना है। वृन्दावन की कुंज-निकुंजों में विचरण करने वाले, रसिकों के हृदयों के आनंद को बढ़ाने वाले नटवर वपु, नटनागर, पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा ही इस वृन्दावनीय उपासना के प्रमुख तत्व हैं। यहां की रसमयी उपासना ऐसी है जो परमब्रह्म को भी अपने आनंद की प्राप्ति के लिए खिलौना बना लेती है। रसिक सन्त नागरी दास कहते है- जो सुख लेत सदा ब्रजवासी
सो सुख सपनेहु नहि पावत, जो जन है बैकुंठ निवासी
ह्यां घर घर ह्वै रह्यौ खिलौना,जगत कहत जाकौ अविनासी
नागरिदास विस्व ते न्यारी लग गई हाथ लूट सुखरासी।
अब यह अचरज नहीं तो क्या है कि जिस ब्रह्म की कृपा को प्राप्त करने के लिए साधकों को न जाने कितनी साधना करनी पड़ती है, ब्रजवासी उसी ब्रह्म को अपना खिलौना बना कर खेलते हैं। देखो वह परमात्मा भी कैसा है जो छछिया भर छाछ पर नाचने को तैयार है। इसके कण-कण में ऐसा रस तत्व विद्यमान है जो सबको अपने आकर्षण में बाँध लेता है। जो भी इस रस को चखता है वह फिर इसे त्याग नहीं पाता।ब्रजभूमि में अनेक सम्प्रदायों के आचार्यों ने अपनी साधना से आराध्य को रिझाया है। इन सम्प्रदायों की उपासना विधि भिन्न हो सकती है लेकिन उसमें निहित तत्व एक ही है और वो हैं श्रीकृष्ण।
ब्रजमंडल चैतन्य, निम्बार्क, रामानुज, हरिदासी, राधाबल्लभी आदि अनेक सम्प्रदायों का प्रमुख साधना स्थल है। श्रीकृष्ण ही इनकी उपासना के प्राणतत्व है।
बल्लभाचार्य जी कहते है- भज नंदकुमारं सर्वसुखसारं,तत्वविचारं ब्रह्मपरं
स्वामी हरिदास जी की साधना निकुंजोपासना है। उनके आराध्य बांकेबिहारी नित्य किशोर हैं। 'मेरे नित्य किशोर अजन्मा,बिहरत एक प्राण दो तन मां।Ó
राधाबल्लभ सम्प्रदाय में राधाबल्लभ का ध्यान ही मुक्ति का साधन है।
'सब ही सौ हित निष्काम मति,श्रीवृन्दावन विश्राम
श्रीराधाबल्लभ लाल को हृदय ध्यान मुख नामÓ
ब्रजभूमि को भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली एवं क्रीड़ा स्थली होने का गौरव प्राप्त है। युगों-युगों से यह भूमि कृष्णोपासकों के लिए परम आनंद प्रदान करने वाली एवं पूजनीय रही है। किसी क्षेत्र विशेष की सीमित परिधि का नाम ब्रज क्षेत्र होना लौकिक अवधारणा हो सकती है परंतु 'व्रजÓ शब्द अपने व्यापकत्व के अर्थ में-
गुणातीतं परंब्रह्म व्यापकं व्रज उच्यते।
सदानन्दं परं ज्योतिं मुक्तानां पदमव्ययम् ।।
का भाव रखता है। सत्व,रज और तम तीनों गुणों से परे जो ब्रह्म है वही ब्रज है। 'ब्रजÓ शब्द आते ही स्मरण होता है भगवान श्रीकृष्ण का। ब्रज और श्रीकृष्ण का पारस्परिक सम्बन्ध है। बिना श्रीकृष्ण के ब्रज अधूरा है। अथवा यों कहें कि ब्रजभूमि के कण-कण में व्याप्त माधुर्य रस श्रीकृष्ण को विलग कर देने पर फीका-फीका सा लगता है। श्रीकृष्ण ने इस भूमि पर अवतार लेकर इसके माहात्म्य को बढ़ाया है-
ब्रज समुद्र मथुरा कमल वृन्दावन मकरन्द।
ब्रज वनिता सब पुष्प हैं मधुकर गोकुलचन्द।।
श्रीकृष्ण और ब्रज में कोई भेद नहीं है।ये दोनों अभेद है। श्रीकृष्ण स्वयं इसे 'वनं मे देहरूपकम्Ó कहते है।ऐसे नित्य और चिन्मय ब्रज की वन संपदा के संरक्षण और गौ-संवर्धन का शाश्वत सन्देश विश्व को देना ही श्रीकृष्णजन्माष्टमी मनाने की सार्थकता है।
(लेखक वृन्दावन निवासी ब्रज संस्कृति के अध्येता हैं)